आलेख
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।। मनोज जैन 'मधुर' के नवगीतों के बहाने।।
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जिस समय यह कहा गया--'काव्येषु नाटकं रम्यं' , ठीक उसी समय यह बात भी स्पष्ट हो गई कि रमणीयता काव्य का स्थायी गुण भले न हो, पर काव्य को परखने का एक निकष अवश्य है। बेशक दृश्य और श्रव्य--दोनों माध्यमों के जुड़ जाने से नाटक अपेक्षाकृत रूप से रमणीयतर काव्य-विधा है, पर श्रुति-सुकर और स्मृति-सुकर होने के कारण कविता, विशेषकर छांदसिक कविता भी रमणीय और आह्लादक ही होती है, भले ही आह्लाद प्रदान करना उसकी प्राथमिकताओं में शामिल न हो। तो,देखिए कि यह रमणीयता काव्य में कहाँ-कहाँ से आती है? वह नाद-सौंदर्य से आती है, अद्भुत शाब्दिक योजनाओं से आती है, उत्तमोत्तम शब्दविन्यास से आती है, नव और ततोsधिक नवतर भाव-संयोजन से भी आती है। वह परिदृश्य पर आपके दृष्टिनिक्षेप के नवलतम तरीकों से आती है, और यह रमणीयता तुकांतों आदि की आनुप्रासिकता से भी संप्राप्त होती है। लेकिन इन रमणीयता उत्पन्न करने वाले नाना विधानों में एक नवगीतकार का जो प्रमुख साध्य है, वह नाद-सौंदर्य आदि न होकर वस्तुओं और दृश्यों पर दृष्टिनिक्षेप का नवीन कोण ही है, और यही एक नवगीतकार को नवगीतकार बनाता है। फिर भी, दो चीजें तो यहाँ स्पष्ट होती ही हैं। एक तो शाब्दिक प्रस्तुति की रमणीयता, और दूसरी उस विन्यास की भावोत्कृष्टता। तो, कविता में इनकी प्रतिष्ठा के लिए, इन्हें लोक-स्वीकार्य बनाने के लिए नवगीत-साधक को क्या करना चाहिए? निश्चित तौर पर उसे अपने दृष्टिकोण को विशद और विस्तृत बनाना चाहिए। इतना विशद बनाना चाहिए कि परिदृश्य का बाह्य ही नहीं, आभ्यंतर और गोपन हिस्सा भी उसे दृष्टिगत हो सके। उसकी स्वरूपगत सुंदरता ही नहीं, उस सुंदरता के आवरण के पीछे छिपी हुई कुरूपता भी उसकी दृष्टि से ओझल न हो। उसका साक्षात्कार करना ही ज़रूरी नहीं है उसके सम्यक् उल्लेख के लिए उसकी वाणी और भाषा का समर्थ-सबल होना भी उतना ही ज़रूरी है। ज़रूरत हो तो भाषा में भी कुछ पर्दे रखे जा सकते हैं, पर वे ऐसे मोटे-गाढ़े के कपड़े के या तिरपाल के न हों जो परिदृश्य से भावक, वह पाठक हो कि श्रोता, के साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाले हों। माना कि परिदृश्य को बदलना और उसका सुधार करना न कवि के बसका है, न पाठक या श्रोता के, और न कविता के ही। पर सत्य की उद्घाटन-क्षमता कविता में अनिवार्य रूप से होनी चाहिए और सौंदर्य की कामिता भी उसके उद्देश्यों में शामिल होनी चाहिए। सत्य और सुंदर के अलावा कविता के साथ एक तीसरा और ज़रूरी तत्त्व भी जुड़ा हुआ है। वह है शिव-तत्त्व, लोक के सर्वतोभद्र कल्याण की कामना। यही है कविता का प्रस्थानबिंदु, उसका अंतिम प्रयोजन। कविता का समर्पण, वह किसी भी विधि से हो, मानवता और समस्त भूत-जगत् के हित के लिए होता है, पर हम हित कर रहे हैं, इसकीं उच्च स्वर में डुगडुगी बजाने से लोक का कोई हित नहीं होता। यह राजनीतिज्ञों के छद्म का तरीका तो हो सकता है, एक कवि का तरीका तो बिल्कुल नहीं।
