एक
मोकलवाड़ा
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तपती धरती की मंशा को,
मन ही मन में ताड़ा।
भरी दुपहरी में जा पहुँचे,
हम दो मोकलवाड़ा।
श्रम सीकर से सींच धरा को,
छोड़ी अमिट निशानी।
तप दिखता है ऋषियों जैसा,
कुटिया है पहचानी।
कौन गया है यहाँ छोड़कर
यह अनमोल धरोहर।
दृश्य कहीं भी देखो लगता
चारों ओर मनोहर।
चीकू तोड़े बड़े मजे से,
जामुन जी भर खाए।
ठंडे जल के फब्बारे में,
पहरों पहर नहाए।
उठा बगूला अंधड़ वाला
धीरे से चिंघाड़ा।
भरी दुपहरी में जा पहुँचे,
हम दो मोकलवाड़ा।
लचकी शाख लदी नीबू से
आकर हम से बोली।
आज न खाली जाने दूँगी
भर ले जाओ झोली।
लाला जी ले चलो हमें भी
हम अमरूद गठीले।
केला कहता कुछ दिन में हम
हो जाएंगे पीले।
बैठ पंछियों ने डाली पर,
जाने क्या क्या गाया।
कलरव की मोहक ध्वनियों ने
मन को बहुत लुभाया।
तुलसी बोली घर चलती हूँ,
सूख बनूँगी काढ़ा।
भरी दुपहरी में जा पहुँचे,
हम दो मोकलवाड़ा।
बैठ नीम के तले प्रेम की,
बंसी खूब बजाई।
सूरदास के पद दोहराए,
मानस की चौपाई।
पके आँवले झुके चूमने,
हम दोनों का माथा।
लिख दी हमनें पढ़ ली तुमने,
निश्छल मन की गाथा।
देखा हमनें पेड़ कदम का
इठलाता बलखाता।
छूट गया शहतूत नज़र से
जुड़ न पाया नाता।
हर मौसम अच्छा खासा है
बरखा गरमी जाड़ा।
भरी दुपहरी में जा पहुँचे,
हम दो मोकलवाड़ा।
दो
पिता दिवस पर
सोच रहे हैं पिता,
अरे ये
कैसे नाते हैं।
अंतर्मन में बाह्य जगत की
पीड़ा सघन समेटे।
डीपी मेरी हँसने वाली
लगा रहे हैं बेटे।
रोते रहते भीतर
हम, बाहर
मुस्काते हैं।
तकती रहती आसमान में
जाने क्या दो आँखें।
मन का पाखी उड़ना चाहे
किंतु कटी हैं पाँखें।
जीवन के पल जाने
क्या-क्या हमें
दिखाते हैं।
दिन पहाड़-सा रात क़त्ल की
कटना है मजबूरी।
चुप्पी के इस बियाबान की
कौन नापता दूरी।
नकली मुस्कानें
होठों पर
हम चिपकाते हैं।
सन्नाटों की खुली जेल-सा
जीवन अपना कैदी।
साँसों की आवाजाही पर
साँसों की मुस्तैदी।
पिता दिवस
पर बकरे जैसा
हमें सजाते हैं।
तीन
हमनें तो तर्क रखे हैं
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हमनें तो गुगली फेंकी,
तुमने क्यों बैट घुमाया।
मन देख बहुत हर्षाया।
यदि सचमुच होते ज्ञाता,
ज्ञायक स्वभाव के ज्ञानी।
कर भावों का विश्लेषण,
क्यों करते यह नादानी?
