आज वागर्थ में पढ़िए 4 जुलाई,1928 को सागर मध्यप्रदेश में जन्मे सागर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति,म.प्र.हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रदेश अध्यक्ष,प्रसिद्ध कथाकार,उपन्यासकार,पूर्व प्राध्यापक,पूर्व विधायक एवं लोकप्रिय कवि,कीर्ति-शेष शिवकुमार श्रीवास्तव जी के सम्मान में श्रद्धांजलि-स्वरूप उनके दो नवगीत ।
आप सभी साहित्य मनीषियों की प्रतिक्रियाएँ पटल पर अपेक्षित हैं ।
~~ टीम वागर्थ ~~ प्रस्तुति-
ईश्वर दयाल गोस्वामी
नवगीत-कवि एवं समीक्षक
(1)
|| कस्बे की साँझ ||
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लिए हुए
लकड़ी की मुहरी
किसी भील
कन्या-सी अल्हड़
कस्बे की उदास गलियों में
उतर साँवरी
साँझ रही है ।
नल पर धकापेल करतीं हैं
कलशे,गगरे,घड़े बालियाँ,
जैसे यहाँ सुनाई देतीं
बिल्कुल अभिनव शुद्ध गालियाँ
नहीं मिलेंगीं शब्द-कोष में
जोश नहीं रह गया होश में
गाँजे की दो चिलम फूँककर
बलगम के संग खून थूककर
दद्दा अविरल खाँस रहे हैं
चिंता में डूबी,उतराती
अम्मा बीड़ी भाँज रही है ।
दस्तक देने लगी प्रौढ़ता
देह-द्वार पर कुछ जल्दी ही,
कुम्हलाए गुलाब गालों के
नहीं चढ़ी अब तक हल्दी भी,
ज्यों मुरझाया नीलकमल हो
पाला मारी हुई फसल हो
बसने से पहले ही उजड़ी
कुछ-कुछ उखड़ी
कुछ-कुछ सुलझी
फटी बिवाई,भरी हथेली
टूटे सपनों को सहेजती
जिज्जी बासन माँज रही है ।
रोजगार कुछ मिल न सका
औ' ऊब गए जब बैठे-बैठे,
रँगदारी की ट्रेनिंग लेने
लगे आजकल लुहरे,जेठे,
मजबूरी में हठधर्मी है
कुंठित मन की बेशर्मी है,
खिला रहे बस्ती में सट्टा
मार रहे हैं चील-झपट्टा,
क्योंकि कहीं सम्मानजनक
कुछ, कर पाने की
सारी कोशिश बाँझ रही है ।
बहुएँ जला रहीं हैं चूल्हे
गुरसी,ढिबरी और अँगीठी,
गलियारे में फिल्मी धुन पर
कोई बजा रहा है सीटी,
वैसे ही सब तौर-तरीके
वही इशारे कैसे सीखे,
जानबूझकर रही उपेक्षा
कुछ-कुछ उत्सुक
कुछ-कुछ आतुर आधे-
अंधे दर के दर्पण में
अपना ही प्रतिबिंब देखकर
विन्ना काजल आँज रही है ।
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(2)
|| बोनी के बाद ||
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थमे पवन में
तैर रहा है
एक धुएँ का छल्ला ।
भीतर खींची साँस
चिलम से लपट उठी है ऊपर,
चमक नई,नौनी खेती की
काली-काली भू पर ।
स्निग्ध दृष्टि में नेह
तैरता माथे तरल पसीना,
जाग रहा है कोई सपना
कुछ चीन्हा, अनचीन्हा,
तरु छाया में मुग्ध-
मगन-मन, कृषक धूल से धूसर,
भीतर खींची साँस
चिलम से लपट उठी है ऊपर ।
बीज छिटककर
अब मन ही मन
सोच रहा सैलानी,
यदि माहुट
गिर जाए समय पर
तिगुना होगा गल्ला ।
दो टिक्कड़ बाँधे
उन्ना में लिए छाछ की मटकी,
एक नवेली खड़ी
मेड़ पर जैसे हिरनी ठिठकी ।
शिथिल हो गई चाल
कि जब से पाँव हो गए भारी,
लहराती हो मंद-
पवन में ज्यों सरसों की क्यारी ।
कुछ-कुछ सबल हुई दुर्बलता,
कुछ-कुछ ठिठकी-ठिठकी,
दो टिक्कड़ बाँधे
उन्ना में,लिए छाछ की मटकी ।
ओछा पड़ने
लगा उदर पर
अब चूनर का पल्ला ।
तरु छाया में मुग्ध-
मगन-मन बैठा कृषक तुष्ट हो,
धरती से फूटेंगे
अंकुर , कोमल मगर पुष्ट हो ।
समझ रही पीड़ा
माटी की भाव-प्रवण संवेदना,
ज्यों समाधि आनंद-
पलाविता केन्द्रीभूत चेतना ।
पीछे छूट गया
जीवन के हर
अभाव का हल्ला ।
•••
--- शिवकुमार श्रीवास्तव
सदर बाजार सागर,मध्यप्रदेश ।
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