कवि सत्येंद्र रघुवंशी जी के पाँच गीत
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गीत नवगीत पर केंद्रित स्तरीय और स्थापित समूह वागर्थ के संचालक श्री मनोज जैन जी के माध्यम से मुझे आदरणीय सत्येंद्र कुमार रघुवंशी जी के पांच गीतों को पढ़ने और फिर उन पर कुछ लिखने का आदेश मिला, जिसे मैं अपना सौभाग्य ही मानती हूँ।
इसके दो कारण एक तो इतना बड़ा और स्थापित समूह और दूसरा यह कि वरेण्य कवि सत्येंद्र तिवारी जी के गीतों पर कुछ कहना यानी सूरज को दीप दिखाने जैसा ही हुआ पर जो भी हो एक छोटी सी टीप इन गीतों पर आपके अवलोकनार्थ भावों में डूबकर कर सकी हूँ । प्रस्तुत गीतों के सन्दर्भ में कहा जाय तो पांचों गीत एक से बढ़कर एक हैं, कुछ छूटने, टूटने और बिखरने, दुनिया को कुछ ना दे पाने के द्वंद्व को लिए हुए हैं, जो हृदय पटल को गहराई से छूते हैं। कवि का हृदय हर गीत में अपनी वेदना के साथ, प्रकृति से जुड़ा हुआ है, रचना प्रक्रिया में कवि ने प्राकृतिक उपमानों को बड़े सलीके से अपने मनोहारी गीतों में पिरोया है। जैसे तितली, मुंडेर पर बैठी हुई चिड़िया, बया, सागौन का पेड़, गहरी घाटी, बादल बसंत आदि से कविता को और कवि के सघन भावों समझने में पाठकमन को किसी भी क़िस्म का द्राविण व्यायाम नहीं करना पड़ता। यही बात कवि सत्येंद्र रघुवंशी जी के कवि कर्म का साफल्य भी है।
प्रस्तुत पाँच गीतों में पहले गीत "घाटी है हम"--" पथों के पुकारने पर भी सफर को छोड़ कर सागौन के नीचे बैठ जाने का अफ़सोस, कई कलश होते हुए भी प्यासा रह जाने का का दुख। किर्चों को हटाए या फिर बिखरे पत्थर याद करें, चिड़िया के पास भी हंसी का होना, या फिर पानी पर धूप का कुछ लिखना। फिर कवि का हृदय वह घाटी हो जाना जहां कई शिखर टूट कर गिरे है , इन वाक्यांशों में जीवन में बहुत कुछ छूट जाने का दर्द है। जो अपना सा लगता है।
इसी क्रम में दूसरे गीत पर नज़र डालें तो " अवाक पतझर" में खुद को नीड़ सा बुनने के लिए, तिनको से माफी मांगना के गहन भाव की सराहना करते बनती है। कहते हैं की जीवन छोटी-छोटी घटनाओं से आकार लेता है तभी तो कवि यह बड़ी बात एक छोटे से बंद में सहजता से अभिव्यक्त कर देता है। आंखों में आंसुओं के टंग जाने की विवशता, और जिनके पास गेंद थी उन्हीं का मैदान, हो जाना, इत्यादि भाव जीवन के क्षेत्र में पीछे रह जाने की कसक को गहराई से उभारते हैं। "यह लम्हे गाढ़े हुए" में लोगों की आंखों में अजनबी पन का दिखना, और अपरिचय की भावना, मुंडेर पर चिड़िया के दिखने जैसा अपनापन, अंत में जीवन के प्रश्नों को लिए हुए मन में रात भर कंदील नहीं बुझ पाने की अथाह वेदना। आज के जीवन की यथार्थता को प्रकट करता गीत है।"आते जाते रहते हैं दुख"-चौथे गीत में बादलों एवं वसंत का पक्षपातपूर्ण व्यवहार खिड़कियों पर जमे हुए तुषार के कारण तितलियों का ना दिखना, बदनाम बारिशों में छतरी का टूट जाना इत्यादि अनेकानेक ऐसे उदाहरण हैं जो जीवन में घटने वाली घटनाओं को सलीके से अभिव्यक्त करती हैं। इतना सब लिखने और पढ़ने के बाद सार संक्षेप में यदि कहा जाय तो कवि को समग्र पढ़ने की इच्छा बलबती होने लगती है और जब ऐसा भाव जन्म लेने लगे तो, रचनाकर्म को सफल ही मानना चाहिए।
अच्छे गीतों को पढ़ने का अवसर देने के लिए वागर्थ समूह और मनोज जैन जी का बहुत आभार
वागर्थ के लिए प्रस्तुति टीप
सीमा उपाध्याय
दतिया मध्यप्रदेश
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कवि सत्येंद्र रघुवंशी जी
एक
घाटी हैं हम
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हम हैं व्यथित कि जैसे हमसे
छूट गये हों सफ़र कई।
फूट गये हों कलश अनगिनत
जैसे अपनी प्यासों से।
या कि हुआ खिलवाड़ किसी के
मृग जैसे अहसासों से।
रहना दूर आँसुओं से तुम,
इस जल में हैं भँवर कई।
आकर बिंधा वक्ष में,ऐसा
कौन-कौन शर याद करें?
