मयंक श्रीवास्तव जी के तीन गीत
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गीत-साधना के शिखर पुरुष वरेण्य गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी के तीन गीत उनके चर्चित गीत संग्रह "इस शहर में आजकल" से साभार समर्थ गीतकार मयंक श्रीवास्वत जी के गीत पढ़कर और सुनकर मुझे गीतों के बारे में यह कहना होता है कि इनकी आदिम-संस्कृति की ध्वनियाँ आज तक आ रही हैं। मतलब यह कि गीतों को किसी भी युग में न तो नकारा जा सकता है और न नकारा जाएगा।
मयंक के गीत आज की जिंदगी को गाते और बयान करते हैं। गीत ,भाषा की जटिलता और अधिक प्रयोगों को बर्दाश्त नहीं करते। इन गीतों का भी यही वैशिष्ट्य है जिसे मैं बार- बार कहता हूँ।
राम अधीर
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प्रस्तुति
वागर्थ
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एक
दौड़ गया फागुन ।
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अब की बार
कई सौगातें
छोड़ गया फागुन ।
टूटे संबंधों को
फिर से
जोड़ गया फागुन ।
द्वार - द्वार पर
दस्तक देती
हवा निगोड़ी है ।
वैरागन
बगिया ने
नूतन चूनर ओढ़ी है ।
अपना धरती पर
सब अर्क
निचोड़ गया फागुन ।
सुस्त घाटियों की
महफिल में
हलचल दौड़ गई ।
हर पत्ती
हर कली
प्यार की गाती ग़ज़ल नयी ।
पिछले सारे
अनुबंधों को
तोड़ गया फागुन ।
बहुत दिनों के बाद
धरा का
सन्नाटा टूटा ।
रस रंगों से
भरा हुआ घट
जगह-जगह फूटा ।
बहुत पकड़ना चाहा
लेकिन
दौड़ गया फागुन ।
दो
समझा रही चिड़िया
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गीत मस्ती का
निरन्तर
गा रही
चिड़िया ।
जिंदगी क्या है
हमें
समझा रही
चिड़िया ।
मुस्कुराकर कर दर्द के
विष को सदा पीती ।
वह किसी की मेहरबानी
पर नहीं जीती।
अर्थ जीने का सही
बतला रही
चिड़िया ।
सामने विपरीत मौसम
की रुकावट हो ।
या कि आंखों में जमीं
कोई थकावट हो ।
यह नहीं देखा कभी
पछता रही
चिड़िया ।
दौड़ती रहती कभी
थकती नहीं देखी ।
वह किसी भी मोड़ पर
रूकती नहीं देखी ।
पाँव अपने मौज से
थिरका रही
चिड़िया।
तीन
हमें आदमी की छाया से
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हाथों में
हर समय नुकीला
पत्थर लगता है।
हमें आदमी
की छाया से
भी डर लगता है।
ऊब गया है मन
अलगावों की पीड़ा सहते।
कुटिल इरादों को मुट्ठी में
बंद किए रहते।
जीवन
जंगल के भीतर का
तलघर लगता है।
सम्बन्धों का मोल भाव है
खींचा तानी है।
पहले वाला कहाँ रहा
आँखों में पानी है।
रिश्तों वाला
सेतु पुराना
जर्जर लगता है।
लोग लगे हैं सोने
चाकू रखकर सिरहाने।
कविता लिखने वाला
दुनियादारी क्या जाने।
हैं ऐसे हालात
कि जीना
दूभर लगता है।
मयंक श्रीवास्तव
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