शुक्रवार, 30 जून 2023

डॉ. अभिजीत देशमुख : लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते कदम 

               डॉ.अभिजीत देशमुख जी को सबसे पहले निकट से जानने का अवसर आज से यही कोई चार वर्षपूर्व होटल लेकव्यूह अशोका में, उनके जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित एक समारोह में हुआ था,जिसका आमन्त्रण मुझे इस आयोजन के मुख्य संयोजक सुबोध श्रीवास्तव जी के माध्यम से मिला था।
              इस अवसर पर डॉ साहब के उद्बोधन से कुछ ऐसे बिंदु उभरे जो मेरे लिए शोध का विषय थे, जिनका उत्तर खोजने में मुझे पूरे चार वर्ष लगे। मंथन और निष्कर्ष के बाद अब मैं यह कह सकता हूँ कि डॉ. देशमुख जी का उस दिन का उद्बोधन अपनी जगह सौ फीसदी सही था। जिस कथन में उन्होंने अपनी खुशियों को विशिष्ट मित्रों की बजाय साधारण मित्रों के साथ मिल बाँटकर साझा करने की बात स्वीकारी थी।
    डॉ अभिजीत देशमुख जी मूलतः महाराष्ट्र से आते हैं और इन दिनों मध्यप्रदेश की सक्रिय राजनीति से जुड़े हैं। उनका यह राजनैतिक जुड़ाव अनायास नहीं है। वे इस क्षेत्र में पूरी तैयारी और अनुभव के साथ यहाँ हैं। राजनीति राजनैतिक गुण उन्हें विरासत में मिले एक प्रश्न के उत्तर में वे अपने पॉलिटिकल बैकग्राउण्ड का जिक्र करते हुए अपने नाना जी को याद करते हैं जो वर्षों सांसद रहे। बात केवल ननिहाल पक्ष की नही उनकी चार-चार बुआ विधायक रही हैं। सार- संक्षेप में कहें तो मूल्य परक राजनीति से उनका जुड़ाव आरम्भ से है और वह अपने इस जुड़ाव का श्रेय अपने नाना जी को देते हैं। 
                 महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश के छोटे से कस्बे शुजालपुर तक आते-आते बालक अभिजीत ने अपनी जीवन यात्रा के अनेक पड़ावों को पार किया और शुजालपुर के वातावरण माता-पिता के संस्कार आशीर्वाद ने उन्हें एक सफल शल्य चिकित्सक बना दिया। चिकित्सक बनने की प्रेरणा उन्हें अपने गृहनगर शुजालपुर में ही उनके एक पड़ोसी चिकित्सक से मिली जिनके यहाँ सैकड़ों की संख्या में बैलगाड़ियाँ कतारबद्ध मरीजों को लेकर डॉ साहब को दिखाने आया करती । उस भीड़ में कुछेक ऐसे भी होते जिनके हिस्से में केबल निराशा ही आया करती। 
           उस नैराश्य भाव को बालक अभिजीत ने ध्यान से पढ़ा और एक सेवाभावी चिकित्सक बनने का दृढ़ संकल्प संजोया। बचपन में संजोए स्वप्न और परिकल्पना को आज डॉ. अभिजीत देशमुख चिकित्सा केम्पों के माध्यम से मूर्तरूप दे रहे हैं। निःशुल्क चिकित्सा केम्पों का अच्छा खासा डाटा उनके समकालीन चिकित्सकों को स्पृहणीय है।
      डॉ.अभिजीत देशमुख जी इन दिनों बीजेपी चिकित्सा प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक हैं। प्रदेश की राजनीति में उनका खासा दखल भी है। एक अन्य प्रश्न के पूरक उत्तर में वे भारत के यशस्वी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी की आयुष्मान योजना को स्वयं का देखा स्वप्न मानते हैं। साथ ही ऐसी अनेक योजनाएं लेकर आना चाहते हैं जिनका सीधा जुड़ाव आम जनता से हो, जो धन के अभाव में अपना बेहतर इलाज़ नहीं करा पाते।
  
