शनिवार, 3 जुलाई 2021

वरेण्य कवि यतीन्द्रनाथ राही जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

अभी और जीना है मुझको : यतीन्द्रनाथ राही
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वागर्थ प्रस्तुत करता है नवगीत की मंजिल तक पहुँच कर दम लेने वाले नवगीत के राही ,जो नवगीत के विकास में उम्र के इस पड़ाव में आकर जहाँ, साधारण लोग चुक जाते हैं। ठीक इस बात के विपरीत वरेण्य नवगीत कवि यतीन्द्रनाथ राही जी आज भी नवगीत के अध्याय में निरन्तर नया जोड़ रहे हैं।
 राही जी ने अपना 96वां जन्म दिन मनाते हुए एक गीत  
           पढ़ा था जिसकी एक पँक्ति भर याद रही जो हम सब के लिए प्रेरक और अनुकरणीय है।
                "अभी और जीना है मुझको !"
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वागर्थ यतीन्द्रनाथ राही जी के शतायु होने की मंगल कामना करता है।
                प्रस्तुत हैं उनके पाँच नवगीत
               
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल
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1
एक अँजुरी धूप आँगन
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भर गया उल्लास
एक पँखुरी मुस्कराई
लिख गयी मधुमास।

लहर मचली
ज्वार उमड़े
एक आहट पाँव
चाँदनी में घुल गयी वह
एक क्षण की छाँव
एक पल की बात गूँगी
कल्पशत आभास।

एक क्षण
स्पर्श कोमल
बज उठे तन-तन्त्र
एक स्वर वंशी निनादित
सोम का अभिमन्त्र
एक झुकते पलक
सिमटे
आक्षितिज आकाश।

एक शब्दातीत विस्मृति
पलक भर संयोग
एक क्षण का डूबना
सौ जन्म का सुख-भोग
एक
अमृत बूँद पावन
मुक्ति का विश्वास

2

सिंहासन हैं चार पदारथ
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चार पदारथ
चुनकर तो भेजे थे
सेवक
बन बैठे वे सभी प्रशासक
कागज़ पर लिख दिया
ज़िन्दगी जीते हैं
केवल परमारथ

बीजमन्त्र जनतन्त्र हितैषी
हम जनता से
हुए जनार्दन
सौंपी थीं पतवारे जिनको
धारा में कर गए विसर्जन
उनके भी
अपने चिन्तन थे
अपने भी थे
उनके स्वारथ 

बड़ी मूँछवाली चौपालें
चलती हैं शतरंजी चालें
सड़कों से अन्दर
संसद तक
जूते भी
चलते हैं अनथक
गयीं कथाएँ बलिदानों की
त्याग-तपस्या
हुए अकारथ

संविधान
अपने हित वाले
धन्धे तो सबके ही काले
बँगला लाल बत्तियों के हित
धर्म-कर्म-ईमान समर्पित
सुख वैभव
सारे मुट्ठी में
सिंहासन हैं चार पदारथ ।

3
सौ सौ विभ्रम 
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उलझे लक्ष्य
कटीले पथ हैं
एक ज़िन्दगी
सौ सौ विभ्रम

इतनी धूल जमी दर्पण पर
सारी उमर
झाड़ते बीती
देख न पाए एक झलक भर
छवि
जीवन धन की मनचीती
जितनी बार गए पनघट पर
लेकर लौटे खाली गागर
दूर-दूर तक रहे उफनते
जलती हुई रेत के सागर
भरी मुट्ठियाँ
टूटे सपने
अधर काँपते
पलके पुरनम।
धरते रहे दीप पौढ़ी पर
अन्तःपुर
रह गए अँधेरे
मिले देवता भी तो ऐसे
चेहरों पर ओढ़े कुछ चेहरे
मैली सभी चादरें साधो
किसे ओढ़ लें
किसे बिछाएँ
महाकुंभ की महाभीड़ में
बोलो!
डुबकी कहाँ लगाएँ
निकला नहीं भोर का सूरज
होते रहे क्षितिज
कुछ अरुणिम।

नीलकंठ हम नहीं
नियति में लिखा
हलाहल ही पीना है
कटे पंख
पिजरे के पाँखी
जीना भी, कैसा जीना है?
मन करता है
गगन चीरकर
ऐसे दूर देश उड़ जाएँ
महाशून्य की महागन्ध में
पँखुरी पँखुरी
हो झर जाएँ
बाँहों में आकाश बाँधलें
साँसों में
साँसो के सरगम।
एक ज़िन्दगी।

4
 बातें करो मत
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वंचना है
कल नए दिनमान की
बातें करो मत!

महक रिश्तों में कहाँ है
काग़ज़ी हैं फूल सारे
एक माया जाल में
उलझे हुए पंछी विचारे
क्या करें ये डालियाँ ही
नीड़ अपने छल रही हैं
स्वप्न निद्रा है
किसी उद्गान की
बातें करो मत।

झूठ-सच अच्छे-बुरे का
कौन जाने भेद कैसा
आदमी के आकलन की
है कसौटी सिर्फ पैसा
दौड़ है अन्धी, न जाने
और कितना दौड़ना है
क्या वरण करना पड़ेगा
और क्या क्या छोड़ना है
वंचकों की हाट हैं
प्रतिदान की
बातें करो मत!

चरण पर किसके
धरें सिर
मूर्तियाँ तो सभी खण्डित
ग्रहण शापित लग रहे हैं
ये विमल आभाविमंडित
पतन के इस गर्त में भी
तान कर सीना खड़े हैं
झूमते हैं जो मुकुट धर
पाप के माणिक जड़े हैं
चेतना के मृत क्षणों में
ज्ञान की
बातें करो मत।

5
सुधि के मेघ
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रहे सींचते, ऊसर बंजर
हरियाली के दरस न पाए
आज
अषाढ़ी अहसासों पर
सुधि के
सघन मेघ घिर छाए।

रातों को छोटा कर देती
थी लम्बी पगली वार्ताएं
और शीत की ठिठुरन वाली
वे मादक कोमल ऊष्माएँ
ओस नहायी
किरन कुनकुनी
छुए अंग अलसाए।
अँधियारों में कभी लिखी थी
जो उजियारी प्रणय कथाएँ
भरी दुपहरी बाँचा करती
थीं उनको चन्दनी हवाएँ
हरित कछारों में
दिन हिरना
जाने कहों कहाँ भरमाए।

संस्पर्शों के मौन स्वरों में
कितने वाद्य निनाद ध्वनित थे
किसी अजाने स्वर्गलोक के
रस के अमृत कलश स्रवित थे
प्राण-प्राण पुलकित
अधरों ने
जब अपने
मधुकोश लुटाए।

बाँध नहीं पाते शब्दों में
पल-पल पुलकित
वे पावन क्षण
बूँद-बूँद में प्राप्त तृप्ति-सुख
साँस-साँस में अर्पण-अर्पण
उल्लासों के वे मृग-छौने
नहीं लौटकर फिर घर आए।

     यतीन्द्रनाथ राही 
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