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शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

कुटुंब यात्रा


चार्ली चाल कोल्हापुर से जवाहर चौक भोपाल तक का सफर
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सुबह की पहली किरणें अभी बाणगंगा के उस तंग मोहल्ले में पूरी तरह नहीं पहुँची थीं। हवा में नमी थी, और दूर से बहते पानी की हल्की-हल्की आवाज़ आ रही थी। यहाँ का माहौल ऐसा था, मानो समय यहाँ ठहर-सा गया हो। गलियों में मिट्टी और ईंटों के बीच बने छोटे-छोटे घर थे, जो अपने आप में एक कहानी कहते थे। इन्हीं में से एक घर था सुनील का। बाहर से देखने में यह बस चार दीवारों का ढाँचा था, लेकिन भीतर छह जिंदगियाँ साँस ले रही थीं। सुनील का कमरा छोटा था-इतना कि अगर कोई हाथ फैलाए, तो दीवारें छू जाएँ। एक कोने में पुराना स्टोव रखा था, जिसके पास उसकी पत्नी राधा चाय बनाने की तैयारी कर रही थी। पास ही दो बेटियाँ, काजल और रीना, अपनी किताबें लिए बैठी थीं। उनकी आँखों में कुछ बनने की चाह थी, पर हाथ में पेन के साथ-साथ घर की जिम्मेदारियाँ भी थीं। बगल में उनका भाई अजय फटी कॉपी पर कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। कमरे के बीच में सुनील बैठा था, उसकी आँखें लाल थीं, और चेहरा थकान से भरा था।तभी दरवाजे पर हल्की-सी खटखट हुई। राधा ने सिर उठाया और बाहर झाँका। वहाँ खड़े थे शहर के सुप्रसिद्ध लेप्रोस्कोपिक सर्जन डॉ.अभिजीत देशमुख जी- अपनी पूरी टीम के साथ सादे कपड़ों में, चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए। उनके हाथ में एक छोटा-सा थैला था। सुनील ने उन्हें देखा, उठकर अभिवादन करने  की कोशिश की, पर उसका शरीर साथ नहीं दे रहा था। “आइए, डॉक्टर साहब,” राधा ने झिझकते हुए कहा और एक टूटी कुर्सी आगे बढ़ाई। डॉ.अभिजीत अंदर आए और कमरे को एक नज़र देखा। उनके मन में कुछ पुरानी यादें कौंध गईं। उन्होंने बच्चों की तरफ देखा-काजल और रीना की किताबें, अजय की फटी कॉपी। फिर सुनील की तरफ मुड़े और धीमे स्वर में बोले, “सुनील भाई, ये बच्चे आपका भविष्य हैं। इनकी आँखों में सपने हैं, और आपके हाथ में इन सपनों को सच करने की ताकत। ”सुनील ने नज़रें झुका लीं। शायद उसे अपनी हालत का अहसास था, पर जवाब देने की हिम्मत नहीं थी। डॉ.अभिजीत ने थैले से तीन मिट्टी की गुल्लकें निकालीं और बच्चों के सामने रख दीं। “ये तुम तीनों के लिए,” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा। “हर दिन थोड़ा-थोड़ा बचाओ। एक-एक पैसा जोड़ो। ये गुल्लक तुम्हें याद दिलाएगी कि छोटी शुरुआत भी बड़ी मंजिल तक ले जा सकती है। ”काजल ने गुल्लक हाथ में ली और उत्सुकता से पूछा, “सच में, डॉक्टर अंकल? क्या हम पढ़ सकते हैं? हमारे पास तो ज्यादा पैसे नहीं हैं।” डॉ. अभिजीत की आँखों में एक चमक आई। वे कुर्सी पर बैठ गए और बोले, “जब मैं तुम्हारी उम्र का था, मेरे पास भी कुछ नहीं था। एक छोटा सा कमरा, माँ-पिताजी की मेहनत, और मेरी जिद कि मुझे पढ़ना है। मैं रात को लालटेन की रोशनी में किताबें पढ़ता था। कई बार भूखा सोया, पर सपनों को कभी नहीं छोड़ा। आज मैं यहाँ हूँ, क्योंकि मैंने हर छोटे मौके को पकड़ा। तुम भी पकड़ो। पढ़ाई के लिए पैसा नहीं, इरादा चाहिए। ”रीना और अजय उनकी बातें सुनते रहे। उनकी आँखों में एक नई उम्मीद जगी। सुनील ने भी सिर उठाया, शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था। राधा चुपचाप कोने में खड़ी सब सुन रही थी। डॉ. अभिजीत उठे और बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, “ये गुल्लक भरना शुरू करो। और सुनील भाई, इन बच्चों का साथ दो। ये आपकी ताकत हैं। ”कमरे से बाहर निकलते वक्त डॉ.अभिजीत ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। उन्हें अपना बचपन दिखाई दिया- वही तंग गलियाँ, वही छोटा कमरा। डॉ अभिजीत अपने बचपन को याद करते हुए बताते है कि वह अपने कैरियर के शुरुआती दिनों में कोल्हापुर की जॉकी बिल्डिंग चॉल में रहा करते थे। उन दिनों डॉ अभिजीत के नाना जी कोल्हापुर से तत्कालीन  सांसद थे । चाहते तो माननीय सांसद शंकर राव माने जी इनके लिए क्या नही कर सकते थे लेकिन डॉ अभिजीत के परिवार ने उनसे कोई राजनैतिक हित नही साधा और अपने स्वाभिमान को प्राथमिक रखा आगे डॉक्टर  अभिजीत बताते है कि हमारा पूरा परिवार कोल्हापुर की जॉकी बिल्डिंग चॉल में सालों साल रहा। 
       मन में एक संतोष था कि शायद उनकी बातें इस परिवार के लिए एक नई शुरुआत बनें। सूरज अब ऊपर चढ़ आया था, और बाणगंगा की गलियों में रोशनी फैल रही थी। 
(आगे जारी...)
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