गुरुवार, 10 नवंबर 2022

काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव : धूप भरकर मुट्ठियों में



समीक्षा

समीक्षक आदरणीय नवरंग जी

काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव : धूप भरकर मुट्ठियों में

मनोज जैन के नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' के गीत एवं नवगीत रचना प्रक्रिया की बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करते हैं। उन्होने शब्दों के अनुशासन , भाव तथा लय का पूरा ध्यान रखा है। उनकी संवेदनाओं का पाट चौड़ा और चित्त का आयतन बहुत बड़ा है । अभिव्यक्ति की कलात्मकता क़ाबिले तारीफ़ है -
 *स्वर्ग वाली संपदाएं / यों कभी चाही नहीं है / हम किन्हीं अनुमोदनों के / व्यर्थ सहभागी नहीं हैं / शब्द को बस में करें हम / आखरों की शरण ले लें ....*
संग्रह में कुछ ऐसे भी नवगीत हैं जिनसे संदेश प्रतिध्वनित होता है। जिस प्रकार सूत के मिलने से चादर बनती है ठीक उसी प्रकार बूंदों से सागर का निर्माण होता है। थोड़े से परिश्रम से सफलता हासिल की जा सकती है। दृष्टि व्यापक रूप लेकर दिव्य दृष्टि बन जाती है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं - *दृष्टि है इक बाहरी / तो एक अंदर है / बूंद का मतलब समंदर है ...* 
मनोज के व्यक्तित्व की झलक उनके नवगीतों में साफ दिखाई देती है। अपने बेबाकपन को उन्होंने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है -  *हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के / जो बोलोगे रट जाएंगे / हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के/जो प्रेशर से फट जाएंगे ....* 
जो साधक होते हैं उनके भीतर कभी अहंकार नहीं पनपता और वो नित नये सृजन की ओर उन्मुख रहते हैं। कवि का यह कहना उसकी परिपक्वता को दर्शाता है कि - *छंदों का ककहरा अभी तक / हमने पढ़ा नहीं /अपनी भाषा का मुहावरा / हमने गढ़ा नहीं.....* 
हर युग में प्रायः  कविता की एक लीक बन जाती है। अधिकांश कवि ऐसी ही लीकों पर चला करते हैं।लीक छोड़कर चलने वाले विरले ही मिलते हैं।इसीलिए तो कहा गया है कि - लीक लीक गाड़ी चलै,लीकै चलै कपूत। लीक छाँडि तीनों चलैं , शायर , सिंह , सपूत। मनोज के चिंतन में विविधता है। रचनाएँ लीक से हटकर लिखी प्रतीत होती हैं -
तभी तो वे कहते हैं कि- *करना होगा सृजन, बंधुवर /हमें लीक से हटके /अंधकार जो करे तिरोहित / बिंब रचे कुछ टटके.....* 
मनोज के नवगीतों में गज़ब का आकर्षण है। उनकी ख़ूबी यह है कि वे सहज , सरल और स्वाभाविक हैं और जीवन के यथार्थ को सादगी के साथ व्यक्त करते हैं यथा- *चाँद सरीखा मैं अपने को / घटते देख रहा हूँ / धीरे धीरे सौ हिस्सों में /बँटते देख रहा हूँ ....* 
गीत में जब हम सच्चाई के साथ सौन्दर्य की रचना करते हैं। तभी साधनावस्था वाले प्रणय का रूप उभरता है और वह बरसों स्मृति पटल पर अंकित रहता है । कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं - *हो गई है आज हमसे / एक मीठी भूल / धर दिए हमने अधर पर/चुंबनों के फूल...* 
जीवन के अनुभव ही किसी बड़ी रचना का आधार होते हैं। अनुभव में ही अनुभूति और संवेदना को बदलने की सामर्थ्यता होती है। मनोज का यह कहना उचित है कि - *जब मन हुआ खरे सोने - सा / तब जाकर हम / किसी गीत का मुखड़ा लिख पाए ....* 
