एक
गङ्गा नहाते हैं
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मित्र बैठो
पास मेरे
चार 'कश!' 'सिगरेट' के
मिलकर लगाते हैं।
मन मुआफ़िक चल रहा सब
दिन दहाड़े तंत्र हमको
लूट लेता है।
जो सुरक्षा में खड़ा है,
कौन उसको लूटने की
छूट देता है।
'धुएँ' के 'छल्ले' उड़ाओ
फिक्र छोड़ो
इस तरह आदर्श
गाते हैं।
लोग उन्मादी हुये हैं
इन्हें अपने काम के ही
रंग दिखते हैं।
कुछ सयाने इन्हें बहका
नियति में इनकी जबरिया
जंग लिखते हैं।
मान लो अपनी कठौती
'ऐश-ट्रे है
और हम
गङ्गा नहाते हैं।
दो
मानवतावादी चिंतन की
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एकाकी
चिंतन है प्यारे!
यह तो कोई बात नहीं है।
आर्यावर्ते जंबूद्वीपे
भरतखण्ड में केवल, केवल,
हम ही हम हों।
खुशियाँ सारी रहें हमारी
रहें हमारी,औरों के हिस्से
में ग़म हों।
सच्चाई में
सपना बदले
इतनी अभी बिसात नही है।
एक सोच कहती आई है
सदियों-सदियों सिर्फ हमारी
केशर क्यारी।
रंग धरा का हो केसरिया,
हो केसरिया,सोच रहा हर
भगवाधारी।
मानवतावादी
चिंतन की
प्यारे कोई जात नहीं है।
उन्मादी, कुत्सित चिंतन को,
जन गण मन में,मत पलने दो,
मत पलने दो।
कठमुल्लापन छोड़ो भाई,
नई पौध को, मत छलने दो,
मत छलने दो।
आशा के
सूरज को रोके
ऐसी कोई रात नहीं है।
मनोज जैन