गुरुवार, 15 सितंबर 2022

युवा कवि धर्मेंद्र के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग



कुछ अच्छा पढ़ने के क्रम में अचानक दृष्टि पड़ी ' सज्जन ' धर्मेंद्र जी के नवगीतों पर । आपके नवगीत पढ़कर लगा ,जैसे यह आज ही लिखे गये हैं , शब्द-शब्द सामयिक परिदृश्य का सजीव खाका खींचता हुआ । 
   बात चाहे धर्मांधता की हो , महँगाई की हो , पूँजीवाद को प्रश्रय देने की हो , वर्ण व्यवस्था के कुरूप पिरामिड की हो , मज़हबी दाँव-पेंच की हो या शोषितों के अनवरत शोषण की ! आपके गीतों में समाज में गहरी जड़ें जमाये हर विसंगति पर सवाल उठाये गये हैं ।
 विसंगतियों पर कहते-बोलते कवि  जब प्रेम पर बोलते हैं , "भूल गया सब याद रहा बस तेरा हाथ हिलाना " ,भले लगते हैं।

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(1)

आतंकित हो
मानवता की कोयल भूली कूक ।
अंधा धर्म
लिए फिरता है
हाथों में बंदूक ।

नफ़रत के प्यालों में
जन्नत के सपनों की मदिरा देकर ,
कुछ मदहोशों से
मासूमों की निर्मम हत्या करवाकर ।

धर्म बेचने वाले सारे
रहे ख़ुदी पर थूक ।

रोटी छुपी दाल में जाकर ,
चावल दहशत का मारा है ।
सब्ज़ी काँप रही है थर-थर ,
नमक बिचारा हत्यारा है ।

इसके पैकेट में आया था ,
लुक-छिपकर बारूद ।

इक दिन शल्य-चिकित्सा से जब
अंधा धर्म आँख पायेगा ,
हाथों पर मासूमों का ख़ूँ देखेगा
तो मर जाएगा ।

देगी मिटा धर्मगुरुओं को ,
ख़ुद उनकी ही चूक ।

(2)

पत्थर-दिल पूँजी के दिल पर
मार हथौड़ा 
टूटे पत्थर ।

कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा ,
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा ।

अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़्लूमों के घर ।

मौसम अच्छा हो कि बुरा हो 
इस पर कोई फ़र्क़ न पड़ता ,
बिन बारूद
धमाके के बिन 
आसानी से नहीं उखड़ता ।

ख़ुद उखड़े तो
कितने मुफ़्लिस
मरते इसकी ज़द में आकर ।

छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा ,
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा ।

रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर ।

(3)

सुनकर मज़्लूमों की आहें
ब्राह्मणवाद हँसा ।

धर्म, वेद के गार्ड बिठाकर
जाति, गोत्र की जेल बनाई ,
चंद बुद्धिमानों से मिलकर
मज़्लूमों की रेल बनाई ।

गणित, योग, विज्ञान सभी में
जाकर धर्म घुसा ।

स्वर्ग-नर्क गढ़ दिये शून्य में
अतल, वितल, पाताल रच दिया ,
भाँति भाँति के तंत्र-मंत्र से
भरतखण्ड का भाल रच दिया ।

कवियों के कल्पित जालों में
मानव-मात्र फँसा ।

सत्ता का गुरु बनकर बैठा
पूँजी को निज दास बनाया ,
शक्ति जहाँ देखी
चरणों में गिरकर अपने साथ मिलाया ।

मानवता की साँसें फूलीं
फंदा और कसा ।

(4)

पूँजी के काले खातों में
महज़ आँकड़े भर हैं
हम सब !

पूँजी हमें बदल सकती है
कम या ज़्यादा कर सकती है ,
शून्य गुणा कर अपने हल में
हमें मिटा सकती है पल में ।

इसका बुरा क़र्ज़ भरने को
बढ़ते जाते कर हैं
हम सब ।

भाँति भाँति के खेल दिखाकर ,
पूँजी का दिल बहलाते हैं ।
गाली, पत्थर, डंडा, गोली,
जाने क्या-क्या सह जाते हैं ।

चेहरे पर मुस्कान सजाये
सर्कस के जोकर हैं
हम सब ।

नींद न टूटे पूँजीपति की
सोच यही हम डरते रहते ,
बहरी पूँजी के कानों में
भिन-भिन-भिन-भिन करते रहते ।

ख़ुशबू पर मर मिटने वाले
नाली के मच्छर हैं
हम सब ।

(5)

खिसिया जाते बात बात पर
दिखलाते ख़ंजर ,
पूँजी के उत्तर ।

अभिनेता ही नायक है अब
और वही खलनायक ,
जनता के सारे सेवक हैं
पूँजी के अभिभावक ।

चमकीले पर्दे पर लगता
नाला भी सागर ।

सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें
वही खेल है मज़हब ,
बिक जाये जो
कालजयी है
उसका लेखक है रब ।

बिछड़ गये सूखी रोटी से
प्याज और अरहर ।

जीना है तो ताला मारो
कलम और जिह्वा पर ,
गली-मुहल्ले श्वान सूँघते
सब काग़ज़ सब अक्षर ।

पौध प्रेम की सूख गई है
नफ़रत से डरकर ।

(6)

पूज्य कमल जी !
क्यों ख़ुद पर इतना इतराते हैं
रंग रूप सब
कीचड़ के शोषण से पाते हैं ।

इनके कर्मों से घुटती है
बेचारे कीचड़ की साँस ,
मज़्लूमों के ख़ूँ से बुझती
चमकीले रंगों की प्यास ।

पर खिल कर ये सदा कीच के बाहर जाते हैं 
कीचड़ से इनके सारे मतलब के नाते हैं ।

ये ख़ुश रहते वहाँ ,जहाँ
कीचड़ समझा जाता कुत्सित ।
देवों के मस्तक पर चढ़कर
इनको दिखते नहीं दलित ।

बेदर्दी से जब सब मुफ़्लिस कुचले जाते हैं ,
कष्ट न उनके इनके दिल को छू तक पाते है ।

फेंक दिये जाते हैं बाहर ,
ज्यूँ ही मुरझाने लगते ।
कड़ी धूप में और धूल में
घुट-घुट कर मरने लगते ।

ऐसे में निर्धन-निर्बल ही गले लगाते हैं
पर इनको निःस्वार्थ भाव कब पिघला पाते हैं ।

(7)

तेरा हाथ हिलाना
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ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना ।
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना ।

तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था ,
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था ।

याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना ।

तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर ,
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर ।

दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना ।

इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे ,
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे ।

अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना ।

              - ' सज्जन ' धर्मेन्द्र 

परिचय
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नाम: धर्मेन्द्र कुमार सिंह

जन्म तिथि: 22 सितम्बर, 1979

शिक्षा: प्रौद्योगिकी स्नातक (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) एवं प्रौद्योगिकी परास्नातक (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की)

प्रकाशन:
ग़ज़ल संग्रह

ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर (2014)
पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ (2017)

नवगीत संग्रह

नीम तले (2018)
कहानी संग्रह
द हिप्नोटिस्ट (2017)
उपन्यास
लिखे हैं ख़त तुम्हें (2022)

सम्प्रति: एनटीपीसी लिमिटेड की तलाईपाली कोयला खनन परियोजना में उप महाप्रबंधक (सिविल) के पद पर कार्यरत

साभार - कविता कोश