मनोज के अधिकांश नवगीतों  में अनुभव और अनुभूति की नयी चमक दिखाई देती है । ये पंक्तियां देखें - *अचरज नहीं तनिक भी इसमें / हम काँटों में खिले फूल से / हुए न विचलित देख बगूले / बिछे रहे कब उड़े धूल से ....* 
सादगी में सांकेतिकता कवि के काव्य रचना का वैशिष्ट्य है। उसका हृदय जितना संवेदनशील है ,उतना ही  शिल्प सचेत है यथा - *मैं पूछूँ तू खड़ा निरुत्तर / बोल ,कबीरा !बोल / खाल मढ़ी है बाहर -बाहर / है अंदर तक पोल ...* 
आज जिस तरह का माहौल दिखाई दे रहा है उसे संतोषप्रद भले कह दें लेकिन बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। बहुत से रचनाकारों ने आने वाले कल के प्रति चिंता व्यक्त की है। मनोज ने सहीं कहा है कि - *हाथ मलेगा , शीश धुनेगा /रह रहकर पछताएगा /ऐसा भी दिन आएगा ...* 
तनाव एवं दर्दयुक्त जीवन की सच्चाई का बेहतरीन ख़ाका संग्रह के कुछ नवगीतों में दिखाई देता है। बानगी के तौर पर - *चार दिन की ज़िंदगी /लिख दी तुम्हारे नाम / पी गए हमको समझ /दो इंच की बीड़ी/ बढ़ गए कुछ लोग /कंधों को बना सीढ़ी / नामवर होना हमें था / पर रहे गुमनाम ...* 
इसमें कोई शक नहीं कि आज शब्दकोशीय एवं तुक्कड़ कवियों की संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है। प्रकाशन, प्रसारण ,सम्मान  हिन्दी के उत्थान और नयी विधा के नाम पर नये -पुराने लोगों की अच्छी ख़ासी भीड़ जुटने लगी है। सुना है कुछ लोगों के द्वारा कुलपतियों एवं हिन्दी विभागाध्यक्षों को ऐसे कवियों की कविताओं पर शोध करवाने के लिए प्रेरित करने का अभियान भी योजनाबद्ध ढंग से शुरू कर दिया गया है। मनोज का बोध विचार बोध एवं कला बोध समयानुकूल है । उन्होंने सहीं इंगित किया है कि - *दो कौड़ी की कविता लिखकर / तुक्कड़ पंत हुआ/ लूट सती की लज्जा चुरकट / यूँ  जयवंत हुआ....* 
प्रायः कविता का आँकलन  रस ,छंद और अलंकार के द्वारा किया जाता है लेकिन अनुभूति और अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति भी किसी भी रचना को श्रेष्ठता का दर्जा प्रदान करती है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। मनोज की पंक्तियों से यह बात दिखाई देती है  - *मैं नदी थी / रह गई अब एक मुट्ठी रेत / कूदते हैं वक्ष पर मेरे / धमाधम प्रेत* 
जीवन के यथार्थ को मनोज ने जिस खूबसूरत अंदाज़ में व्यक्त करते हैं वह देखते ही बनता है । कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं -  *दो कौड़ी का हमें न आँको / राजा जी / खैनी जैसा हमें न फाँकों /राजा जी* 
कवि प्रेम रस में भीगना चाहता है । डूबकर तैरना चाहता है । क्योंकि प्रेम आत्मा का विस्तार है।ढाई आखर ही संसार का सार है। गीत की निम्नलिखित पंक्तियाँ इसका साक्ष्य है - *खूबसूरत दिन ,पहर ,हर पल हुआ / तुम मिले तो सच कहें /मंगल हुआ / गंध विरहित काठ मन /संदल हुआ* 
मनोज  का चिंतन बहुआयामी है। कहने के लिए यह उनका दूसरा संग्रह है लेकिन यह उनकी लंबी साहित्यिक यात्रा का सार है जिसे उन्होंने बहुत परिमार्जित करने के पश्चात पुस्तक का रूप दिया है। मैं नवगीत संग्रह ' धूप भरकर मुट्ठियों में ' को उनकी काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव मानता हूँ।  ईश्वर उनकी प्रतिभा को और भी प्रखरता , कुशाग्रता एवं शक्ति प्रदान करें।
*डॉ.माणिक विश्वकर्मा 'नवरंग'* 
मकान नं 139 , यूनीहोम्स कॉलोनी, 
पानी टंकी के पास , भाटागाँव , 
पोस्ट - सुन्दर नगर , 
जिला- रायपुर (छ.ग.) 492013
मो.9424141875
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