सोमवार, 26 दिसंबर 2022

महेश अनघ पर विशेष प्रस्तुति साभार संवेदनात्मक आलोक

संचालन समिति
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कवि की एक तस्वीर

 संवेदनात्मक आलोक समिति की प्रस्तुति-
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              विशेषांक पर एक दृष्टि-
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                 【अंक- 108】
विरासत से-
"लोक को मौलिक प्रस्तुत करते हैं महेश अनघ"
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                                - मनोज जैन 'मधुर'
भारत की आजादी के ठीक एक माह बाद, मध्य प्रदेश के गुना अंतर्गत राजा की ऊमरी गाँव में जन्में महेश अनघ ने अपने जीवनकाल में साहित्य की अनेक विधाओं में साधिकार लिखा। अपने समय की चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में अच्छा खासा स्पेस कव्हर करने वाले अनघ को पहचान उनके नवगीतों से मिली। आप अपनी ही ईजाद की हुई शैली के अनूठे कवि हैं। आपके नवगीतों की कहन शैली अलग है जिसकी तुलना किसी अन्य नवगीत कवि से नहीं कि जा सकती है। महेश अनघ के नवगीतों में लोक जीवन यथार्थ रूप में परत-दर-परत खुलता चलता है। अनघ के काव्य की भाषा में विचलनपरक प्रयोग, प्रतीकों की मौलिकता और प्रयोगों की नवीनता हर कहीं रेखांकित होती है।
 
         देवेन्द्र शर्मा इन्द्र स्वयं महेश अनघ के नवगीतों के मुरीद थे। अनघ की नवगीत कृति 'झनन झकास' पढ़कर उनके रचनाकर्म पर जो अभिमत इन्द्र ने दिया था वह गौर करने योग्य है। यथा-"भाषा और संस्कृति की जैसी मौलिक और प्रामाणिक सुगंध अनघ के नवगीतों में है, वह हम सबके लिए विस्मयकारी ही नहीं, ईरषेय भी है। भाषा की ऐसी बे-सलीका सादगी और वक्रतापूर्ण अभिव्यंजना मुझे उनके अतिरिक्त महाकवि सूर में ही मिल सकी। ऐसे गीत तभी लिखे जा सकते हैं, जब उसका भाव वहन करने के लिए गीतकार के पास पानीदार तीर चढ़ी भाषा के शब्द और मुहावरे हों। तभी गीत, कविता की कविता बन पाता है। जीवन के लिए अपेक्षित ज्ञान को समाप्त करके एक गहरी और संश्लिष्ट अभिव्यक्ति देने पर ही ऐसे गीत सिरजे जाते हैं।" निःसन्देह जब देवेन्द्र शर्मा इन्द्र अनघ की तुलना महाकवि सूर से करते हैं तो यह मानने में संकोच कैसा कि अनघ के नवगीत जमीन से जुडे रहकर बड़े फलक पर जाकर बात करते हैं।

     महेश अनघ के नवगीत हिन्दी नवगीत-कविता के माथे पर मंगल तिलक हैं। आपके नवगीतों में सांस्कृतिक परिवेश है, जनधर्मिता है, पृथ्वी और पर्यावरणीय को सुमंगलकारी बनाने की दृष्टि है, युगबोध की चिंताएंँ हैं, सामाजिक सरोकार हैं। बाबजूद इसके महेश अनघ ने अपने आपको किसी वाद से नहीं जोड़ा जो विषय उनके कवि के संज्ञान में आया उसे पूरी तरह जिया और फिर लिखा है। यही कारण है कि समवेत स्वरों में चाहे गीतकार हों या समालोचक हों उनके कृतित्व को मुक्त कंठ से सराहते हैं। अपनी टिप्पणी में वीरेन्द्र आस्तिक लिखते हैं- "महेश अनघ के शब्दों में झनकार भी है और झनकार की आभा भी। झनक, टनक और बनक की विविधा से उनके नवगीत उद्भूत हैं जिनकी बोली-भाषा शहदीय है।"