          मौत के मुँह से जीवन को खींच लाने वाले डॉ. अभिजीत देशमुख जी वर्तमान में अपनी पैथी के अत्यंत सफल शल्य चिकित्सक हैं। एक वार्ता में जब हमनें उनके संवेदनशील मन को छूने की कोशिश की तब उन्होंने एक ऐसी कॉम्प्लीकेटेड सर्जरी (लेप्रोटोमी) का जिक्र किया अत्यधिक रक्तस्राव के कारण असम्भव को सम्भव कर दिखाया। 
       हर सफल ऑपरेशन उन्हें अलौकिक सुख देता है। उनका कहना है कि हम चिकित्सक पूरी तरह रोगी के सुख दुख से स्वाभाविक जुड़ जाते हैं।  डॉ.अभिजीत देशमुख जी जीवन का पूरा आनन्द लेते हैं जब वह ऑपरेशन थियेटर में होते हैं तो राजनीति को बाहर छोड़ देते हैं और जब राजनैतिक भूमिका में होते हैं तब अपने मिशन से ऊपर उस पेशेंट के जीवन को रखते हैं जो उन्हें उस समय पुकार रहा होता है।
                   आज की तिथि में डॉ देशमुख जी जैसे मूल्यपरक नेताओं का राजनीति की बड़ी भूमिकाओं के सम्यक निर्वहन के लिए स्वागत होना चाहिए ।
                डॉ.अभिजीत देशमुख जी की तुलना डॉ बीसी रॉय जी से की जा सकती है जो मरीज को हजारों की भीड़ में भी पहचान लेते थे। डॉक्टर्स समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डॉक्टरों के जीवन में कई बार ऐसे अवसर भी आते हैं, जब उन्हें अपनी खुशियाँ त्याग कर अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
डॉ अभिजीत देशमुख जी के बहाने मैं सभी डॉक्टर्स को आज के विशेष दिन की शुभकामनाएं देता हूँ।
हैप्पी डॉक्टर्स डे
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मनोज जैन
106,
बिट्ठलनगर नगर गुफामन्दिर रोड 
भोपाल
462030


मंगलवार, 20 जून 2023

कविता पोस्टर


आज किसी से
____________

आज किसी से 
मिलकर
यह मन जी भर बतियाया।

लगा कि जैसे
हमने
अपने ईश्वर को पाया।

स्वप्न गगन में मन का पंछी
उड़ता,चला गया।
बतरस के,अपनेपन से, 
मन,जुड़ता चला गया।

लगा कि जैसे किसी
परी ने,
गीत नया गाया।

एक पहर में,कसम उठा ली,
युग जी लेने की।
पीड़ा का विष मिले जहाँ
मिल-जुल पी लेने की।

उमड़ा प्रेमिल भाव 
परस्पर 
पल-पल गहराया।    

सन्दर्भों से जुड़े देर तक
कहाँ-कहाँ घूमे।
मेहँदी रची हथेली छूकर 
मन अपना झूमे।

मोहक मुस्कानों का 
मन को 
पर्व बहुत भाया।
                                                 
आज किसी से 
मिलकर
यह मन जी भर बतियाया।

मनोज जैन
________
पोस्टर 

पोस्टर

गुरुवार, 15 जून 2023

सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन

       


सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ -  आलेख मनोज जैन

इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।

               हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है। आजकल हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सुबोध जी ने ही मेरे इनबॉक्स में भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। फिर क्या अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा। 

 सुबोध जी वैसे तो सभी के सन्देशों की परवाह करते हैं और उनका रिप्लाई भी। पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने,और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोध जी को डॉ.अभिजीत देशमुख जी द्वारा दिए गये नाम से सम्बोधित करें तो "सुबोधानन्द जी" ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।  

                  इन दिनों सुबोध श्रीवास्तव जी डॉ.अभिजीत देशमुख जी के सेवा प्रकल्पों से जुड़कर समाज सेवा और राजनीति के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। हम दोनों का सोच कृतज्ञता और कृतज्ञभाव के मामले में आरम्भ से ही एक जैसा रहा है। हम लोग कणभर के बदले मनभर और मनभर के बदले टनभर लौटाने में भरोसा रखते हैं। 

            सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।

  लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं। 

       मित्र, सुबोध जी की  शाही टीम में इक्का, बादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को खेलने में महारत हासिल है।

खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द  का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं। वे ताश के पत्तों से खेलते हैं पर कभी किसी के जज्बातों से नहीं !हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर  अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है। और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।

He holds him with his glittering eye....

                                 यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं। ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं। 

                       कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये।  इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।

           माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। सुबोध जी राजसी अंदाज़ में मित्रों का दरबार सजाने की आदत में है। बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। वह किसी राजा की तरह अपनी मण्डली में मित्रों से मंत्रणा करते हैं और उन्हें नवरत्न संज्ञा देते हैं।      

       प्रकारान्तर से कहें तो सुबोध जी अपने मित्रों के छिपे टैलेंट को पहचानकर उनकी प्रतिभा को निरन्तर निखारते है।

       इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, उन्हें प्रकृति की सुंदरता  घण्टो को निहारना पसन्द है। पानी के साथ अठखेलियाँ करना, वृक्षों पर मंकी क्लाइम्बिंग सहित नेचर से जुड़ीं बहुत छोटी बड़ी बातें उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। वह अपने सर्किल में, अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; लिव विथ नेचर का जरूरी सन्देश देने वाले परम मित्र जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से अपने मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।

               मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं। 

             कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।

                       मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !

"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"

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लेखक परिचय



जन्म २५ दिसंबर १९७५ को शिवपुरी मध्य प्रदेश में।

शिक्षा- अँग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
प्रकाशित कृतियाँ- दो नवगीत संग्रह

1. एक बूंद हम (नवगीत संग्रह)

2. धूप भरकर मुठ्ठियों में (नवगीत संग्रह)

पत्र-पत्रिकाओं आकाशवाणी व दूरदर्शन पर रचनाएँ प्रकाशित प्रसारित। निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित "नवगीत नई दस्तकें" तथा वीरेन्द्र जैन द्वारा संपादित "धार पर हम (दो)" में संकलित। एक कविता संग्रह

पुरस्कार सम्मान-
मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक नागरिक सम्मान २००९, म.प्र.लेखक संघ का रामपूजन मिलक नवोदित गीतकार सम्मान 'प्रथम' २०१०,अ.भा.भाषा साहित्य सम्मेलन का सहित्यप्रेमी सम्मान-२०१०, साहित्य सागर का राष्ट्रीय नटवर गीतकार सम्मान- २०११ सहित अनेक सम्मान
संप्रति-
सीगल लैब इंडिया प्रा. लि. में मैनेजर
______________________________________
ईमेल- manojjainmadhur25@gmail.com

पता

मनोज जैन

106,

विट्ठलनगर, गुफामन्दिर रोड 

भोपाल

9301337806


सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन


सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ -  आलेख मनोज जैन


       इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।
               हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है, इन दिनों हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सबोध जी ने भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा। 

                      मेरे आत्मीय मित्र सुबोध जी को             दुनियाभर के सन्देशों की परवाह हो या ना हो यह मैं नहीं जानता , पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने, और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोधानन्द जी ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। 

                    सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।  

सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।

  लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं। 

       मित्र, सुबोध जी की टीम में इक्का, वादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को बख़ूबी खेलना आता है।

खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द  का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं वे ताश के पत्तों से खेलते हैं कभी किसी के जज्बातों से नहीं!

हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर  अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।

He holds him with his glittering eye - The Wedding-Guest stood still,And listens like a three years' child:The Mariner hath his will.

The Wedding-Guest sat on a stone:He cannot choose but hear;And thus spake on that ancient man,The bright-eyed Mariner.

यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं।

                    ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं। 

                       कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये।  इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।

           माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। अकबर की तरह उन्हें भी दरबार सजाने की आदत है।बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। 

अकबर के दरबार में नवरत्न थे। अकबर की तर्ज पर सुबोध जी भी अपने मित्रों के टैलेंट को पहचानते हैं और उन्हें रत्न की संज्ञा से नवाजते हैं। और उनकी प्रतिभा को निखारते है।

       इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, सुंदरता को निहारते हैं। अपने पूरे सर्किल में अकेले अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; और जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है,  इन्हीं गुणों के चलते  वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।।

               मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं। 

             कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।

                       मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !

"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"

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मनोज जैन

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106,

विट्ठलनगर, 

गुफामन्दिर रोड 

भोपाल

9301337806

मंगलवार, 13 जून 2023

सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन


जन्मदिन पर विशेष

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सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ 

मनोज जैन
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       इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।
               हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है, इन दिनों हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सबोध जी ने भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा। 

                      मेरे आत्मीय मित्र सुबोध जी को             दुनियाभर के सन्देशों की परवाह हो या ना हो यह मैं नहीं जानता , पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने, और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोधानन्द जी ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। 

                    सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।  

सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।

  लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं। 

       मित्र, सुबोध जी की टीम में इक्का, वादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को बख़ूबी खेलना आता है।

खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द  का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं वे ताश के पत्तों से खेलते हैं कभी किसी के जज्बातों से नहीं!

हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर  अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।

He holds him with his glittering eye....

यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं।

                    ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं। 

                       कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये।  इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।

           माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। सुबोध जी राजसी अंदाज़ में मित्रों का दरबार सजाने की आदत में है। बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। वह किसी राजा की तरह अपनी मण्डली में मित्रों से मंत्रणा करते हैं और उन्हें नवरत्न संज्ञा देते हैं।प्रकारान्तर से कहें तो सुबोध जी भी अपने मित्रों के टैलेंट को पहचानते हैं। उनकी प्रतिभा को निखारते है।

       इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, उन्हें प्रकृति की सुंदरता  घण्टो को निहारना पसन्द है। पानी के साथ अठखेलियाँ करना, वृक्षों पर मंकी क्लाइम्बिंग सहित नेचर से जुड़ीं बहुत छोटी बड़ी बातें उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। वह अपने सर्किल में, अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; लिव विथ नेचर का जरूरी सन्देश देने वाले परम मित्र जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से अपने मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।

               मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं। 

             कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।

                       मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !

"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"

__________________________

मनोज जैन

________

106,

विट्ठलनगर, 

गुफामन्दिर रोड 

भोपाल

9301337806


        




रविवार, 11 जून 2023

डॉ.विनय भदौरिया जी के नवगीत प्रस्तुति: वागर्थ ब्लॉग

डॉ.विनय भदौरिया जी के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ ब्लॉग

एक
____

मजदूर
                
सुख -सुविधाओं से
वंचित हैं 
दूर हैं।
क्यों कि -
लिखा खातों मे
हम मज़दूर हैं।

पाँव हमारे ही
बिजली के खम्भे हैं,
तार नही ये-
मेरी खिंची अतड़ियाँ हैं।
बल्ब नही ये-
मेरी आँखे टँगी हुई,
हम से रूठी हुई
भाग्य की लड़ियाँ है।

अन्धकार-
जीने में हम
मशहूर हैं।

होकर विनत कभी-
जब माँगा पोखर ने,
अपने हक़ व हिस्से
वाला मीठा जल।
तब प्यासे ओंठो को-
तुमने सौंप दिया
तत्क्षण ही तपती
रेती वाला मरुथल।

कर लो-
अत्याचार कि
हम मज़बूर हैं।

सहन शक्ति की-
सीमा की भी सीमा है,
ज़रा ग़ौर से देखो
इन वैलूनो को।
खडा़ हुआ है वक़्त -
तान कर मुट्ठी फिर,
सबक सिखायेगा
सब अफलातूनो को।

