29 नवम्बर 1963 को मध्य प्रदेश के जिला पन्ना में जन्मी एवम् भारतेन्दु मिश्र जी के सम्पादन में ' नवगीत एकादश ' की सहभागी कवि डॉ शरद सिंह जी का लेखन के प्रति रुझान बाल्यावस्था में ही अपनी माँ साहित्यकार डॉ विद्यावती ' मालविका ' जी की वजह से हुआ । वे मानती हैं कि उनकी कहानी ' गीला अंधेरा ' ,जिसकी नायिका सरपंच चुनी जाती है किन्तु उसकी सारी गतिविधियाँ पति द्वारा संचालित हैं , का प्लॉट उन्हें स्त्रियों के कष्टों से अधिक जोड़ गया । कहीं न कहीं यहीं से वह अपने स्त्री विमर्श लेखन की यात्रा का प्रारम्भ मानती हैं ।
ऐसा नहीं है कि यथार्थवादी रचनाकार शरद सिंह जी की क़लम सिर्फ़ स्त्री विमर्श पर ही चली हो , वे अपने समय की सभी विसंगतियों पर खुलकर अपना विरोध एवम् पीड़ा दर्ज़ करती हैं , किन्तु स्त्री विमर्श पर उनका लेखन निश्चित ही विशिष्ट स्थान रखता है ।
आइये पढ़ते हैं उनके कुछ नवगीत ।
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(१)
छत पर पड़ी दरार
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टूटी खिड़की
उखड़े द्वार
छत पर पड़ी दरार।
लालटेन की
बाती जैसे
धुंआ-धुंआ तक़दीर हुई ।
फटी चादरें
सीने में ही
उंगली में चुभ गई सुई ।
खाली जेबें
जागी आँखें ,
सपने लगें कटार।
बूढ़ी आँखों
हुआ मोतिया
दुनिया मकड़ी जाल लगे ।
निरे अपरिचित
जैसे मिलते
जन्मों से जो रहे सगे ।
घर के रिश्ते
बैर भुनाते ,
टूटे सभी करार।
कभी तो मुट्ठी
गरम रहेगी
बहना की शादी होगी ।
शायद चंगा
हो जाएगा
क्षुधा-तपेदिक का रोगी ।
कटे पेड़ का
हरियल सपना ,
हमको मिला उधार।
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(२)
मुटिठयों में प्यास भींचे
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धूप में जलते
दिवस
पथरा गए ।
फुनगियों पर
गिद्ध बैठे
टोहते
बंज़र बग़ीचे ।
जेठ की
तपती दुपहरी
मुट्ठियों में
प्यास भींचे ।
फूलते-फलते
शहर
मुरझा गए ।
भीतरी मन
और आँगन
ओढ़ते
गहरी उदासी ।
रक्तपाती
रास्तों से
दूरियाँ हैं
बस, ज़रा-सी ।
आँख में पलते
सपन
धुंधला गए।
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(३)
पिंजरे में बेचैन सुआ
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गीली लकड़ी
भीगी आँखें
धुआँ -धुआँ
छप्पर सारी रात चुआ ।
सिलवट वाले
बिस्तर पर
बूँद-बूँद कर
असगुन छाया ।
मन का
कच्चा फर्श सिताया ।
उधड़ी सीवन
फूटी क़िस्मत
धुआँ-धुआँ
पिंजरे में बेचैन सुआ।
दस्तक वाली
चौखट पर
सन्नाटे ने
भीड़ लगाया ।
घर का
औंधापन गहराया ।
सूनी देहरी
टूटा दरपन
धुआँ-धुआल
हरदम बेहद बुरा हुआ।
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(४)
सून में निचाट में
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धूल है ललाट में
क़िस्मत ने डाल दिया
चक्की के पाट में ।
खण्डहर-सी
ज़िन्दगी
टूटता पलस्तर ।
अस्मत की
कोट का
उधड़ गया अस्तर ।
दर्दों की लाट में
त्राहि-त्राहि करता मन
सून में, निचाट में ।
आँगन के
बीच में
मेंहदी की बाड़ ।
बैर भाव
झांकता
छप्पर को फाड़ ।
तौल और बाँट में
पर्दा ही शेष बचा
टूटे कपाट में ।
असगुन की
आहटें
और दिया बासी ।
रात-रात
जागती
बाबा की खाँसी ।
आँसू के घाट में
भूख के तपेदिक ने
डाल दिया खाट में।
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(५)
चिड़िया तरसे दाने-दाने
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खुले पंख की बंद उड़ाने
चिड़िया तरसे दाने-दाने।
इकलौते
सूरज से झाकें
मुट्ठी भर
किरणों के तिनके
शहरों की
परिपाटी बूझो
तुम किनके, हम किनके?
रिश्तों के हैं रिक्त खज़ाने
तिल-तिल टूटे नेह सयाने।
सपनीलीं
आखों की दुनिया
पलछिन
सपन सहेजे
मौसम ने
जैसे रख डाले
तेज़ धूप में खुले बरेजे
हर चेहरे बेबस, बेगाने
मनवा गए दुखी तराने।
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(६)
टूटती उड़ान
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पथरीली रातें
और दिवस बंजर।
बंधुआ-सी
देह रहे
हरदम बीमार ।
लोटे भर
शोक और
चुल्लू भर हार ।
अनुभूति घातें
रचें खेल दुष्कर।
बाबा के
गमछे में
टीस भरी गंध ।
अपनों ने
फूँक दिए
नेह के प्रबंध ।
जुदा-जुदा बातें
अलग-अलग आखर ।
सकुचाई
उम्मीदें
टूटती उड़ान ।
तिनकों की
झोपड़ी
फूस का मचान ।
टुकड़ों-सी गातें
और दुखी छप्पर।
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(७)
सपन कपासी
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मीलों लम्बी
घिरी उदासी
देह ज़रा-सी।
कुर्सी, मेजें,
घर, दीवारें
सब कुछ तो मृतप्राय लगें
बोझ उठाते
अपनेपन का
पोर-पोर की तनी रगें
बंज़र धरती
नेह पियासी
धार ज़रा-सी।
गलियां देखें
सड़के घूमें
फिर भी चैन न मिल पाए
राह उगा कर
झूठे सपने
नई यात्रा करवाए
रोती आंखें
सपन कपासी
रात ज़रा-सी।
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(८)
दर्द लिखे बूटे
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मन के रूमाल पर
दर्द लिखे बूटे।
रिक्शे का पहिया
गिने
तीली के दिन ।
पैडल पर पैर चलें
तकधिन-तकधिन।
भूख करे ताँडव
थकी देह टूटे।
अनब्याही बिटिया
सुने
बेबस रुनझुन ।
अहिवाती कंगन को
खाते हैं घुन ।
ड्योढ़ी का दर्पण
इंच-इंच फूटे।
चिल्लर की दुनिया
बुने
सपनों के घर ।
झुग्गी के तले उगे
रिश्ते जर्जर ।
दारू की बोतल
शेष भाग लूटे।
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-डॉ (सुश्री ) शरद सिंह