बुधवार, 6 अप्रैल 2022

वरेण्य नवगीतकार गणेश गम्भीर जी के पाँच नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

परिचय
गणेश गम्भीर जी


वरेण्य नवगीतकार गणेश गम्भीर जी मीरजापुर उत्तरप्रदेश से आते हैं। आप बलबीर सिंह रंग पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात नवगीतकार हैं।

वागर्थ प्रस्तुत करता है 

गणेश गम्भीर जी के नवगीत

एक
सबकी यही पसंद
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बोलचाल भी बंद हो गई
सबकी यही पसंद हो गई।

शान्त सतह है
नीचे क्या है
छिपा पीठ के
पीछे क्या है

मन की काई, तन पर आई
फैली और फफूंद हो गई।

सावधान
रहना मजबूरी
प्राण बचाना
बहुत जरूरी

सम्बन्धों की झील सूखकर
शव जैसी निस्पंद हो गई।

दो

जमी हुई है काई
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कदम-कदम पर
जमी हुई है काई
कोई कितना काँछे।

कहीं हरापन नया-नया है
कहीं-कहीं पर काले धब्बे
यहाँ निरर्थक हो जाते हैं
टायलेट-क्लीनर के डब्बे

फिसलन से
बचने की कोशिश में
हर आता-जाता नाचे।

वहाँ यही रस्ता ले जाता
जहाँ जश्न है रक्त-पान का
कौन उलंघन कर सकता है
नरबलि के स्वर्गिक विधान का

जन समूह को सम्बोधित कर
धर्मग्रन्थ
उपदेशक बाँचे।

कितनी आँखें चमक रही हैं
कितने चेहरे उत्साहित हैं
विस्फोटों के लिए शहर के
बड़े-बड़े मन्दिर चिन्हित हैं

कैसे जिन्दा रहे
अभी तक
ये बुतखाने, काफिर ढाँचे।

तीन

माँ!

माँ! तुम्हारा नहीं होना
फूल सहलाती
हवा का
नमी खोना!

आँख में
आकाश है
जितना भी फैला
धीरे-धीरे
हो रहा है
कुछ मटीला

बस
तुम्हारी याद का
दुधिया है कोना!

था यहाँ कुछ
जो नहीं अब
रह गया है
लहर का पानी
लहर में
बह गया है

साथ लेकर
दूब-अक्षत
दीप-दोना!

दूर सारे दर्द
मोतियाबिंद
खाँसी
छू न पाएगी
तुम्हें
कोई उदासी

एक
फोटो-फ्रेम में
चुपचाप सोना!

चार

इस अमृत में जो अमृत है
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इस अमृत में जो अमृत है
उसे बचाना  है
तय करना है 
अब जीना है या मर जाना है 

गौरव- गाथाओं पर
भारी ग्लानि -कथाएं हैं
यहाँ आत्महंता होने की 
रूढ़ प्रथाएं हैं

इतिहासों के इस दलदल से
बाहर आना है 

हुए पराजित किसी तरह 
पर हुए पराजित तो
हुए विभाजित किसी तरह 
पर हुए विभाजित  तो

करें जोड़ने की कोशिश 
कुछ नहीं घटाना है 

हवन-कुण्ड भी रहे अनवरत
चूल्हे बुझे नहीं
गुप्त स्रोत अमृत का  
मिल जायेगा यहीं कहीं

राह कठिन है 
किन्तु  लक्ष्य तक चलते जाना है 

कुण्ठाओं के -कुत्साओं के 
कई अंधेरे हैं
रातों का उत्तर देने को
नये सवेरे  हैं

मृत्यु -वरण करने का मतलब
जीवन पाना है  ।।

पाँच

काश
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हो रहा है जो 
न होता काश! 

हैं हवा में 
प्रश्न ऐसे ढेर सारे 
लग रहे हैं
बदले-बदले चाँद-तारे

सूर्य 
धीरज यूँ न खोता, काश! 

एक हलचल 
दूर तक आकाश में है 
गड़बड़ी
पायी गयी इतिहास में है 

विवश होकर 
सच न रोता,काश!

सामने 
बिफरे हुए ईरान -टर्की 
याद फिर
आने लगा है नागासाकी 

समय
आशंका न बोता ,काश!
___                      

गणेश गम्भीर 
घास की गली,वासलीगंज 
मीरजापुर -231001
उ0प्र0
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प्रस्तुति