भारतीय परिवेश और सांस्कृतिक बोध के गीतों का अनूठा दस्तावेज:
गीतों के भी घर होते हैं
मनोज जैन
पीतल नगरी मुरादाबाद के प्रख्यात व्यंग्यकार डॉक्टर मक्खन मुरादाबादी जी से मेरा परिचय ना तो नया है और ना ही बहुत पुराना। पर हाँ, कम समय में, मैंने उनके संवेदनशील मन की अतल गहराई में डूबकर थाह जरूर ली है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े अनेक पहलुओं के आधार पर मैं यह बात अपनी तरफ से ठोक बजाकर कह सकता हूँ, कि दादा मक्खन मुरादाबादी जी बेहद सुलझे हुये और नेकदिल इंसान हैं। दादा से पहली ऑनलाइन क्रिया प्रतिक्रिया वाली भेंट समूह सञ्चालन के दौरान हुई थी जिसका जिक्र "गीतों के भी घर होते हैं" के प्राक्कथन,जो उन्होंने "बरस गए जो गीत" शीर्षक से लिखा है,में किया है। बात उन दिनों की है जब समूह वागर्थ अपनी पहचान पुख्ता कर चुका था और प्रस्तुतियाँ अपने चरम पर थीं। बहुत सारी टिप्पणियों में से मक्खन दादा की समग्र टिप्पणी प्रस्तुत रचनाकार के लिए बड़े महत्व की होती थीं। दादा की टिप्पणी निष्पक्ष रूप से रचनाकार की सराहना के साथ-साथ गुण और दोष पर सांकेतिक प्रकाश डालती थीं। दादा सत्साहित्य को सराहने वाली पीढ़ी की अगुआई करते हैं। प्रतिकूल स्वास्थ्य होने पर भी यह क्रम आज भी निर्बाध गति से जारी है। हाल ही में मेरा दादा की कृति "गीतों के भी घर होते हैं" के पूरे दो कम एक सौ गीतों से गुजरना हुआ। पूरे संग्रह के गीतों को यदि एक सूक्ति में बाँधना हो तो "सत्यम शिवम सुंदरम" की सूक्ति इस पूरे गीत संग्रह पर एक दम फिट है।
इस कृति का आरम्भ भारतीय परम्परानुसार मंगलाचरण से होता है मातु शारदे से वर मांगते हुए कवि लोकमंगल की कामना करते हुए लोक हित में देशवासियों के मङ्गल की मनोकामना शुभ भावों की अभिव्यक्ति से करते हैं। इस प्रार्थना की खास बात यह है कि वे स्वयं के कल्याण की मंगलकारी प्रार्थना सबके मंगल के पश्चयात करते हैं।
पंक्तियाँ देखें
"मातु शारदे! मातु शारदे
कर्तव्यों की समझ वार दे
इसे तारकर, उसे तार फिर
और बाद में मुझे तार दे"
मुझे यह कहने में जरा सी भी अतिश्योक्ति नहीं लगती कि इन पंक्तियों में कवि के यह भाव, सम्पूर्ण शास्त्रों का निचोड़ हैं। और पाठकों से अतिरिक्त विश्लेषण की माँग करते हैं यहाँ "बाद" शब्द पर गौर फरमाइए, ऐसी उदारता तो बड़े बड़े संतों के यहाँ भी दुर्लभ है। भारतीय संस्कृति हो या सांस्कृतिक विरासत या फिर हमारी शाश्वत परम्पराएं या मान्यताएँ , कवि ने अपने कविधर्म का सम्यक निर्वहन करते हुए आपने गीतों में सांस्कृतिक बोध और अपनी सनातन ज्ञान परम्परा को समेटने की सफल कोशिश की है। कवि अपने समय को याद करते हैं,जहाँ हमारे पूर्वजों ने हमें एक भरापूरा सांस्कृतिक वैभव, विरासत में सौंपा था। नैतिकता हमारे संस्कारों में रची-बसी थी।
प्रकारान्तर से कहें तो मूल्यपरक संस्कार हमारे जीवन की सबसे बढ़ी पूँजी थी। कवि जब अपने देश की युवा पीढ़ी को पाश्चात्य सँस्कृति का खोखला अंधानुकरण करते देखता है, तो उसका मन पीड़ा से भर उठता है। तभी तो वह एक गीत " जिनका करना था नित पूजन " शीर्षक में अपने मन की बात बोझिल मन से कह उठते हैं; द्रष्टव्य हैं गीत की चुनिंदा पंक्तियाँ
"मिटा रहे हैं हम उनको ही /
जिनका करना था नित पूजन/
वृक्ष हमारे देव तुल्य हैं/
इसमें बसी हमारी सांसें/
हमको कैसे जीवन दें ये/
रोज कटन को अपनी खाँसें/
हवस हमारी खा बैठी है/
हर पंछी का कलरव कूजन।"
पूरे संग्रह में विविध विषयों पर कुल जमा दो कम सौ गीत हैं। गीतकार की दृष्टि पैनी है वह अपने पाठकों को कभी अपने गाँव तो कभी तहसील की सैर कराते हैं तो कभी भावों के कैनवास पर शब्दों के रंग से प्रकृति के सुंदर चित्र उकेरते हैं।
दार्शिनिक अनुभूतियों के गीत प्रभावी बन पड़े हैं पिता पर केंद्रित नवगीत
"थककर पिता हमारे"
गीत में कवि जहाँ अनेक कोणों से पिता के महत्व के कई कई कोण खींचता है। इस गीत की विशेषता यह भी है यह हमें इह लोक से परलोक तक कि उर्ध्वगामी यात्रा के शुभ संकेत का बोध कराता है। देखें उनके गीत की कुछ पंक्तियाँ;
" इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता
इस पर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर पिता हमारे।"
मक्ख़न जी अपने गीतों में कथ्य का दमदार चुनाव करते हैं और छंदशास्त्र की कसौटी पर कसते हैं। उनके चिंतन में आम आदमी की संवेदना हैं। अपने समय पर पैनी नज़र है। एक अपनी पसन्द के गीत से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा। इस गीत में कवि ने मन को छू लेने वाली बात बहुत सहजता से कही है। समय तेजी से बदल रहा है संवेदनाएँ छीज रही हैं। नज़दीक रहते हुए भी लोगों के मनों में मीलों की दूरियाँ आ बसी हैं। ऐसे समय में दादा मक्ख़न मुरादाबादी जी के गीत का रचाव बरबस ध्यान खींचता है।
द्रष्टव्य हैं उनके गीत का एक अंश;
"ठहर सतह पर रुक मत जाना
मन से मन को छूना
भीतर-भीतर बजती रहती
कोई पायल मुझमें
प्रेम-परिंदा घर कर बैठा
होकर घायल मुझमें
परस भाव से अपने पन के
पन से पन को छूना"
हम भी इस परस के अपने पन के भाव में आकंठ डूबे रहें। दादा शतायु हों और ऐसे ही भारतीय परिवेश और सांस्कृतिक बोध के अनूठे नवगीत रचते रहें।
मनोज जैन
संचालक वागर्थ साहित्यिक समूह
106
विट्ठलनगर गुफ़ामन्दिर रोड
लालघाटी भोपाल
462030
9301337806
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें