बुधवार, 15 मई 2024

डॉ रविशंकर पांडेय जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग

डॉ रविशंकर पांडेय जी के नवगीत
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                    वागर्थ समूह और ब्लॉग वागर्थ में प्रस्तुत हैं कवि रविशंकर पांडेय जी के नवगीत 
      शब्द प्रयोग के मामले में कवि रविशंकर पांडेय जी अपने नवगीतों के रचाव में बहुत थोड़े से शब्दों का प्रयोग कर नवगीतों में सघन अर्थ की व्याति करने में सिद्धहस्त हैं। 
          एक नवगीत में कवि ने समकालीन यथार्थ को कम शब्दों में पकड़कर नवगीत में बाँधा है; द्रष्टव्य है एक छोटा सा उदाहरण उनके नवगीत के एक बंद का कितनी सहजता में उन्होंने अपने मन की बात कह देते हैं 
          देखें

      बिना पढ़े
      दुनिया बेंचें वे
      हम तो रटते रहे ककहरा
      माटी के माधव
      हम ठहरे
      उनका हर अंदाज सुनहरा

              पढ़े फारसी
              तेल बेंचते
              घर के रहे न रहे घाट के
                              कवि के नवगीतों को पढ़कर आप भी देखें इन नवगीतों को।
   प्रस्तुति
   वागर्थ

आइए पढ़ते हैं कवि रविशंकर पांडेय जी के सात नवगीत        

एक

यह सरसों फूली

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बात बहुत छोटी
है घटना मामूली
यह सरसों फूली
ज्यों बरसों में फूली!

बिटिया बढ़नार
हाथ पीले हों जल्दी
बहू छिपी घर में
ज्यों एक गांठ हल्दी 

ओले की पाले की
बातें सब भूली !

दिन दुपहर गली गली
गांवों में फूली
मेंहदी बन भौजी के
पांवों में फूली

वेदना निराशा
दुख दर्द चढ़े शूली
यह सरसों फूली
कुछ अरसों में फूली 

दो

नाच न आवे आंगन टेढ़ा

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अपनी नाकामी 
औरों के
माथे मढ़ कर करें बखेड़ा 
नाच न‌‌‌ आवे
आंगन टेढ़ा  

कड़वा-कड़वा 
थू-थू करते 
गप्प गप्प सब मीठा मीठा 
डांट रहा 
उल्टे मालिक को 
ऐसा नौकर दिखा न ढीठा

करते आधा 
और अधूरा 
ढोल पीट बतलाएं डेढ़ा  

उनका अपना 
राग अलग है और 
अलग है उनकी ढपली 
खाने वाले 
दांत अलग हैं 
और दिखाने के कुछ नकली  

नेकर नहीं 
बांधना आया 
कसें सुपेती का वो फेंड़ा  

अपनी नहीं 
कह रहा साधो 
कहता हूँ मैं यह जग बीती 
सीधी सच्ची बात 
भले ही लगती 
कुछ लोगों को तीती

नहीं रही 
आदत कहने की 
घुमा फिरा कर टेढ़ा मेढ़ा !

    तीन         

तुरुप चाल है
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एक तरफ
नहले पर दहला
एक तरफ से तुरुप चाल है
बेचारा-
जोकर क्या करता
बजा रहा वह सिर्फ गाल है  

दातों तले
दबाए उंगली ठगे-ठगे से
इक्का-दुक्का
पाली-पोसी 
एक सभ्यता रोने लगी
फाड़ कर फुक्का

सहमी-सहमी
बेगम है जब तब-
गुलाम की क्या मजाल है

एक तरफ तो
तंत्र-मंत्र से
जीत रहे वे हारी बाज़ी
और दूसरी तरफ 
लगे हैं जोड़-तोड़ में
पंडित-काजी, 

जैसे को तैसा
दोनों की 
गलती दिखती नहीं दाल है  !

