गुरुवार, 10 मार्च 2022

टिटहरी के स्वर को शब्दों में ढालने वाले अनूठे नवगीतकार : जगदीश श्रीवास्तव ◆ मनोज जैन

टिटहरी के स्वर को शब्दों में ढालने वाले अनूठे नवगीतकार : जगदीश श्रीवास्तव 
                                      
    अनामिका यात्री निवास, वैसे तो यह स्थान कुछ वर्षों पूर्व 6 नम्बर प्लेटफार्म के सामने हुआ करता था। इस स्थान पर मेरा आना एक यात्री के रूप में तो नहीं, हाँ, एक रचनाकार के रूप में अक्सर होता रहा। दरअसल अनामिका यात्री निवास के स्वामी कीर्तिशेष रमेश माहेश्वरी जी के काव्य प्रेमी होने के साथ-साथ उनके अच्छे मनुष्य होने की अमिट छाप, मेरे मन मस्तिष्क में अब भी जस की तस अंकित है।
                  उन दिनों अनामिका यात्री निवास के कार्यालय में आठ-दस कुर्सियाँ दो-तीन बैंच और एक अलमारी जिसमें माहेश्वरी जी के जरूरी काग़ज़ाद एवं उनकी पुस्तकें करीने से सजी रहती थीं, उन पुस्तकों में एक पुस्तक जिसका नाम "इकेबाना" था,अभी भी याद है।
          अनामिका यात्री निवास का कार्यालय तीसरे रविवार को अपराह्न एक-दो घण्टे के लिए दो-एक खास संस्थाओं की काव्य गोष्ठियों के लिए खोल दिया जाता जिसके पास अपना कोई स्थान या भवन नहीं था।
            संस्था रंजन कलश की मासिक गोष्ठियाँ उन दिनों इसी स्थल पर आयोजित  होती थीं, गोष्ठी में इस शहर के कुछ छन्दधर्मी रचनाकारों के साथ एक जुगल जोड़ी जो, अक्सर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती, जिसने मेरा ध्यान, अपनी ओर जिन अनेक कारणों से खींचा उनमें से, एक कारण तो यह था कि यह दोनों रचनाकार लगभग एक ही उम्र और एक ही शहर विदिशा, मध्यप्रदेश से आते थे। दोनों रचनाकारों के पढ़ने का अंदाज़ अपनी अपनी जगह अनूठा था। दोनों नवगीत पाठ करते,बस अगर कोई अंतर था वह बस इतना कि एक तहत में पढ़ता तो दूसरा सस्वर ।
                गोष्ठी के समापन के उपरान्त तकरीबन दो-चार दिन तक जिन सस्वर पाठ करने वाले कवि के गीतों को सुनकर, स्वर और शिल्प की बनाबट और बुनाबट में खोया रहता, वह कोई और नहीं बल्कि विदिशा के जानेमाने नवगीतकार जगदीश श्रीवास्तव हैं, जिन्हें प्यार से उनके कुछ पुराने छात्र जेपी सर के नाम से पुकारते हैं।
       15, नवम्बर 1937 को ग्राम सुसनेर जिला शाजापुर, मालवांचल में जन्में जगदीश श्रीवास्तव जी की कर्मभूमि विदिशा नगरी ही रही। शिक्षा विभाग में अपनी पूर्णकालिक सेवाएँ देते हुए उनके स्थानांतरण विदिशा के आस-पास होते रहे अंत में वह इसी विभाग में अपनी सेवाएँ देते हुए साँची के शा.उ.मा.विद्यालय से व्याख्याता के पद से सेवा निवृत्त हुए।
                कवि के अब तक पूरे जीवन च्रक में जो एक अभिरुचि खुलकर आती है वह है उनका कविता का प्रेमी होना।
  उन्हें कविता से बेहद प्यार रहा है, वह भी उस कविता से जो पूरी तरह आम आदमी के पक्ष में खुलकर खड़ी होती है। उनके लिखे नवगीत एक तरह से प्रतिपक्ष की मजबूत भूमिका का निर्माण करते हैं। यही कारण है की उस समय की तत्कालीन प्रगतिशील स्तरीय पत्र पत्रिकाओं ने ने कवि के नवगीत बड़े सम्मान से प्रकाशित किए फिर चाहे साप्ताहित हिन्दुतान हो या सारिका कादम्बनी हो या वागर्थ आपकी रचनाएँ अपने धारदार कथ्य और छोटे मीटर के चलते अपनी जरूरी जगह सुनिश्चित करती चली गईं। एक समय ऐसा भी रहा जब जगदीश श्रीवास्तव जी न सिर्फ पत्रिकाओं के जरूरी कवि रहे बल्कि समाचार पत्रों ने भी प्रमुखता से छापा नवभारत,भास्कर,नवदुनिया देशबंधु जैसे प्रतिष्ठित अखवारों की करतनें इस बात की गवाह हैं।