नवता बनाम नवगीत और तज्जनित रमणीयता या रमणीयता जनित नवता के उल्लेख पर पुनः लौटता हूँ। नवता चाहे अन्न की हो, वस्त्र या परिधान की हो या भाषा और वर्ण्य-विषय या वर्णन के तौर-तरीकों की हो, प्रायः आकर्षित ही करती है। प्रायः इसलिए कि कभी-कभी प्रतिकर्षित भी करती है, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता। कभी-कभी नव-सी न प्रतीत होने के कारण ही चीजों की अतिशय उत्कृष्टता भी आकर्षित नहीं करती, प्रतिकर्षित भी भले न करती हो। पर नवता नवगीत में आए या नई कविता में, विभिन्न प्रकार के वार्णिक या मात्रिक छंदों में आए, प्रांजल शब्दों से आए या टटके देशज शब्दों के संयोजन से आए,अनुप्रासादिक शाब्दिक अलंकारों से आए या नवीनतम उपमादिक अर्थालंकारों से, उसके विविध प्रयोजनों में एक श्रोता, पाठक या भावक का ध्यानाकर्षण भी है, अगर प्रतिकर्षण भी होगा तो वह बाद में होता रहेगा, सभी की रुचि और रस-भावकता एक जैसी ही हो, यह संभव नहीं।
इस समय मनोज के यहाँ प्रस्तुत नवगीतों में से एक चाक्षुष उल्लेख पर मेरा ध्यान चला गया है और मैं इसे चाक्षुष बिम्ब भी नहीं कह पाऊँगा, आप चाहें तो कह सकते हैं। यह अपने-अपने अर्थापन की भी बात है।
उल्लेख यह है--
जून का पारा/ हमें बैंगन सरीखा/ भूँजता है।
यह गर्मी की पराकाष्ठा का एक टटका बिम्ब है। मैंने भी कभी एक ग़ज़ल में लिखा था--'शकल हो गई जैसे भरते का बैंगन'। दोनों उल्लेखों की प्रकृति और संदर्भ अलग हैं। एक चीज़ एक समान है तो केवल 'बैंगन'। गर्मी में तपने की कम्पेरेटिव डिग्री है सिंकना और सुपरलेटिव डिग्री है--भुनना,उसमें भी बैंगन की तरह भुनना जिसमें जलने के बाद ऐसा विरूपण भी शामिल है कि जला हुआ व्यक्ति या वस्तु पूर्वावस्था में आ ही न पाए।
इसी भुने बैंगन के उल्लेख वाले नवगीत का मुखड़ा है--'शकुन पाँखी, लौट आओ।' इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि हमारा परिदृश्य नाना-प्रकार के अपशकुनों से आच्छादित है,जिसमें जून के चढ़ते हुए पारे के कारण भुनने जैसी नैसर्गिक विपदाएँ हैं, तो मनुष्य की बेतरह बढ़ती हुई धनेषणा के कारण प्राकृतिक संतुलन के बिगड़ने और प्राकृतिक संपदा के अतिशय दोहन से उद्भूत विपदाएँ भी शामिल हैं, और भी तमाम अपशकुनात्मक परिस्थितियाँ हैं उन कारणों से उत्पन्न, जिनका उल्लेख इस गीत में नहीं आया है, या सब उल्लेखों को एक ही गीत में समेटना शायद किसी भी कवि के लिए संभव नहीं है। कवि प्रार्थना करता है, भले ही यह टोटका ही हो, कि हे हमारे शुभ के कारक और संवाहक शकुन-पाँखियो! तुम लौट आओ। एक कवि की कामना ऐसी ही होनी भी चाहिए, क्योंकि यही शुभकामना हमारी कविता में उत्पन्न हो चुकी 'शिव-तत्त्व' की कमी को दूर करेगी। सौंदर्य-तत्त्व की कमी तो पक्षियों की उपस्थिति-भर से और उनके कलरव से दूर हो जाएगी।