छैनी-
पत्थर को
कर देती चूर है।

दो

     अँजुरी भर-प्यास लिए  

सागर के पास गया।
पता लगा-
सागर ही
सागर भर प्यासा  है।

पोखर सब तालों को
ताल  सभी नालों  को
नाले सब नदियों को
जी भर कर दान करें,
नदियाँ  भी ख़ुद जाकर
 सागर को सौंप रहीं
बिना किसी लालच  के
प्रति पल सम्मान करें

जिनके-जिनके 
बलपर ,है-
धन्नासेठ बना,
समझ रहा
उनको ही
आज वह तमाशा है।

पोखर से नालों  तक
वाजिब कर ले नदियाँ
अपने दायित्व सदा 
बेहचिक निभाती हैं
ये अगाध जल वाला
कोष जो सुरक्षित है
 समझ रहा है सागर
बप्पा की थाती है।

धरती के
स्रोत सभी
हो जाते जब दम्भी
तब जन-मन  
बादल से 
करता प्रत्याशा है।

तीन

नदिया के पानी मे
मगरों का कब्जा है,
मर रहीं 
मछलियाँ है प्यासी।
किन्तु उन्हे
आती  है हाँसी।

चापलूस घड़ियालों ने
ऐसा भरमाया।
सब कुछ उल्टा -पुल्टा 
दरपन मे दिखलाया।

पलते -पलते 
बढकर
अब तो 
छय रोग हुआ
कल तक थी जो 
हल्की खाँसी।।

कउवों व बगुलों के
आपस मे समझौते।
बेचारे हंस आज
क़िस्मत पर हैं रोते।

धारा धारा  भँवरें
दहशत
जीती लहरें,
चेहरों में 
है उगी उदासी।

असली सिक्के समस्त
हैं गा़यब हाट से।
सब नकली सिक्के ही
काबिज हैं ठाट से।

हैं कुत्ते -
हउहाते
और बाघ घिघियाते,
बाते हैं 
केवल आकाशी।

चार

बड़ा पुराना बरगद

गाँव किनारे-
बाईपास निकलने
वाला  है,
बड़ा पुराना-
बरगद जिसमे जाने
वाला है।

झूले हैं चरवाहे  हरदम
जिसकी पकड़  बरोही
जिसके नीचे सँहिताते हैं
हारे-थके बटोही,

सड़कों का संजाल-
काल बन खाने
वाला है।

जिसको पूज  सुहागिन
पति की आयु बढाती हैं
पीढ़ी-दर-पीढी़ श्रद्धा-
का पाठ पढा़ती हैं।

जे.सी.बी.
इस ऋषि को-
मार गिराने  वाला है।

साँझ सकारे  जब मित्रों के
साथ उधर हम जाते,
भूतों का आवास बताकर
बाबा हमे डराते।

दुर्घटनाओं का-
ख़तरा
मड़राने वाला है।

भाँति-भाँति के पक्षी
जिसमे करते रैन  बसेरा,
उल्टा लटके  चमगादड़़
गिद्धों-कउवों  का डेरा।

भवन सामुदायिक
मे मातम  छाने
वाला है।

गाँव हमारे जब बरात-
सँग हाथी  आते हैं
धजा चीर , पत्ते खाकर के
क्षुधा मिटाते हैं।

उपकारी का
'मर्डर '  दिल दहलाने
वाला है।
           विनय भदौरिया
साकेत नगर लालगंज 
राय बरेली( उ.प्र.) 229206
मोबाइल नंबर 9450060729