जो गीत सदा दुख देता,
वह गीत तुम्हें क्यों भाया।
मन देख बहुत हर्षाया
ऊँची हो पर्वत माला,
हो कितनी कठिन चढ़ाई।
हमनें दृढ़ता के बूते,
जीती हर एक लड़ाई।
हम थे चैतन्य सदन में,
क्यों छेड़ा क्यों उकसाया।
मन देख बहुत हर्षाया।
उड़ता था तीर हवा में,
चुल छूटी तुमने पकड़ा।
अब कहते हो दुनिया से,
किस आफ़त ने आ जकड़ा।
हमनें तो तर्क रखे हैं,
तुमने केवल भरमाया।
मन देख बहुत हर्षाया।
चार
अखिलविश्व में
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अखिलविश्व में उच्च-
कोटि के
संत दिगम्बर हैं।
मूल गुणों पर है
आधारित
इनकी कठिन तपस्या।
रंच मात्र भी नहीं
किसी से
होती इन्हें समस्या।
उच्चादर्श महान
ज्ञान के
गहन पयम्बर हैं।
अखिलविश्व में उच्च-
कोटि के
संत दिगम्बर हैं।
भावों की सर्वोच्च
दशा में
विचरण करते रहते।
कठिन परीसह सह
लेते पर
नहीं किसी से कहते।
त्यागमूर्ति ,त्यागें
आडंबर,
त्यागे अम्बर हैं।
अखिलविश्व में उच्च-
कोटि के
संत दिगम्बर हैं।
अलख निरंजन रूप
निर्जरा
मय जीवन ही भाया।
संचित पुण्यों से ही,
तुमने
परम इष्ट पद पाया।
सम्मुख खड़े हुए
कर जोड़े
सब आडम्बर हैं।
अखिलविश्व में उच्च-
कोटि के
संत दिगम्बर हैं।
पाँच
चिन्ता की लकीरें
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रात का अन्तिम
पहर है,
लोग बेसुध सो रहे हैं।
सो रहे हैं कुछ
सड़क पर
और कुछ फुटपाथ पर हैं।
साफ चिंता की
लकीरें
तन बदन औ' माथ पर हैं।
काम करने को
नहीं है
और आपा खो रहे हैं।
आप कहते हैं कि इक
दिन पूर्ण
विकसित देश होगा।
है अभी खुशहाल
स्वर्णिम
कल यहाँ परिवेश होगा।
स्वप्न झूंठे आँख में है
और हम
खुश हो रहे हैं।
भीड़ में तब्दील
हैं हम
यह हमारी बेबसी है।
हँसी ग़ायब आम-
जन की
रात-दिन रस्साकसी है।
खास के हिस्से
ख़ुशी है
आम जन सब रो रहे हैं।
रात का अन्तिम
पहर है,
लोग बेसुध सो रहे हैं।
छह
सुख के दिन
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सुख के दिन छोटे-छोटे से,
दुख के बड़े-बड़े।
सबके अपने-अपने सुख हैं,
अपने-अपने दुखड़े।
फीकी हँसी, हँसा करते हैं,
सुन्दर-सुन्दर मुखड़े।
रंक बना देते राजा को,
दुर्दिन खड़े-खड़े।
सुख के दिन छोटे-छोटे से,
दुख के बड़े-बड़े।
सबकी नियति अलग होती है,
दिशा, दशा सब मन की।
कोई यहाँ कुबेर किसी को,
चिन्ता है बस धन की।
समझा केवल वही वक़्त की,
जिस पर मार पड़े।
सुख के दिन छोटे-छोटे से,
दुख के बड़े-बड़े।
हाँ, यह तय है चक्र समय का,
है परिवर्तनकारी।
सबने भोगा सुख-दुख अपना,
चाहे हो अवतारी।
अंत नही होता कष्टों का,
जी हाँ बिना लड़े।
सुख के दिन छोटे-छोटे से,
दुख के बड़े-बड़े।
सात
भाषा कल-कल बहता पानी
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अपने मन को
मोहा करती
कविता में सायास बयानी।
कोरा भरम तुम्हें क्यों साथी,
कालजयी तुम रच लेते हो।
आड़ व्यंजना की लेकर, हाँ;
सच कहने से बच लेते हो।
भावों का
झरना है कविता
भाषा कल-कल बहता पानी।
उलझे बोझिल बिम्ब हुए तो,
सिर को भारी कर जाते हैं।
चैन चुरा लेते पाठक का,
वे कविता से डर जाते हैं।
कविवर ऐसा रचो
निकलकर
आये जिसका ढंग का मानी।
दिल की बात दिलों तक पहुँचे,
यह कविता की ज़िम्मेदारी।
नहीं लिखो तुम ऐसा वैसा,
लगे फेर दी गई बुहारी।
गूढ़ अर्थ के
झाँसे झूठे
व्यर्थ शब्द की खींचातानी।
मनोज जैन
29/6/24
मनोज जैन