इसके बाद मनोज के जिस नवगीत को प्रस्तुत कर रहा हूँ, कम-से-कम निजी तौर पर मैं उसके 'मुखड़े', जिसे 'ध्रुवपंक्ति', 'स्थायी' और 'टेक' भी कहते हैं, से बिंदु-भर भी सहमत नहीं हूँ, फिर भी, कारण-विशेष से उसे अपने चयन में शामिल कर रहा हूँ। पंक्तियाँ हैं--
ठूँठ बसंत हुआ/पुण्य अनन्त हुआ।
ये पंक्तियाँ आगे प्रस्तुत गीत की भावभूमि से असम्बद्ध प्रतीत हो रही हैं। 'मुखड़ा' होने के कारण ये गीत का शीर्षक भी होती हैं, और आगे प्रस्तुत किए जाने वाले भाव की भूमिका भी, जोकि ये नहीं हैं। मुखड़ा भले ही गीत की आत्मा न होता हो,वह गीत का परिचय अवश्य देता है, और क्योंकि, यह हर अन्तरे के बाद दुहराव में आता है,टेक या ध्रुवपंक्ति के रूप में, तो इसका तो गीत की भावभूमि से जुड़ा हुआ नितांत आवश्यक है। बसंत ठूँठ हो सकता है,ऋतु अपना गुणधर्म भूल सकती है, यह भाव तो बिल्कुल ठीक,ऐसा होता भी है, पर यह 'अनंत पुण्यों का फल' कैसे हुआ, यह समझ के परे है। अगर अनंत पुण्यों की ही बात की जाय, एकाध पुण्य की नहीं, तो न तो वे निष्पत्र होते हैं और न निष्फल। अगर, किन्ही परिस्थितियों में ऐसा होता है, तो उसे ज़रूरी तौर पर स्पष्ट किया जाना चाहिए, चाहे ऐसी अभिव्यक्ति का स्वर व्यंग्यात्मक ही हो। न तो कवि, और न कवि की कविता ऐसा कोई उद्यम करते दिखाई पड़ते हैं। एक बार, कहीं वरिष्ठ कवि 'कुमार विमल' ने कहा कि भाषा ऋचा से त्वचा और राम से काम तक की यात्रा करके थक चुकी है। यह अर्थगत दृष्टि से बेमेल तुकांतों के प्रयोग का आख्यानक है और मनोज भी अन्य छद्मचर नवगीत-कवियों की पाँत में बैठकर ऐसा करने को तैयार हैं,यह देखकर दुख होता है। एक नवगीतकार तथा, व्यथा, अन्यथा, आदि तुकांतों को अर्थ-भ्रष्ट तरीकों से जोड़कर अपने नवगीत का ढाँचा खड़ा करते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि बाँस की खपच्चियों के ढाँचे पर पतंगी कागज़ लिपेटकर रावण आदि का एक पुतला तत्क्षण खड़ा कर दिया गया हो, जिसमें बहुत सारा बारूद और पटाखे भरे हों और एक अग्निबाण छोड़ने-भर की देर है और पूरा-का-पूरा नवगीत-परिदृश्य एक झटके में स्वाहा हो जाने वाला हो। उस नवगीत, जिसका मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, न भाषा का ही पता था और न भाव का ही। संतोष है कि कम-से-कम मनोज उस पाँत के कवि नहीं हैं। वे अर्थपूर्ण और भावपूर्ण नवगीत ही रचते हैं।
इसी नवगीत के पहले अंतरे में कवि किंचित् उपेक्षा के साथ कहता है--
कथ्य यहाँ का/शिल्प वहाँ का
दर्शन ठूँसा/ कहाँ-कहाँ का
इसमें गलत क्या है? कविता में खाँटी नवता तो होती नहीं, कोई कितना भी दावा कर ले। परंपरा में ही उसका आधार होता है। वह यह तो अभिव्यक्त भाव को पुष्ट करती है,या उसका विरोध करती है या अर्थापन करती है। कभी-कभी तो उसकी उपेक्षा भी करती है, जैसा कि मधुर कर रहे हैं इस वक़्त। वरिष्ठ नवगीत-कवि देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' लिखते हैं--
परंपरा की पीठ पर, हवा लिखे नवगीत।
तो, नवगीत का कथानक परंपरा के साहाय्य के बिना पूरा नहीं होता। तुलसीदास भी कहते हैं--