किर्च हटायें या हम घर में
बिखरे पत्थर याद करें?
भरी दुपहरी में भी नभ में
आते बादल नज़र कई।
फूलों तक के पास हँसी है,
चिड़िया तक ख़ुश दिखती है।
पानी पर ही सही, धूप की
परी रोज़ कुछ लिखती है।
सुनो बुदबुदाहट फूलों की,
उन्हें मिले हैं अधर कई।
कानों में छूटा साबुन है
दुख, न फ़िक्र उसकी करना।
रहा पेड़ की आत्मकथा में
अक्सर किरनों का झरना।
घाटी हैं हम, गिरे जहाँ पर
टूट-टूटकर शिखर कई।
दो
है अवाक् पतझर
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हमने ख़ुद को बुना नीड़-सा,
हमें माफ़ करना तिनको!
इस मन को आकार मिला है
छोटी-छोटी चीज़ों से।
तुम्हें रचा है ओ मुस्कानो!
हमने अपनी खीजों से।
जब हम थे उद्विग्न बया-से,
कैसे भूलें उस दिन को!
कैसे कहें कि किन लोगों ने
इस जीवन में राग भरे!
है अवाक् पतझर, क्यों अब तक
कभी न मन के पात झरे।
हरा-भरा रखती हैं सब कुछ,
ये ऋतुएँ सौंपू किनको?
बहते रहे शिलाओं पर हम
अपने रचे प्रपात लिए।
रोके हैं इस तरह अश्रु, ज्यों
फूल ओस की बूँद पिए।
हुआ न रिक्त कोश चोटों का,
क्या आभार कहूँ इनको?
उम्मीदों की नदी अहर्निश
लहरिल-लहरिल लगती है।
आस ज़िन्दगी के चेहरे का
सुन्दर-सा तिल लगती है।
होने थे मैदान उन्हीं के,
थीं पसन्द गेंदें जिनको।
तीन
ये लमहे
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यारो! ये लमहे हैं शायद
ड्यौढ़ी-ड्यौढ़ी जाने के।
गाढ़ा हुआ अजनबीपन क्यों,
हुआ अपरिचय क्यों गहरा?
कभी पूछना ख़ुद से, मन में
यह विषाद कब से ठहरा!
हाँ,छोड़ो अब सभी बहाने
दुनिया से कतराने के।
ज्यों मुँडेर पर चिड़िया, वैसे
दिखे आँख में अपनापन।
किसी नदी से दूर न जायें
उसकी नावें, उसके घन।
आने दो क्षण आलिंगन से
दुनिया को चौंकाने के।
किरचों वाली सड़क न समझा
हमने कभी ज़माने को।
खोने को कुछ नहीं अगरचे
धरा पड़ी है पाने को।
अभी रात है, अभी न आये
पल क़ंदील बुझाने के।
चार
आते-जाते रहते हैं दुख
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जहाँ रेत थी, वहाँ न बरसे,
बादल भी कितने अजीब हैं।
पहले-पहल वसन्त दिखा कब
वहाँ, जहाँ था इंतज़ार-सा।
कैसे आतीं नज़र तितलियाँ,
हर खिड़की पर था तुषार-सा।
जब-तब बह जाती हैं सड़कें,
आँसू-सी ये बदनसीब हैं।
थी बदनाम जहाँ की बारिश,
टूटीं जाकर वहीं छतरियाँ।
अहसासों को राम बचाये,
मन में हैं बेचैन शबरियाँ।
पर इस जीवन की पगध्वनियाँ
साँसों के बेहद क़रीब हैं।
अपने स्वप्न, चाहतें अपनी
किसी बाँसवन की बयार हैं।
कहते हो तुम ख़ुशियाँ जिनको,
वे इस मन का जल-विहार हैं।
आते-जाते रहते हैं दुख,
मत कहना, ये पल सलीब हैं।
पाँच
दुनिया को क्या देते हम
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अधभरी बाल्टियों-से ख़ुद थे,
इस दुनिया को क्या देते हम?
जब हमें पुकार रहे थे पथ,
हम बैठ गये सागौन तले।
पत्तों से छनी धूप से भी
हर पल झुलसे,हर घड़ी जले।
था भँवर सरीखा हर लमहा,
किस तरह किश्तियाँ खेते हम?
हाँ, मन की शाख़ों से होकर
झोंकों-सा गुज़रा है विषाद।
प्रेमातुर पक्षी क्या समझें,
क्यों छिपकर बैठा है निषाद!
मन-हिरना! पूछ न व्यर्थ कि क्यों
तीरों के रहे चहेते हम।
फुनगी से खेल रही चिड़िया,
यह दृश्य उम्र का रूपक हो।
अपनी मुस्कानों की चर्चा
दूरस्थ देवताओं तक हो।
देखो! छतरी-से जीवन पर
कितनी बौछारें लेते हम।
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी