गुरुवार, 24 जुलाई 2025

अनन्त आलोक समीक्षा बच्चे होते फूल से

संवेदनाओं की फुलवारी ‘बच्चे होते फूल से’
 -अनंत आलोक 

गीतकार मनोज जैन 'मधुर' के बाल काव्य संग्रह 'बच्चे होते फूल से' की कविताओं की रंग बिरंगी फुलवारी से गुजरते हुए यूं लगा कि मानो मैं खुद अपना बचपन एक बार फिर से जी रहा हूँ। अपने बचपन के हर मोड़ से गुजरना अपने आप में कितना खूबसूरत एहसास है, ये राही भी महसूस ही कर सकता है, सही सही बता नहीं सकता। 

काश ऐसा संभव हो कि हर कोई जब जी चाहे अपने बचपन से गुजर सके और जब जी चाहे तो वापस अपनी वास्तविक अवस्था में प्रवेश पा सके। 

काश ! ऐसा करिश्मा कर दे ये ए आई! ए. आई करे न करे, लेकिन एक कवि एक लेखक एक कथाकार की साधना में वह ताकत होती है, और वह चाहे तो ऐसा संभव कर सकता है।
वह जब चाहे उस स्तर तक जा पहुंचता है, जहाँ श्रोता कहने को मजबूर हो जाता है कि जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि। लेकिन क्या ये परकाया प्रवेश यूं ही संभव हो पाता है ! नहीं, इसके लिए लंबी साधना की जरूरत होती है। 

इस काव्य संग्रह की बाल कविताओं ने ये साबित कर दिया है कि एक साधक, एक समर्पित लेखक जब चाहे तब बचपन में उतर सकता है और जब चाहे तब वापस भी आ सकता है।
संग्रह की शब्द फुलवारी में अलग अलग रंग के कुल तैंतालीस फूल लहलहा रहे हैं। जिनकी सुगंध और दर्शन नयन और कर्ण मार्ग से ग्रहण करते हुये आनंदित हुआ जा सकता है।

शीर्षक बाल गीत से शुरुआत करूँ तो यह गीत हर एक अध्यापक, हर माता-पिता अभिभावक को जरूर पढ़ना चाहिए। पढ़ना ही नहीं चाहिए, हर घर, हर कक्षा कक्ष की दीवार पर लगा देना चाहिए। 
पाठ्यपुस्तक में आ जाए तो सोने पर सुहागा। इतना प्यारा गीता है कि तीन अंतरों में सब कुछ समेट दिया है कवि ने, एक बानगी देखिए। 

बच्चे होते फूल से, 
आँख दिखाओ मुरझा जाते,
प्यार करो खिल जाते हैं। 
मन के सारे भेद भुला कर,
आपस में मिल जाते हैं। 
मन होता है इनका कोमल,
इन्हें न डांटो भूल से। 
बच्चे होते फूल से।

बाल मन को गीति काव्य अधिक पसंद आता है और उसमें भी यदि कोई कथा कह दी जाए तो याद भी रहता है और कोई सीख भी मिल जाती है।
 
चौपाई छंद में मातादीन की ऐसी कथा बुनी की आनंद आनंद में बच्चा गाता जाए और एक से दस तक की गिनती भी सीख जाए। 
ये कविता छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी साबित हो सकती है।
एक बानगी देखिए 

एक गाँव में घर दो तीन 
आकर ठहरे मातदीन 
इन ने पाले घोड़े चार 
घूम लिया सारा संसार।  

यदि इतने ही अंश पर ध्यान दें, तो आप पाएंगे कि मातादीन के लिए सर्वनाम उस ने अथवा इस ने भी किया जा सकता था। लेकिन यहाँ कवि की सजगता देखिये, इन ने का प्रयोग किया गया है, जो सम्मान जनक है। अपने से बड़ों का सम्मान करना व्यवहार से ही सिखाया जा सकता है।  

‘एक बोध कथा का भावानुवाद’ कवि का बाल काव्य में नूतन प्रयोग है। 
एक समय था जब पंचतंत्र की कथाओं से सीख देने का चलन था। बच्चे उस से आकर्षित भी खूब होते थे। उसी राह पर चलते हुये टीवी ने बच्चों के लिए, जानवरों को पात्र बना कर कार्टून के माध्यम से बांधने का सफल प्रयास किया। लेकिन विद्यालय में अथवा किताबों से बच्चा फिर से जुड़े इसके लिए इसी तरह के प्रयास की आवश्यकता है जैसी यहाँ कवि ने की है। 
इस शीर्षक के अंतर्गत भाग एक और भाग दो के रूप में कवि ने सार छंद में तोतों को पात्र बनाकर महत्वपूर्ण सीख, रुचिपुर्ण ढंग से बच्चों तक पहुंचाने का प्रयास किया है।

चूना नहीं लगाना, भी एक अच्छी कविता है, थोड़ी लम्बी और व्यंजनात्मक है लेकिन बच्चे आनंद लेकर पढ़ सकते हैं। भालू बच्चों और बाल साहित्यकारों का प्रिय पात्र रहा है। 

एक रोज़ गुमटी पर आकर 
बोला भालू काला 
चौरसिया जी पान बना दो 
हमें बनारस वाला

इसमें नहीं डालना बिल्कुल 
ज़र्दा और सुपारी 
सेवन से हो जाता इसके 
अपना तो सर भारी। 

दूसरे अंतरे में नशे से बचने की हिदायत है, लेकिन पान मसाला भी से भी बचना चाहिए। बहरहाल अब पान वान के जमाने वैसे भी कहाँ रहे अब। एक इतिहास इसके माध्यम से जरूर पढ़ाया जा सकता है, बच्चों को। 

बड़ी बुआ, एक भावभूमि के लिहाज से और रिश्तों संभाल के लिहाज से एक बेहतरीन कविता है। रिश्तों के कैनवास पर बुआ, बच्चों का सबसे प्रिय पात्र है। इसे एक जरूरी कविता कहूँगा। 
आप भी एक दो बंध देखिए 

घर आईं हैं बड़ी बुआ 
आज बनेगा मालपुआ। 

ओढ़ रखा पश्मीना शॉल 
लगती हैं कश्मीरी डॉल 
होठों पर बिखरी मुस्कान 
चबा रही हैं मीठा पान 
चाँदी जैसे खिचड़ी बाल 
फूले फूले लटके गाल 

सर पर हाथ फिरा पूछा,
कैसा है मेरा बबुआ ?

ये जो सर पर हाथ रखना है और प्यार से पूछना, कैसा है मेरा बबुआ ? ये एक पूरी संस्कृति है। जो धीरे धीरे हैलो बुआ, हाय बुआ में, हैलो बेटा में बदल रही है। 

बुआ बुआ बूढ़ी है सो उसके संस्कार में अभी सर पर हाथ फिराना बाकी है। हिन्दी को चाहिए था कि सर पर हाथ फिरना को, मुहावरे के रूप में दर्ज करे। 

इसी तरह, इस गीत के मुखड़े की पूरक पंक्ति को देखें तो मालपुआ भी गाँव की संस्कृति है। 
इस गीत के अंतरों के पूरक समांत पर ध्यान दें तो मालपूआ, बबुआ, कछुया, महुआ, अहा ! ये स्मान्त केवल शब्द भर नहीं हैं। समवेदनाओं के भरे पूरे स्त्रोत हैं। ऐसे स्त्रोत जहां से रिश्तों को बचाने के सूत्र निकलते हैं, जहां से निकलती है प्यार मुहब्बत और अपने पन की गंगा। 

हमारे बाल साहित्यकारों ने मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह के बाद शायद ही कहीं रिश्तों को बचाने पर ध्यान दिया हो। यही कारण है कि आज प्रगतिवाद के नाम पर हम अपनों से दूर होते चले जा रहे हैं। जब तक हमें पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 

विभिन्न शिक्षाओं और मूल्यों को बचाने के साथ साथ रिश्तों को बचाने और, और अधिक मजबूत करना इस संग्रह का हासिल कहा जा सकता है। 

सार छंद में एक ओर कविता पर ध्यान ठहर जाता है। दिल्ली पुस्तक मेला। लेकिन ये कविता छोटे बच्चों के स्टार से ऊपर चली गई है। यहाँ बेशक बच्चों के प्रिय पात्रों को लेकर पुस्तक मेले की बात की गई है। पुस्तक मेले के बारे में और उसके प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए यह कविता उपयुक्त हो सकती है लेकिन, इसके भावों को लेकर छोटे बच्चों की समझ इतनी विकसित नहीं मानी जा सकती। बड़ों के लिए इसे अच्छा व्यंग्य माना जा सकता है।

संग्रह की हर एक कविता, गीत, लोरियाँ, पहेलियाँ, अपने आप में महत्वपूर्ण और उपयोगी है। उल्लेखनीय है। जिसके लिए आपको संग्रह से खुद गुजरना होगा। गुड़ को खुद खाए बिना उसका रस नहीं लिया जा सकता। तो खाएं और रस लें। 

कवि को बधाई देते हुए कहूँगा कि आपका यह कार्य संग्रहणीय तो है ही पठनीय है। चिंतन करने के योग्य है और इसे बच्चों के बीच पहुंचाने की आवश्यकता है। मैं स्वयं आपकी इस अमूल्य भेंट को अपने विद्यालय के पुस्तकालय में ले जाकर छात्र-छात्रों को पढ़वाऊंगा। 

उम्मीद करता हूँ, संवेदनाओं की फुलवारी में खूब फूल आएँ, भरपूर महके और फले फूले। कवि को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। 

  

अनंत आलोक – साहित्यालोक बायरी डाकघर व तहसील ददाहू जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश 173022 mob: 9418633772

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