अपने दाँव-पेंच पर
हमको क्यों
बेवजह लपेट रहे हैं
जाने कब से हमें
ताश के पत्तों
जैसे फेंट रहे हैं

पिसते-पिसते
रामभरोसे का देखो
क्या बुरा हाल है  

जीने-मरने के
सवाल से जुड़ा हुआ
है खेल ताश का
लगा हुआ सर्वस्व दांव पर
हर गरीब का
आम खास का

बावन पत्तों के
तिलस्म में डूबा
सारा देश काल है

       
चार

आम लगे बौराने
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धूप निगोड़ी
हुई गुनगुनी
तेज हुई दिन दूनी
दिन चढ़ते ही
लगे उतरने
क्या खादी क्या ऊनी 

बची कुची
सांसें टूटी 
जाड़े की माघे आधे
फागुन आते 
अब किसान का
कुर्ता आया कांधे 

महतो के द्वारे
अलाव की
पड़ी अथाई सूनी 

प्रगतिशील पोती
हो या फिर
दकियानूसी दादी
तेज धूप में
हो जाते हैं
सारे छायावादी 

शुरू हुई
सूरज की कैसी
हरकत अफलातूनी 

खेतों में
फिर से रंगों की
सजने लगीं दुकानें
परिवर्तन की
उहापोह में
आम लगे बौराने

सरसों पीली
खिली धूप में
दिखे खूब बातूनी 

पाँच

घट गए कद से
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रहे उठल्लू के
चूल्हे हम
एक अदद से
जमा न पाए
पैर कहीं पर भी
अंगद  से  ! 

अधजल गगरी से
फिरते थे
छलके-छलके
गुरुता के
चक्कर में हुए
और भी हल्के

रहे रेंड़ के पेड़
न हो पाये
बरगद  से  

उचक- उचक कर
पंजों पर
हो रहे खड़े थे
औरों के आगे
दिखने को
सिर्फ बड़े थे

इस कोशिश में
और घट गए
अपने कद  से! 

लौट के बुद्धू
जब तक 
वापस घर को आये
मूल ब्याज
तब तक बढ़ कर
हो गए सवाये

अब उधार के 
तेरह ना नौ
रहे नगद से

छह

उल्लू काठ के
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कहने को 
हो गए साठ के
फिर भी रहे
अक्ल के आधे
लेकिन पूरे दिखें गांठ के

गाँव देश की
रही कहावत
होता है साठा सो पाठा
लेकिन एक सनक
कर देती
अच्छे भले काम को माठा

एक जने का
बोझ बन रहे
जूते चप्पल सात आठ के

कथा वार्ता
एक तरफ तो
एक तरफ है चोरी लूका
सबके दाता
वही राम हैं कह गए
ऐसा दास मलूका

पोंगा पंडित रहे
आज भी हम बस
पूजा और पाठ के

बहती गंगा में
औरों सा हाथ 
न अपने धो पाए जो
भेड़चाल का
हिस्सा बनकर लाभ
न इसका ले पाये जो

अपना उल्लू
साध न पाए  वह
उल्लू हैं सिर्फ काठ के

बिना पढ़े
दुनिया बेंचें वे
हम तो रटते रहे ककहरा
माटी के माधव
हम ठहरे
उनका हर अंदाज सुनहरा

पढ़े फारसी
तेल बेंचते
घर के रहे न रहे घाट के

सात

भैंस गई फिर से पानी में
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दिल्ली की
बातें करता हूँ
गाँवों की बोली बानी में
भैंस गई
फिर से पानी में  

हम भी हैं
कितने सैराठी
थामे रहे
हाथ में लाठी

फिर भी रोक
न पाए उसको
क्या कर बैठे नादानी में  

लाठी में अब
नहीं तंत है
जनता तो
तोता रटंत है

मन करता है
बाल नोच लें
खुद अपने ही हैरानी में

कहत कबीर
सुनो भाई साधो
सब के सब
माटी के माधो

बेंच रहे
ईमान धरम सब
महज एक कौड़ी कानी में
भैंस गई
फिर से पानी में

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