शनिवार, 3 जून 2023

वागर्थ में आज

गरिमा  सक्सेना के गीत-अनुभूति के नए आयाम
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विगत दिनों गरिमा सक्सेना के दो नवगीत,वागर्थ के पटल पर पढ़े थे,उनके तीन और नवगीत पढ़ने में आये।फौरी तौर पर यह टिप्पणी जायज है कि युवा कवियत्री में नए बिम्बो के साथ,नये विषयों के अनुसंधान की अद्भुत क्षमता है।
प्रसंगवश यह लिखना जरूरी है कि लोगों की आम धारणा है कि जो हिंदी से स्नातकोत्तर है और डॉक्टरेट है,वही हिंदी में लिखता है।इस भ्रांत धारणा के उलट स्तिथी यह है कि बच्चन जी और रघुपति सहाय फिराक इंग्लिश के प्रोफेसर थे किन्तु  उन्होंने क्रमशः हिंदी और उर्दू साहित्य को समृद्ध किया।कवि धर्मेंद्र सज्जन,कवियत्री अंकिता सिंह और खुद गरिमा सक्सेना भी विज्ञान विषय में उच्च शिक्षित है किंतु हिंदी मंच पर शोभित हैं।निष्कर्ष यह है कि जीविका के संसाधन और भावों का प्रस्फुटन दो अलग अलग बातें हैं।
इस आलेख में उनके तीन गीतों पर चर्चा करते हुए,ये कहना उचित होगा कि वे नए विषय के अनुसंधान में निपुण हैं।
उदाहरण के लिए उनके गीत "कब उजियारा आयेगा" में,स्त्री 
विमर्श की बात बहुत बारीक संकेत में कही गयी है।गीत के प्रथम चरण में तो सरल सा स्त्री विमर्श का आख्यान लगता है किन्तु आगे बढ़ते ही वह पूरी जिम्मेदारी से Domestic violence को नए अंदाज में पेश करता है।इसलिये, यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसी सशक्त और संवेदनशील चेतना केवल कल्पना के आधार पर नहीं हो सकती।
दूसरा गीत,"प्यारे लगते ही तुम जैसे, एक अवध की शाम"
पति-पत्नी के प्रेम का परंपरागत गीत है किन्तु इसके नये बिम्ब विधान मन को रोमांचित करते हैं।इस दृश्य पर कई कवियों ने लिखा है।ऐसे गीतों की प्रथम और अंतिम शर्त यही है कि शब्दों और भावों की सरलता बनी रहे क्योंकि ऐसे गीतों में क्लिष्ट शब्दों या अलंकारों का प्रयोग, कथ्य में बनावटीपन भर देता है।कवियत्री ने उसी सरल धरातल पर अपनी भाव व्यंजना को रखा है।
और अंत मे तीसरा और अंतिम गीत "प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल दिल का हर पन्ना खोला था" इस गीत में शब्द चातुर्य से जो व्यक्त किया गया है वह हृदय को न केवल रोमांचित करता है बल्कि साठ के दशक की किसी पुरानी क्लासिक फ़िल्म के नायक,नायिका के मिलन के दृश्य को जीवित कर देता है।रेशमी भावों के साथ शाब्दिक कुशलता से प्रथम मिलन का जो दृश्य निर्मित किया गया है,वह अद्भुत है।
पुनर्पाठ के रूप में उनके पूर्व में प्रकाशित नवगीत भी अंत मे हैं।
गरिमा सक्सेना, विषयों से समृद्ध हैं और गीतों का शिल्प भी नवगीत दायरे से बाहर नहीं जाता।

(एक)
कब उजियारा आयेगा

कई उलझनें खोंप रखी हैं
जूड़े में पिन से 
कब उजियारा आयेगा
वह पूछ रही दिन से 

तेज़ आँच पर रोज़
उफनते भाव पतीले से
रस्सी पर अरमान पड़े हैं
गीले- सीले से
जली रोटियाँ भारी पड़तीं
जलते जख़्मों पर
घर तो रखा सँजोकर
लेकिन मन बिखरा भीतर
काजल, बिंदी, लाली, पल्लू
घाव छिपाते हैं
अभिनय करते होंठ बिना
मतलब मुस्काते हैं
कई झूठ बोले जाते हैं
सखी पड़ोसिन से