        पिछले कुछ वर्षों से इधर सोशल मीडिया पर नवगीत कविता के सन्दर्भ में अलग-अलग विमर्श देखने-सुनने का भी सुअवसर मिला है, जिनमें एक दो विमर्श तो नवगीत पर ही केन्द्रित थे। पर, मैं आश्चर्य चकित था कि उन सन्दर्भो में महेश अनघ जैसे प्रथम पांक्तेय नवगीत कवि का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। ऐसी स्थिति में 'संवेदनात्मक आलोक' विश्व नवगीत साहित्य विचार मंच अपनी महत्वाकांक्षी योजना 'नवगीत जन अभियान' के अंतर्गत नवगीत की उपेक्षित कलमों को जन-जन तक पहुंँचाने का बीड़ा उठाया है। जो काबिले तारीफ है।

       विश्व नवगीत समूह 'संवेदनात्मक आलोक' का बहुप्रतीक्षित अंक आपके समक्ष प्रस्तुत होते देख प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। महेश अनघ के पांच नवगीत संग्रहों में से चयनित दस नवगीत जो आपके समक्ष पठन-पाठन के लिए स्क्रीन पर उपलब्ध हैं उसके पीछे पटल प्रमुख रामकिशोर दाहिया और उनकी टीम की नवगीत के प्रति आस्था समर्पण भाव का नतीजा है।  महेश अनघ जैसे विलक्षण नवगीत कवि पर सार संक्षेप लिखने का सुअवसर प्रदान करने के लिए 'संवेदनात्मक आलोक' का हृदय से आभार एवं धन्यवाद करता हूंँ। यहां महेश अनघ की कुछ पंक्तियां उद्धृत हैं- "घर खंगालकर/अगर मिला होता तो/सुख लिखते/जिनके पास नहीं हो/उनको अपने दुख लिखते/खास खबर गीली थी/उसको जस की तस धर दी।" ज्यादा कुछ न कहते हुए आइए महेश अनघ के नवगीतों से अंतरंग जुड़ने का दायित्व संभालते हैं। 
                                •••
निवास : 106, विट्ठल नगर, गुफामन्दिर रोड,
     भोपाल- 462 030 [मध्य प्रदेश]
     सम्पर्क मोबाइल : 93013 37806
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|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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मूल नाम- महेश प्रसाद श्रीवास्तव।
साहित्य लेखन में- महेश 'अनघ'।
जन्मतिथि- 14 सितम्बर, 1947 ई. मध्य प्रदेश
के एक गाँव गुना अंतर्गत 'राजा की ऊमरी' में।

शिक्षा- एम.ए.संस्कृत [स्वर्ण पदक] साहित्य रत्न।
सेवाएं- भारतीय लेखा परीक्षा से सेवानिवृत्त।
माता एवं पिता- नारायणी देवी श्रीवास्तव, प्रेमनारायण श्रीवास्तव।

पत्नी- डॉ.प्रमिला श्रीवास्तव। पुत्री- शैफाली एवं शैली श्रीवास्तव। पुत्र- डॉ.शिरीष श्रीवास्तव।

प्रकाशित कृतियां- 'घर का पता' (ग़ज़ल संग्रह) 'महुअर की प्यास' (उपन्यास) 'झनन झकास' (गीत-नवगीत संग्रह) 'जोग लिखी' एवं 'शेष कुशल' (कहानी संग्रह) 'फिर मांडी रांगोली' एवं 'गीतों के गुरिया' (गीत-नवगीत संग्रह) 'प्रसाद काव्य' एवं बिन्दु विलास' (खंड काव्य) 'धूप के चँदोवे' (ललित निबंध संग्रह) 'अब ये माधुरी' (खंड काव्य) सन् 2022 में 'रस पर काई -सी चतुराई' (गीत-नवगीत संग्रह) दो गजल संग्रह जिसमें 'घर का पता' का पुनर्प्रकाशन तथा 'अब यही पता है' गजल संग्रह प्रकाशित हैं। यंत्रस्थ कृतियाँ- ग़ज़ल, गीत, कहानी एवं व्यंग्य संग्रह।