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि।
उन्होंने अपनी रामकथा में जो आधारभूत सामग्री जुटाई है, वह पुराणों आगम ग्रन्थों, निगम आदि प्रामाणिक उल्लेखों के अतिरिक्त अन्य स्रोतों के उल्लेखों पर भी अवलंबित है,जिन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता, जो श्रुति पर या किंवदंतियों पर भी आश्रित है। तो, कवि का निजी क्या है? उसकी प्रस्तुति, उसका तरीका या लहज़ा, उसका कथा में अंतर्निहित कविता-रस। यह रस ही नव है और कवि का दृष्टिकोण ही नव है। वे शिव-पार्वती के प्रणय-प्रसंग पर एक पंक्ति लिखकर अपनी बात का समाहार करते हैं--
जगत मातु पितु संभु भवानी। तिन्ह सिंगार न कहहुँ बखानी।।
इस उल्लेख-भर से वे कालिदास-प्रणीत कुमारसम्भव की उपेक्षा कर देते हैं।तो कविता में, नवगीत-कविता में भी, पहले से विद्यमान उल्लेख भी आएँगे और दर्शन भी अपने कपड़े बदल-बदलकर आता रहेगा, इसे कोई नहीं रोक सकता, अलबत्ता, वहाँ कवि का कुछ निजी अवश्य होगा।
इसी नवगीत की टेक में वे लिखते हैं--
दो कौड़ी की कविता लिखकर / तुक्कड़ पंत हुआ
यह स्पष्ट है कवि को भी कि अनमोल या मूल्यवान कविता तुकों के भरोसे नही रची जा सकती। तभी वह तुक्कड़ की कविता को 'दो कौड़ी की' कह पाता है। यह इस कविता का पहला महत्त्वपूर्ण अभिप्राय है, जिसे मुझ सहित दूसरे कवि भी अभिव्यक्त करते हैं। दूसरी बात है कवि का पंत होना। पंत प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में विख्यात हैं। आज कविता में सुकुमारता भले ही अप्रासंगिक नहीं हुई है,पर आज की कविता का इस सुकुमारता से बहुत ज़्यादा लेना-देना भी नहीं है। एक दो तथाकथित नामचीन आलोचक पंत को ही खारिज़ करने सम्बन्धी वक्तव्य दे चुके हैं।पर,हर कविता की प्रासंगिकता का एक काल भी होता है, यह भूलने वाली चीज़ नहीं है। निश्चित तौर पर, यहाँ पंत का उल्लेख तुकांत की सुविधा के कारण ही आया है,और उनका छायावाद के कवि के रूप में सुख्यात होना तो उल्लेखनीय है ही। तो क्या तुकांतों की खपच्चियों के सहारे साधा गया कविता का ढाँचा कविता न होकर कविता की छाया-मात्र है, इस प्रश्न पर हम सबको विचार करना चाहिए।
क्योंकि इस विस्तृत टिप्पणी के बहाने मुझे नवगीत की अंतर्वस्तु को तो विचार में लेना ही है, पर नवता के साथ गीत होने के कारण उसके रचावपक्ष पर भी ध्यान केंद्रित करना है, इस आशय से मैं यहाँ प्रस्तुत तीसरे नवगीत पर पाठकों का ध्यान चाहता हूँ। भावपक्ष से पुष्ट इस नवगीत के रचाव में कुछ ऐसी सूक्ष्म कमियाँ हैं, जो नवगीत को 'श्रव्य' के स्थान पर 'पाठ्य' अधिक बनाकर उसके गीति-तत्त्व में बाधा उत्पन्न कर रही हैं।प्रायः नवगीतकार, जिनमें मैं भी स्वयं शामिल हूँ, इन सूक्ष्म बातों को विचार में लेना अनावश्यक ही समझते हैं और अपनी रचना पर फूलकर कुप्पा हो लेते हैं, पर अनायास निःसृत होती कविता को कुछ आयास का साहाय्य मिल जाए तो मणिकांचन योग हो जाए, सोने में सुहागा हो जाए। यद्यपि इन दोषों की उपस्थिति में गीत की अभिव्यक्ति की कोई क्षति नहीं होती पर यह तो सत्य है ही कि दोष जितने न्यून होंगे या अनुपस्थित होंगे, उतना ही कविता का बल बढ़ेगा। कोशिश नाम की क्रिया का समावेश करके हमें गीत को 'श्रुति-सुकर' ही बनाना है, 'पाठ्य रचना' नहीं।
'काश हम होते नदी के तीर वाले वट'-- इस नवगीत का मौलिक मीटर यह है--
ध्रुवपंक्ति : 2122 2122 2122 2
अंतरा : 2122 2122 2122 2122
कहने का अर्थ यह है कि ध्रुवपंक्ति और अंतरे--दोनों की मापनी एक जैसी ही है,और कुछ मामूली-सा ही अंतर है। पर जगह-जगह इस मापनी का उल्लंघन भी हुआ है जिससे कुछ कोशिश से काफी हद तक बचा जा सकता था। 'छलक जाता घट' में 'छलक' 12 के भार में आ रहा है, जबकि यहाँ 21 अपेक्षित था। 'नयन अपने सदानीरा से ज़रा हंस बोल लेते' का मात्राभार होना था--
2122 2122 2122 2122
पर यह आ रहा है--
1222 1222 2122 2122
इसे यों बचाया जा सकता था--
नैन निज रस की नदी से फिर ज़रा हँस-बोल लेते।
ऐसी कमियाँ,प्रत्यक्ष में नामालूम सी सूक्ष्म कमियाँ इस गीत में अन्यत्र भी है, जिनमें से कुछ को तो निश्चित ही बचाया जा सकता था। जैसे--
'थके पाँखी लौट आते' 'और पाँखी' आ सकता था। ऐसे ही ' ठाठ से हम खड़े होते' की जगह 'ठाठ से होते खड़े हम' हो सकता था तो दूसरी पंक्ति भी ठीक करनी पड़ती--' जिंदगी होती ज़रा पर शान में होते बड़े हम'। यद्यपि मैं इन सुधारों को अनावश्यक भी मानता हूँ,पर कवि को यह आदत भी होनी चाहिए कि वह अपने मीटर को खुद पकड़कर उसके निकष पर रचना को परखे और संभव हो तो आवश्यक परिष्कारों के लिए अपने मानस को तैयार रखे, भले ही वह रचना उसी रूप में किसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका में छप चुकी हो।
एक नवगीत में गाँव के बदलते माहौल पर कवि की सूक्ष्म और विश्लेषक दृष्टि पड़ी है जिसके कारण जो मन हमेशा गाँव जाने के लिए उतावला रहता था, वह गाँव जाने से कतराता हुआ दीखता हैं। इस गीत में एक रूपक अलंकार है--'द्वार-दर्पण'। यह एक अप्रयुक्त बिम्ब मुझे लगता है। द्वार ही अंदर के परिदृश्य का मानों सारा-का-सारा चित्र खींच देता है। वो कहते हैं न कि 'लिफाफा देखकर मज़मून खत का भाँप लेते हैं'। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहते हैं-- ' अदहन का एक चावल देखकर ही पूरे पाक का पता चल जाता है'। फिलहाल तो ये थोड़े-से गीत ही मनोज के पूरे गीत-संसार का आस्वाद और पता देने के लिए पर्याप्त हैं। इस गीत में कई टटके बिम्ब हैं ,जिनकी अपेक्षा एक पाठक को एक नवगीतकार से रहती ही है।
एक और नवगीत में मात्राओं का अवग्रहण बहुत ज़्यादा है। यह उर्दू काव्य-परंपरा से प्राप्त प्रवृत्ति है जो ग़ज़ल में ही स्वीकार-योग्य लगती है और नवगीत में यह अवांछित ही है। गीत यूँकि अच्छा है पर मैं मनोज सहित सभी नवगीतकारों को इनसे बचने की ही सलाह दूँगा।
क्या नवगीत-परिदृश्य में पैरोडी-परकता का भी कोई स्थान है? विशेषकर फिल्मी गीतों की पैरोडी का। इसमें दोनों ही बातें हैं--अच्छी भी और बुरी भी। अच्छी बात तो यह है कि इससे नवगीत को एक नई, प्रचलित लय का सबल साहाय्य मिलता है और खराब बात यह है कि
