शनिवार, 17 सितंबर 2022

राघवेन्द्र तिवारी जी के अभिनव गीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग


राघवेन्द्र तिवारी के 
अभिनव गीत

     1

फटी कमीज के टूटे 
हुये बटन जैसा
अटक गया है दिन 
कण्ठ में घुटन जैसा

उतर रही है साँस 
प्राण के  झरोखे से
सम्हल गई है हवा
किसी नये धोखे से

पाँव चलते रहे इन 
काँच  हवा-महलों
दर्द बढ़ता रहा है 
एडियों फटन जैसा

चढ़े बुखार में वह
धूप में तपे ऐसे
भरी दोपहर कहीं 
प्यास बढ रही जैसे

वही फुटपाथ के पत्थर 
पर पड़ा सकुचाता
वक्त की बाँह पर खोयी
हुई खटन जैसा

बस एक चाह साँझ
कैसे भी उतर आये
रेंगता समय जहाँ 
मन्द-मन्द मुस्काये

बच गई एक आस
तनिक कहीं राहत की
जिसे कहा करते हम
नाम की रटन जैसा

2
  

बुनना है इतने समय में
तुमको कहानियाँ
बचपन या बुढ़ापा या 
किंचित जवानियाँ

महल, कुटीर, कोठियाँ
या फिर अटारियाँ
घर ,मकान,भवन,या कि
बस आलमारियाँ

निष्ठुर हुये से बैठे
फिर से कई कई
हैं राजनीति में ही
गुम राजधानियाँ

दासी- दास, नौकरों 
की भीड़ में पड़े
भूले हुये से वक्त के
गुमशुदा झोंपड़े

मुमकिन है खोजते रहें
अपनी शिनाख्त को
इस शहर में तमीज की
कुछ मेहरवानियाँ

जो दोस्त, दूकानदार
या व्यापार में मशगूल
सड़कों पर चहल-पहल 
को कुछ लौटते स्कूल

उनकी ही पीठ पर लदी
जनकृत व्यवस्थायें
खिडकियों से देखतीं
कुलवंत रानियाँ

3

वस्तुतः जैसे
प्रवाली बन गई हो
श्यामली तुम फिर
दिवाली बन गई हो

फटे आँचल को 
पकड़ कर प्यारमें
भर रही हो रोशनी
अँकवार में

किसी भूखे की
प्रतिष्ठा साधने को
भोग- छप्पन सजी
थाली बन गई हो

थप-थपाती उजाले
के बछेरू को
और सहलाती समय
के पखेरू को

आँख में भर उमीदों 
के समंदर को
ज्योति की खुशनुमा
डाली बन गई हो

अनवरत श्रम से
लगा जैसे थकी हो
झरोखे में थम गई 
सी टकटकी हो

रही खाली पेट
पर,आपूर्ति की
सुनहली कोई
प्रणाली बन गई हो

4

सूरज का लगा 
माँग -टीका 
बदल गया 
आचरण नदी का 

मद्धिम -मद्धिम चञ्चल 
सहमा-सहमा अविरल 
लेकर संग चलता है 
मौसम की हर हलचल 

हवा की हवेली से 
आ उतरे -
जल का यह 
कौन सा तरीका ?

आँखों का यह वत्सल 
जिस की है कल-कल-कल
दोनों किनारों पर 
रखी मेखला - वल्कल

बदला-बदला 
लगता बूंदों का -
उत्प्रेरक ,आधुनिक 
सलीका |

कहीं ठहरती अधमुँदी 
पलकों पर कोई सदी 
व्यवहलता , जैसे विस्थापित 
हो आँकने चली द्रोपदी 

नदी : एक रूप ,
हुई बारिश का -
अविकल अनुवाद ,
मगर /तनिक फीका |

गाती है गुन-गुन -गुन 
चलती है छुन -छुन-छुन 
फैलती विखरती है 
मीलों तक कोई धुन 

जैसे कि दूर कहीं 
बजता है -
गीत कोई 
मोहम्मद रफ़ी का।


5

खबर तो यह भी जरूरी
है, नई
फर्श से दीवार आकर 
सट गई

शून्य पसरा भवन के 
सद विचारों में
दिख रहे ध्वंश के बादल
दरारों में

ईंट की अपनी व्यथा
सहकर्मियों से
दूसरी एक ईंट आकर 
कह गई

 शुरू झड़ना हुआ 
 चूना समय का
बचा न अस्तित्व
जैसे विनय का

लोक प्रचलित कहावत
सी चेतना
डाक में आये खतों
सी बँट गई

अस्तव्यस्तस्थितियाँ 
सिंहद्वारों की
भूख में डूबी 
बस्ती कहारों की

कमर से आ झुकी 
नाइन पूछती 
जल रही वो आग
कैसे बुझ गई ?


राघवेन्द्र तिवारी

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