छुट्टी या रविवार नहीं 
आते कैलेंडर में
दिखा नहीं सकती थकान
लेकिन अपने स्वर में
देख विवशता, बरतन भी
आवाजें करते हैं
परदे झट आगे आ जाते 
वो भी डरते हैं
डाँट-डपट से उम्मीदें हर 
शाम बिखरती हैं
दीवारें भी बतियाती हैं
चुगली करती हैं
रात हमेशा तुलना करती
रही डस्टबिन से.
(दो)

प्यारे लगते हो तुम जैसे
एक अवध की शाम
आँखें लगतीं भूलभुलैयाँ
बोल दशहरी आम

साथ तुम्हारे चलने से
रंगीन हुई परछाई
सभी दिशाओं में गुंजित अब
खुशियों की शहनाई
जबसे मिले मुझे तुम मुझ पर 
रंग नवाबी छाया
सर्वनाम मैं, 'हम' में बदला 
बदला जब उपनाम 

फिल्मी बातें नहीं प्यार यह
एक हकीकत है
मुझको साँसों से भी ज्यादा 
इसकी कीमत है
धड़कन में संगीत घुल गया
गीत हुई हैं साँसें
गाती रहतीं केवल तुमको 
बनकर यह खय्याम

एक तुम्हारी कहलाने का
मुझे मिला शुभअवसर
मान संग अभिमान बढ़ा है 
प्रियवर तुमको पाकर
हृदय तुम्हारा पावन मंदिर
दीप ज्योत जैसी मैं
आलोकित कर पाऊँ तुमको
चाहूँ आठों याम।
(तीन)

प्रिये तुम्हारी आँखों ने

प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल
दिल का हर पन्ना खोला था

दिल से दिल के संदेशे सब
होठों से तुमने लौटाये
प्रेम सिंधु में उठी लहर जो
कब तक रोके से रुक पाये

लेकिन मुझसे छिपा न पाये
रंग प्यार ने जो घोला था

उल्टी पुस्तक के पीछे से
खेली लुका-छिपी आँखों ने
पल में कई उड़ानें भर लीं
चंचल सी मन की पाँखों ने

मैने भी तुमको मन ही मन
अपनी आँखों से तोला था

नज़रों के टकराने भर से
चेहरे का जयपुर बन जाना
बहुत क्यूट था सच कहती हूँ
जानबूझ मुझसे टकराना

कितना कुछ कहना था तुमको
लेकिन बस साॅरी बोला था।

(चार)
आज सुबह से
गुड़िया का मुखड़ा
उदास है

गुड़िया, गुड़िया
को सीने से
लिपटायी है
भींच रही
मुठ्ठी अंदर से
घबरायी है

स्मृतियों ने
पहन लिया 
डर का लिबास है

छुवन-छुवन 
का अंतर
उसको
समझ आ रहा
बार-बार 
उसका घर
आना 
नहीं भा रहा 

डर से दूर
कहाँ जाए
डर आसपास है

सोच रही है
मम्मी को
सबकुछ 
बतला दूँ
एक चोट
भीतर है 
उसको भी
दिखला दूँ

पर क्या बोले
इस घर में वह
बड़ा खास है.
(पाँच)
हम पीपल हैं 
वनतुलसी हैं 
बार- बार उग ही आयेंगे

जंगल हो या 
कंकरीट वन
उपवन या फिर 
कोई निर्जन
कोई पाँव 
उखाड़े चाहें
जिजीविषा से 
हम जाते तन

बिना खाद,
पानी के उगकर
जीवटता से लहरायेंगे

चाहे धूप 
कड़ी हो तन पर
या भीषण 
वर्षा का हो डर
हमने हर मौसम 
स्वीकारा
जीवित रक्खा 
साँसों का स्वर

अपनी जड़ पर 
हमें भरोसा
हाथ नहीं हम फैलायेंगे

जीते आये 
देश बदलकर 
जीवन औ 
परिवेश बदलकर 
सिर्फ़ स्वार्थ ने
अपनाया है
ठगे गये हैं 
भेष बदलकर 

हम श्रम का
पर्याय रहे हैं
निश्चित है हम फिर छायेंगे।