कि नवगीत की प्रस्तुति गौण पड़ने लगती है और फिल्मी गीत की धुन उसे दबा देती है। मनोज का यह गीत--' जब पीर पिघलती है मन की/मैं गीत खुशी के गाता हूँ' मनोज कुमार की फ़िल्म के गीत ' है प्रीत यहाँ की रीत सदा, मैं गीत खुशी के गाता हूँ' की सुधि ही नहीं दिलाता, अपितु उसकी कारबनकॉपी भी प्रतीत होता है। ऐसा लगता है जैसे विक्रम की पीठ पर बैताल जबरदस्ती चढ़ बैठा हो। यह स्थिति नवगीत के पक्ष में नहीं जाती।
मनोज के और भी नवगीत पढ़े हैँ मैंने और एक बात देखी है कि वे अपने नवगीतों का मीटर बहुत छोटा लेते हैं। उनके गीतों में स्फीति प्रायः नहीं होती। वे जल्दी ही अपने गीत से उपरत हो जाते हैं। वे ज़्यादा छांदसिक उलटफेर में नहीं पड़ते। यह एक तरह से ठीक भी है। आपकी रचनात्मक ऊर्जा बची रहती है। पर कभी-कभी उसका नुकसान भी होता है। छोटे मीटर को साधना भले ही आसान होता हो पर कभी-कभी मुझे लगता है कि हर भाव को समाने के लिए हमारे सामने छंद की मर्यादा बाधक होने लगती है। मनोज अपने गीतों को छोटे-छोटे व्यंजनों के रूप में परोसने के आदी हैं। वे बड़ा खाना प्रायः नहीं परोसते। कभी-कभी बड़ा खाना जैसा भी प्रस्तुत करते हैं।अश्लील और भदेस भाषा-शब्दों का प्रयोग भी करते हैं, चाहे प्रयोग के तौर पर ही सही। फिर बड़े उत्साह से उसे मित्रों को टैग भी करते हैं। कुछ लोग प्रशंसा भी करते हैं तो कुछ आलोचना भी। मेरे जैसे।ये टोटके कविता की और कवि की--दोनों की शक्ति को क्षीण करते हैं।
पुनः 'द्वार-दर्पण' पर। कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इस दर्पण में समाज कैसा दिखाई देता है? अच्छा कि बुरा? या दोनों तरह का। इस द्वार रूपी दर्पण से, इस सी.सी.टीवी कैमरे की नज़र से गुजरते हुए हम कविताओं के भीतर प्रवेश करते हैं। अंदर कैमरे से संबद्ध स्क्रीन पर सबसे पहले हमारा चेहरा दिखाई देता है। कवि का भी, जिसने यह कैमरा फिट किया था। फिर समाज का। कैसा दिखता है जी। वैसा, जैसा कवि दिखाना चाहता है। वैसा, जैसा मनोज दिखाते हैं।
पंकज परिमल / 31.01 2019
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पाठको की जिज्ञाषा के लिए यहाँ उन पाँच नवगीतों को भी प्रस्तुत कर रहा हूँ जो परिमल जी की टीप के केंद्र में रहे!
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ठूँठ बसंत हुआ।
पुण्य अनन्त हुआ।।
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कथ्य यहाँ का,
शिल्प वहाँ का।
दर्शन ठूँसा,
कहाँ कहाँ का।
दो-कौड़ी की
कविता लिखकर
तुक्कड़ पंत हुआ।
साँठ गाँठ
तिकड़म से यारी।
खुद को कहता
है अवतारी।।
लूट ,सती की लज्जा
चुरकट
यूँ जयवन्त हुआ।
इधर उधर का
लूटा-पाटा।
इसको छाँटा,
उसको काटा।।
दान लिखाकर
मंदिर जी में
डाकू
संत हुआ।
मिली न पूरी
बची न आधी।
हुई समय की
यूँ बर्बादी।।
जीते-जी
जीवन का ऐसे,
कैसे अंत हुआ।।
मनोज जैन "मधुर"
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सगुन पाँखी!
