वागर्थ में आज
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महेन्द्र नेह जी के दो नवगीत
महेन्द्र नेह के जनगीत शाब्दिक विलास नहीं रचते। वे सर्वहारा के कवि हैं। मेहनतकशों के सीधे सम्पर्क में रहकर उपजे उनके गीतों में इस वर्ग की कष्टप्रद स्थिति के साक्षात दृश्य उपस्थिति हैं। असहष्णुता के इस अमानवीय दौर में लोकधर्मी और जनवादी कवि महेन्द्र नेह के नवगीत जनजागरण की मशाल हैं,जो व्यवस्था की विसंगतियों और असंगत लोकद्रोही नीतियों का अपने जनगीतों में जनकर विरोध करते हैं।
प्रस्तुति
वागर्थ
महेंद्र नेह के दो नवगीत
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हम सर्जक हैं
सत्य-समय के
नई जिंदगी को स्वर देंगे
बहुत कुचैली मैली चादर
घर की मर्यादा बतलाकर
इसे नहीं धोने देते हैं
मुर्दा-सँस्कृति के सौदागर
वे इसको जर्जर करते हैं
हम इसमें
तारे जड़ देंगे
पाखंडों के नगर बसा कर
प्रवचन झाड़ रहे हैं तस्कर
जिधर दृष्टि डालो पतझर है
यह कैसा आया संवत्सर
वे युग को बर्बर करते हैं
हम इसमें
अमृत भर देंगे
एटम-डॉलर की ताक़त पर
रौब गाँठते दुनिया-भर पर
यह तो उनका मरण पर्व है
समझ रहे जिसको जन्मांतर
वे इसको कर्कश करते हैं
हम इसको
नव लय-स्वर देंगे
दो
उमस भरे दिन
एक नही, दो नही, अनगिन
हवा नहीं, पानी नहीं
बिजली भी नहीं
कौन ले गया इन्हें चुरा के
हम सब की आँख से दुरा के
तमस भरे दिन
एक नही, दो नही, अनगिन
आग नहीं, धुआं नहीं,
जंगल भी नहीं
कुछ भी तो रखा नहीं बचा के
धरती को गिरवी रखवा के
कफ़स भरे दिन
एक नही, दो नही, अनगिन
चैन नहीं, नींद नहीं
फुर्सत भी नहीं
भोर का सपन हमें दिखा के
कौन गया राहें उलझा के
बहस भरे दिन
एक नहीं, दो नहीं, अनगिन
महेन्द्र नेह
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