 गीत को जीवन का आदिकाव्य मानने वाले इस नवगीतकार के आत्मकथ्य पर पैनी दृष्टि डालें तो बकौल जे.पी.सर "गीतों की दुनिया काफी विस्तृत और उसका पाट अत्यधिक चौड़ा है। इसमें समाज के सभी वर्गों के लोगों के जीवनानुभव को सार्थक अभिव्यक्ति मिली है। समाज के सभी सामाजिक,आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व को गीतों में अत्यंत संवेदनशील और समसामयिक अभिव्यक्ति मिली है। 
     समाज के सभी कार्य गीत के छंदों में डूबते उतराते हुए ही संपन्न होते हैं। व्यापक जन- जीवन से अंतरंग संवाद संपर्क कायम करने की दिशा में, गीत अन्य तमाम साहित्यिक रूपों से अधिक कारगर और पुरअसर साबित होता है। भारत और भारत से सटे भू-भाग के अधिसंख्य जन साधारण अपने सभी सुख-दुख,हर्ष- विषाद, उत्साह-उमंग, उल्लास, जय-पराजय, संघर्ष की चेतना और मुक्ति संघर्ष की भावना की अभिव्यक्ति गीत से करती है। यहाँ जीवन यापन के अवसर पर सभी ऋतुओं, उत्सव ,त्योहारों एवं श्रम व्यापारों के लिए अलग-अलग गीत हैं।"
         आत्म कथ्य के आलोक में एक बात  साफ दिखाई देती है। आत्मकथ्य रचनाकार के अंतस्थल के तल में उतरकर लगने वाली भाव समाधि की सरणियों का पता बड़ी आसानी से देता है, बशर्ते हमें पर्तें खोलनी भर आती हों!
         जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीतों नें साहित्य जगत में सामाजिक प्रकृति, लोक भाषा,यथार्थ विसंगतियों से जुड़कर अपनी रचनाशीलता के माध्यम से नवगीत के अध्याय में नया जोड़ा है। यद्धपि, कवि का जुड़ाव एक समय तक मंचों से निकट का रहा बाबजूद इसके कवि ने मंच के कवियों के प्रभाव और शैली से स्वयं को अछूता रखा। और स्वयं की एक अनूठी पाठ शैली विकसित की जिसकी धमक आज भी उस समय मंच के साक्षी रहे कवियों के अवचेतन में आज भी है। काश ! ऐसे लोग भी इन्हें पाठ करते हुए सुन पाते जो इस बात का खोखला दावा करते रहते हैं कि नवगीतों को गाया नहीं जा सकता या नवगीत को मंच से श्रोता नहीं मिलते हैं।
                    जगदीश श्रीवास्तव जी नवगीत का संस्कार नवगीत के पुरोधा रमेश रंजक जी जैसे अनेक नवगीत कवियों से ग्रहण करते हैं। अब तक लिखी कुल जमा चार पुस्तकें जगदीश जी के खाते में दर्ज हैं।
1.तारीखें  :   1978 गीत ग़ज़ल संग्रह
चित्रलेखा प्रकाशन इलाहाबाद 
2.शहादत के हस्ताक्षर : 1982 जनगीत संग्रह 
जनधर्म प्रकाशन भोपाल
3.जलते हुए सवाल : 1993 नवगीत संग्रह
संघमित्रा प्रकाशन विदिशा मध्यप्रदेश
3.बूँद मुक्तक खण्ड काव्य का एक  रूप 2007
संघ मित्रा प्रकाशन विदिशा
4 : नदी  गाथा : गीति खण्ड काव्य 
अप्रकाशित
                इसके अलावा अनियतकालीन "सृजन क्षण" मासिक डाइजेस्ट  2010 से 2015 तक सफल संपादन भी आपकी उपलब्धियों के अनेक मनकों में सुमेरु कहा जा सकता है। 
अनेक सरकारी गैर सरकारी सम्मानों से नवाजे गए कवि को अपने समय के लगभग सभी समकालीन शोध सन्दर्भ ग्रन्थों में जगह मिली साथ आपने फ़िल्म पत्थर की मुस्कान के लिए गीत भी लिखे।
        4, फरवरी 2022 को हाल ही मैं सोशल मीडिया के नवगीत पर एकाग्र देश के चर्चित फेसबुक समूह ~।।वागर्थ।।~ ने पाठकों के लिए चर्चार्थ आपके कुछ नवगीत प्रस्तुत किए थे। प्रस्तुति से पूर्व की चयन प्रक्रिया ने सदैव अनुभव संसार में नया जोड़ा है। 