लौट आओ।
एक सन्नाटा यहाँ
वातावरण में
गूँजता है।
जून का पारा
हमें बैगन सरीखा
भूँजता है।।
सूखती संवेदना की
झील को
आकर बचाओ।
आदमी हँसकर
नदी की लाज
खुलकर लूट लेता।
बेचकर
जल-जीव-जंगल
धन असीमित कूट लेता।।
यह व्यथा तो है हमारी
तुम कथा
अपनी सुनाओ।।
हाल है ऐसा
कि अब
हँसता नहीं है सर्वहारा।
सोचता हूँ,
मैं तुम्हें
किस डाल पर दूँगा सहारा।।
ठीक ही होगा अगर तुम
भूलकर सब
लौट पाओ।।
●
मनोज जैन 'मधुर'
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काश!
हम होते
नदी के तीर वाले
वट।
हम निरंतर भूमिका
मिलने-मिलाने की रचाते।
पाँखियों के दल उतरकर
नीड़ डालों पर सजाते।।
चहचहाहट सुन
हृदय का
छलक जाता घट।।
नयन अपने
सदानीरा से
ज़रा हँस-बोल लेते।
हम लहर का परस पाकर
खिलखिलाते,
डोल लेते।।
मंद
मृदु मुस्कान बिखराते
नदी के तट।।
साँझ घिरती,
सूर्य ढलता
थके पाँखी लौट आते।
पात-दल अपने हिलाकर
हम रुपहला गीत गाते।
झुरमुटों से झाँकते हम
चाँदनी के पट।।
देह माटी की ग्रहण कर
ठाट से हम खड़े होते।
जिंदगी होती तनिक-सी
किंतु कद में बड़े होते।।
सन्तुलन हम साधते
ज्यों
साधता है नट।।
मनोज जैन "मधुर"
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गाँव जाने से मुकरता है
हमारा मन।
नेह की जड़ काटती रेखा
विभाजन की।
प्यार घर का बाँटती
दीवार आँगन की।।
द्वार-दर्पण में झलकता है परायापन।।
पाट-चकिया-सा हुआ है
गाँव का मुखिया।
और पिसने के लिए तैयार
है सुखिया।।
सूखकर काँटा हुआ है
झोपड़ी का तन।।
हम हुए हैं
डाल से चूके हुए लंगूर।
है नियति जलना,
धधकता मन हुआ तंदूर।
मारतीं हैं पीठ पर सुधियाँ
निरंतर घन।।
मनोज जैन मधुर
●
जब पीर पिघलती है मन की
तब गीत नया मैं गाता हूँ।
सम्मान मिले जब झूठे को
सच्चे के मुँह पर ताला हो।
ममता को कैद किया जाए
समता का देश निकाला हो।।
सपने जब टूट बिखरते हों
तब अपना फ़र्ज़ निभाता हूँ।।
छल-बल जब हावी होकर के
करुणा को नाच नचाते हैं।
प्रतिभा निष्कासित हो जाती
पाखंड शरण पा जाते है।।
तब रोती हुई कलम को मै
चुपके से धीर बँधाता हूँ।।
वैभव दुत्कार गरीबी को
पग-पग पर नीचा दिखलाए।
जुगनू उड़-उड़ कर सूरज को
जलने की विद्या सिखलाए।।
तब अंतर्मन में करुणा की
घनघोर घटा घहराता हूँ।।
जब प्रेम-सुधारस कह कोई
सम्मुख विष प्याला धरता है।
आशा ,मर्यादा,निष्ठा को
जब कोई घायल करता है।
छंदों का संजीवन लेकर
मुर्दों को रोज़ जिलाता हूँ।।
मनोज जैन 'मधुर'
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