अन्य प्रकाशन- 1972 से देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में यथा- धर्मयुग, सारिका, वागर्थ, वीणा, समांतर आदि में सतत लेखन। 

सम्पर्क- डा.प्रमिला श्रीवास्तव, व्यंजना, डी-12, बी गार्डन होम्स अल्कापुरी, ग्वालियर- 474 001 [म.प्र.] चलभाष- 98268 76778
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【1】
|| दलदली ज्वार-भाटे ||
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सब थे आदमजाद
नून भाजी ईंधन आटे
किसने इस
बस्ती में आकर 
सींग पूँछ बाँटे।

नीम तले चौपालों पर
खुर के निशान क्यों हैं?
बुझे हुए
चूल्हे अलाव
जलते  मकान क्यों हैं?
रोती हुई अजान आरती
हँसते सन्नाटे।

बाशिन्दे उकडू बैठे 
डर पसरा है घर में
झाड़ लिया तो भी
खतरा चुभता है
बिस्तर में
तम्बू में काटी रातें
मरघट में दिन काटे।

औजारों में जंग लगी
हथियार हुए पैने
सबने कहा
अशुभ को न्यौता
दिया नहीं मैंने
फिर क्यों हैं?
अगिया बैतालों के चेले-चांटे।

हे रजधानी हम पर
अब के बरस
तरस खाना
झंडे बैनर लेकर
इस बस्ती में
मत आना
और नहीं सह पाएंँगे
दलदली ज्वार-भाटे।
           •••

            - महेश अनघ
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【2】
|| भोगा हुआ लिखें ||
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जैसे रिसते हुए
घाव पर
कलफ लगी वरदी 
ऐसे कुशल क्षेम
लिखकर 
चिट्ठी जारी कर दी।

सम्बोधन में प्रिय
लिखते ही 
कलम काँपती है
यह बेजान चीज
भीतर का
मरम भाँपती है
पूज्य लिखा
श्रद्धेय लिखा
इस तरह माँग भर दी।

घर खँगाल कर
अगर मिला होता तो
सुख लिखते
जिनके पास नहीं हों
उनको अपने
दुख लिखते
खास खबर गीली थी
उसको जस की तस धर दी।

इस छल को जमीर
समझेगा
गाली दे लेगा
भोगा हुआ लिखें
तो कागज
कैसे झेलेगा !
लिखना था अंगार
लिखा केसर चंदन हरदी।

शुभ-शुभ लिखा
तिलस्मी किस्से-सा
इसको पढ़ियो 
मरे हुए अक्षर
कहते हैं
लम्बी उमर जियो
ऊपर पता लिखा
लापता जिन्दगी भीतर दी।
               •••

            - महेश अनघ
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【3】
|| अस्थि - पंजर ||
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कौन है? संवेदना!
कह दो अभी घर में नहीं हूँ।

कारखाने में बदन है
और मन बाजार में
साथ चलती ही नहीं
अनुभूतियाँ व्यापार में
क्यों जगाती चेतना
मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ।

यह जिसे व्यक्तित्व कहते हो
महज सामान है
फर्म है परिवार
सारी जिन्दगी दूकान है
स्वयं को है बेचना
इस वक्त अवसर में नहीं हूँ।

फिर कभी आना
कि जब यह हाट उठ जाए मेरी
आदमी हो जाऊँगा
जब साख लुट जाए मेरी
प्यार से फिर देखना
मैं अस्थि - पंजर में नहीं हूँ।
             •••

               - महेश अनघ
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【4】
|| यही करेंगे पोते ||
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राजी राजी या नाराजी 
 राज करेंगे राजा जी।

जब से होश सम्हाला हमने
इतना ही संदेश मिला है
मंदिर मस्जिद बैसाखी हैं 
सबका मालिक लाल किला है
      चाहे छाती जोड़ें चाहे
     लाठी भांँजें बामन-काजी
     राज करेंगे राजा जी।