                  आपके नवगीत चयन करने के बहाने मुझे निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर याद आया
    हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी
    जिसको भी देखना हो, कई बार देखना ।
                             कहने का आशय यह कि प्रस्तुति के पहले और बाद  (पूर्व और पर) वाले जगदीश श्रीवास्तव जी में जमीन-आसमान का अंतर था। कवि का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों विराट हैं। आज से 40 वर्ष पूर्व भी उनका कवि बहुत सधे और कसे नवगीत लिख रहा था। प्रकारान्तर से कहूँ तो मुझे यह कहने या लिखने में जरा सा भी संकोच नहीं है कि कवि जगदीश श्रीवास्तव जी अपने समय की संवेदनाओं के यथार्थ को नवगीत के वर्तमान परिदृश्य की तुलना में आज के नवगीत कवियों से तीन दशक पहले ही हजार गुना श्रेष्ठ लिख रहे थे।
वागर्थ समूह की कुछ टिप्पणियाँ के अंश मेरे कथन की पुष्टि करेंगे। देखें कोटा राजस्थान के चर्चित कवि महेंद्र नेह के अनुसार "प्रस्तुत इन गीतों में जिंदगी का यथार्थ भी है और लय भी"
"जगदीश जी के गीत वर्तमान की धुरी पर घूमते हर आमजन के गीत हैं।
             •जयप्रकाश श्रीवास्तव 
     "कथ्य और भाव बेहद दमदार ही नहीं हैं बल्कि कवि की पैनी दृष्टि के परिचायक भी हैं। कितने कम शब्दों में विविध वर्गों के दर्द और आक्रोश को रचा गया है।"
            •स्मिता श्री बेगूसराय
"क्रांतिकारी चेतना की मशाल जलाये प्रखर प्रचंड गीत। दमन के विरुद्ध प्रतिरोध की जबरदस्त ललकार हैं ये शब्द। वाक़ई पत्थरों  में आग पैदा करने से भी आगे का संदेश है। शब्द रूपी पत्थरों से आग पैदा करने की ताक़त है इन गीतों में है।
         •भगवान प्रसाद सिन्हा बेगूसराय
                    "गंध रोटी की, एक बहुत ही सशक्त बहुत ही उल्लेखनीय और विचारणीय नवगीत है जिसमें आम आदमी के जीवन की तल्ख सच्चाईयाँ उजागर हुई हैं। "धूप की किरचे", "सड़कों पर" और "बन्जरो में फूल" बहुत ही महत्वपूर्ण नवगीत हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं।
        •छत्तीसगढ़ से मुकेश तिरपुडे
 मार्च 2019 में पड़े ह्रदयाघात के आघात ने जे.पी.सर के शरीर को भले कमजोर कर दिया हो, पर इनके मजबूत इरादों को नहीं तोड़ पाया। भरोसा नहीं हो तो आप आज भी इन्हें कॉल करके देख लीजिए!
           प्रत्युत्तर में आपके सेल के स्पीकर में सामने से वही खनकदार आवाज़ गूँजेगी और जेपी सर का सधा हुआ तकिया क़लाम सुनने मिलेगा।
        "हैलो मैं जगदीश श्रीवास्तव ! "और क्या हाल हैं। आइए कभी विदिशा आपके सम्मान में एक गोष्ठी रख लेंगे। शहर के चालीस-पचास कवियों को बुला लेंगे!"
और हाँ,
        "आपका सम्मान भी करा देंगे!"
खैर, यह तो रहा उनका अंदाजेबयां !
                       आप पहुँचें या ना पहुँचें गोष्ठी हो या ना हो ! पर उनकी इस आश्वस्ति में प्रेम बोलता है जो इन दिनों लगातार रहस्यमयी अंदाज़ में समूची दुनिया से गायब हो रहा है।
    जैसा कि आप जानते हैं कि दुनिया की सात हजार एक सौ बोली और भाषाओं में शायद ही किसी ने टिटहरी के स्वर को गीत का विषय बनाया हो लेकिन इस अनूठे नवगीतकार ने चौदह वर्षो तक टिटहरी की आवाज को सुनकर एक अनूठे नवगीत की रचना की जो अन्यों के लिए स्पर्हणीय है।

गीत टिटहरी के
_____________

सूखी हुई झील में उभरे
गीत टिटहरी के,
बिखर गए आँगन में जैसे
फूल दुपहरी के !

घाटी में फूँके हैं लगता
शंख हवाओं ने,
सूनेपन को बाँट लिया है
सभी दिशाओं ने।
व्यर्थ हो गए सभी समर्पण
मन की देहरी के!

चक्की की आवाज़े गुम
किरणों के पाँवों में,
चरवाहों की वंशी के स्वर
उभरे गाँवों में।
टुटे हुए पंख हैं बिखरे
याद सुनहरी के!

फटी बिंवाई सी धरती की
आँखें गीली हैं,
सूने-सूने घाट रह गए
प्यास लजीली है।
उड़ते रहे हवा में पन्ने
लिए कचहरी के!
       यह एक महज संयोग ही है अनामिका यात्री  निवास से आरम्भ होकर नवगीत की ख्यात कवियत्री अनामिका सिंह की टिप्पणी पर आलेख स्वतः विराम ले रहा है। जगदीश श्रीवास्तव जी पर वागर्थ में चर्चा के दौरान इस महत्वपपूर्ण टिप्पणी को जोड़े बिना शायद बात अधूरी ही रहती यह रही टीप 
"आदरणीय जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीत तब भी प्रासंगिक थे , वर्तमान में इनकी प्रासंगिकता और बढ़ गयी है ...क्या -क्या नहीं लिखा -कहा जा चुका है हमारे वरिष्ठ नवगीतकारों द्वारा..इस साहस, इस स्वर , इस तेवर का जिक्र आज भी है और कल भी निश्चित होगा .....
"चीमटा खुरपी कुदालें/ जो बनाते हैं/
खून -भट्टी में वही /हर दिन जलाते हैं/
लोग कद को/ ढूँढते हैं /आज बौनों में/
और बहलाते हैं /फिर झूठे खिलौने में/
                       "भीतर से टूटते रहे/दोस्त मगर लूटते रहे/कहाँ-कहाँ हुये इंतकाम /तोड़ दे गतिरोध की चट्टान /जो खिलाफत में खड़ा होगा 
ज़ुल्म से वो ही लड़ा होगा /तोड़ दे ऐसी व्यवस्था/जिसमें /आदमखोर /आदमी को आदमी /पूरा निगलते हैं /कब तलक आवाज को/रक्खोगे तिजोरी में /मुल्क बातों से/कभी आगे नहीं बढ़ता/"
             गीतों में जो कहा गया है उसके पीछे जितना अनकहा है वह भी मस्तिष्क को मथ रहा है। प्रत्येक नवगीत ठहरकर पढ़ने और चिंतन करने की माँग करता है। 
अपने समय की सूक्ष्म अभिव्यक्ति , बिंब,और शिल्प प्रभावी बनाते हैं । 
                           अलग अलग संदर्भों के ये नवगीत कहन और शिल्प के स्तर पर नितांत मौलिक हैं, जो सिर्फ़ संवेदना जगाने तक सीमित नहीं है ,वह दुर्वह यथास्थिति पर भी जमकर प्रहार करते हैं। सामाजिक विसंगतियों को बेपरदा करने के लिए जिस साहसिक कथ्य और शैली की ज़रूरत है, वह इन नवगीतों में प्रबलता से विद्यमान है। अपने समय के सच को बहुत ही भावुकता और सजगता से विश्लेषित करते हुए इन नवगीतों के सर्जक को साधुवाद।"
                         मेरे प्रिय नवगीतकार जगदीश श्रीवास्तव जी शतायु हों! आलेख हेतु सामग्री और समय-समय पर सन्दर्भ के सहयोग के लिए वरेण्य साहित्यकार दादा मयंक जी का विशेष आभार।

मनोज जैन 
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संपादक वागर्थ 
( सोशल मीडिया का चर्चित समूह )
106, विठ्ठल नगर गुफ़ामन्दिर रोड
भोपाल
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