चाहे जिस पर मुहर लगा दें
इतनी है हमको आजादी 
उनको वोट मिलेंगे दो सौ
पौने दो सौ की आबादी  
    टका सेर मिलते मतदाता
    महँगी गाजर मूली भाजी 
   राज करेंगे राजा जी।

वे बोलेंगे सूरज निकला
हम बोलेंगे हाँजी-हाँजी 
उनकी छड़ी चूमते रहना
हम चिड़ियाघर के चिम्पांजी
     पानीदार अगर रहना हो
     दिल्ली से निकलें गंगा जी
     राज करेंगे राजा जी ।

राजा जी का राज अचल हो
व्रत रखते हम दस दिन प्यासे
दस दिन अनशन दस दिन फाँके
बाकी ग्यारह दिन उपासे 
      यही करेंगे पोते अपने
      करते रहे यही दादा जी
      राज करेंगे राजा जी ।
                 ••• 

                 - महेश अनघ
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【5】
|| अधूरापन ||
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सब खुशियाँ हो गईं मुखातिब
अब गम को गाने का मन है
जाने किन भावों को भरने
मेरे   पास   अधूरापन   है।

कसमें पहरे पर बैठाकर
सब अपने हो गए पराए
वे बंधन अब कहाँ मिलेंगे
जिनसे जीवन खुल-खुल जाए
सुलझी हुई नजर से देखा
हर चहरे पर ही उलझन है।

जाने कब मेरा पूरा घर
काजर का गोदाम हुआ है
प्यारा पाहुँन कहाँ बिठायें
हर कमरे में एक कुआँ है
मण्डप उनके पास नहीं है
जिनके पास खुला आँगन है।

बाहर आग बरसती रहती
भीतर-भीतर पानी-पानी
खिड़की पर बैठा मन पाँखी
बातें करता है रूमानी
अधरों की मानें तो फागुन
आँखों की मानें सावन है।

बोलें तो स्वर से स्वर लड़ते
अक्षर से अक्षर टकराते
इसीलिए हम दर्पण से भी
अपनी पीर नहीं कह पाते
सच को गंगा घाट दिया है
सपनों का लालन-पालन है।
               •••

                - महेश अनघ
--------------------------------------------------------【6】
|| डिगरी बांँध कलाई ||
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मुख पर लगे डिठौना छूटे
रेख उभरकर आई।
चल दुनिया से जूझ अकेला
डिगरी बाँध कलाई।

माँ ने पुण्य कलेऊ बाँधा
राई  नौन उतारे।
बाबा ने छूकर दिखलाए
जर्जर घर - ओसारे।
बहनों ने मन्नत में माँगी
सोनपरी भौजाई।

पहले पंच पटेल मिलेंगे
दस मुख बीस भुजाएँ।
पेड़ों पर लटकी होंगी
अगिया बेताल कथाएँ।
बाढ़ी नदिया पार करेगा
सात बहिन का भाई।

सँकरे द्वार बदन छीलेंगे
सिर पर  धूप  तपेगी।
संस्कार में बँधी आत्मा
जय जनतंत्र जपेगी।
मरुथल में पानी खोजेगा
लेकर दियासलाई।

करिया पर्वत को चीरेगा
नागलोक जीतेगा।
रोजगार-मणि की तलाश में
अमरत  घट  रीतेगा।
शेष रहा तो घर लौटेगा
  बूढ़ा   हातिमताई।
            •••

          - महेश अनघ
--------------------------------------------------【7】
|| अपनी भूल ||
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बहुत भरोसा रहता है
प्रतिकूल पर
अमराई से ऊबी चिड़िया
रहने लगी बबूल पर।

ज्यादा नरम लचीली रस्सी
बाँध नहीं पाती
चौपाए को हरे लॉन पर
नींद नहीं आती
माँ से बिछुड़े बच्चे का
मन आया मिट्टी धूल पर।

जो किस्से पनपे खँडहर में 
जंगल झाड़ी में
सात समन्दर पार गए हैं
भर-भर गाड़ी में
ढाई आखर कब निर्भर है
कॉलिज या स्कूल पर।

वैसे भी दाएंँ की मालिश
बायाँ करता है
हर कोई अपनी बिरादरी
से ही डरता है
भौंरे कलियों पर रीझे हैं
तितली रीझी फूल पर।

जिजीविषा का झंझट से
कुछ  गहरा  नाता  है
सुख जीवन निचोड़ता है
दुख उमर बढ़ाता है
अब आलोचक पछतायेगा
शायद अपनी भूल पर।
           •••

               - महेश अनघ
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【8】
|| अंधकार का तन ||
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आओ कचरे के पहाड़ में
अपना - अपना मन ढूंँढ़े।

ऊपर सम्बन्धों  की उतरन
नीचे दलदल है
यही हमारी चरनोई है
यही अस्तबल है
भीड़भाड़ में धकापेल में
दुबकी हुई छुअन ढूंँढ़े।

आओ कच्ची खनक तलाशें
धुर सन्नाटे में
वैभव में सुन्दरता 
नमक तलाशें आटे में
मुम्बई के दलाल पथ में से
मँगनी का कंगन ढूंँढ़े।

खोजें चलो गुलबिया पाती
अंधी  आँधी  में
फुलबतिया का किस्सा खोजें
सोना - चाँदी  में
उत्सव ढूंँढ़े अस्पताल में
मरघट में जीवन ढूंँढ़े।

इन्हीं वर्जनाओं में होगी
दमित कामना भी
झर-झर आँसू में ही होगी
हर - हर गंगा भी
अंधकार का तन टटोलकर
रूठी हुई किरन ढूंँढ़े।
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               - महेश अनघ
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【9】
|| आँखों का जल ||
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खरहा बोला-भैया हिरना 
   जंगल कहाँ गया।

जब से फील बजीरे आजम
     राजा नाहर हैं
 पेड़ों के घर में घुन है
   दावानल  बाहर  है
पुरखे जो कर गए वसीयत
   बादल  कहाँ गया।

माना मोटू हैं, पर!
क्या ये इतना खाते हैं
   चंदे में पूरी-पूरी
  ऋतुएँ ले जाते हैं
धरती माता खोज रही है
  आँचल कहाँ गया।

अर्जी क्या करना
हाकिम बैठे पगुरायेंगे
   हमको तुमको
छुटभैये दरबारी खायेंगे
  उनका दौरा हुआ
हमारा दल बल कहाँ गया।

आज गले मिल लो दादा
कल हुकुम बजाना है
  आका की थाली में
अपना शीश चढ़ाना है
फिर मत कहना, अपनी
आँखों का जल कहाँ गया।
                 •••

            - महेश अनघ
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【10】
|| लड़की ||
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एक समर झेला लड़की ने
खिलखिल करने से
मुस्काने तक
तेरह से अठ्ठारह आने तक।

भली बाप की छाती
उज्ज्वल भैया का माथा
खिड़की से
बाहर अनजाना
धुँधला चेहरा था
धरती को कुचला लड़की ने
छत जाकर बाल सुखाने तक।

चंदा-सूरज फूल-पात
काढ़े  रूमालों  में
शहजादे को नाच नचाया
रोज ख्यालों में 
खुद को खूब छला लड़की ने
देह सजाने और छुपाने तक।

घर में दिया जलाकर
गुमसुम बैठी सूने में
डरती है नम आँखों से
उजियारा छूने में
सीखी ललित कला लड़की ने
गीले ईंधन को सुलगाने तक।

बिजली के तारों पर बैठी
चिड़िया भली लगी
वह, छिपकली टिटहरी
तीनों आधी रात जगी
सबका किया भला लड़की ने
सपनों की डोली उठ जाने तक।
                    •••

              - महेश अनघ
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