रविवार, 3 नवंबर 2024

स्व जितेन्द्र बजाड़ के चार नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ


स्व. जितेन्द्र शंकर 'बजाड़' जी के चार नवगीत
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    प्रस्तुति
~।।वागर्थ।।~
                              आप शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त अध्यापक थे। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी और राजस्थानी भाषा की सैंकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई। बालकों के मनोविज्ञान से जुड़े साहित्य की आपको बहुत अच्छी समझ थी । 
            बालगीत, दोहे,छंद,कहानी,ललित निबंध, साहित्यिक गीत,साक्षरता, फिल्म लेख आदि आप निरंतर लिखते रहे। साहित्य की तकरीबन हर एक विधा में आपने लेखन किया और जन-जन के लोकप्रिय व्यक्ति बने। कुछ वर्षों तक मंचों पर भी काव्यपाठ किया ।    
                आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से भी आपकी रचनाएँ समय-समय पर प्रसारित होती रही ।

1.

मैं कवि हूँ  मैं समय के पार देखूँगा 
अंधेरे में पल रहा उजियार देखूँगा 

रात चिड़िया चहकने पर 
जी नहीं सकती 
यह अमावस उजाले को 
पी नहीं सकती 

राह में कई खाइयाँ है
बढ़ती हुई परछाइयाँ है 
मगर फिर भी मैं सुबह का द्वार देखूँगा 

ऐ ! किरण के वंशधर को 
टोकने वाले 
है बता तू कौन मुझको
रोकने वाले 

दीपक नहीं मशाल हूँ मैं 
अंधेरे का काल हूँ मैं 
आज से हरपल मैं तेरी हार देखूँगा 

अरे दानव तू ऋषि की 
साधना मत भंग कर 
रोक कविता के कदम मत
राह यूँ न तंग कर 

भागीरथी सरिता है जैसे 
रश्मिरथी कविता है वैसे 
कलम की आंखों से नव संसार देखूँगा 

2.

तुम ने डाला रंग देह पर 
भीग गया भीतर तक मनुवा 

वासंती इठलाती अखियाँ
फगुना कर कुछ हँसी लजाई
सुधियों में अनगिन सतरंगी 
छवियाँ फिर से आ बौराई 

तुम ने गाया गीत गंध का
गूँजा सप्तम स्वर तक मनुवा 

आस लिए सपने उठ जागे 
काँप उठे फिर अधर कली से 
जब भी निकली फागुन गाती 
रंग खेलती भीड़ गली से 

तुमने चाहा चुप-चुप रहना 
बात पहुँच गई घर तक मनुवा

3.

आओ थोड़ी जंग खरोंचे 
कुन्द हो रही अपनी सोचें 

पाँच साल तक तू - तू मैं -मैं 
वाली एक राष्ट्रीय खिल्ली 
सुनने की आदी बन बैठी 
बरसों से बेचारी दिल्ली 

और आँकड़ों मे उलझे हम
अपने नाक कान मुँह नोचें 

ठुमक-ठुमक कर नाच रहे हैं 
कल तक जो थे लँगड़े लूले 
बन ठन कर बैठे सदनों में 
गलियारों मे फिरते फूले 

कुल्हे कमर मटकते सबके 
ठीक हुई टखनों की मोचें 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजाघर और
गुरुद्वारों की इस बस्ती में 
कौए चील गिद्ध बगुले हैं 
बैठे पेड़ों पर मस्ती में 

और ठूंठ से रगड़-रगड़ कर 
पैनी करते अपनी चोंचें 

4.

आओ कोई सपना साधें 
कोई गीत लिखें
व्यथा प्रीत की कथा गीत की 
आ मनमीत लिखें 

बाँचे ढाई अक्षर पलछिन-
दिनों-महीनों-बरसों
नागफनी भी ऐसे सींचें 
जैसे पीली सरसों 

बिसराये अधरों को आँखों 
से प्रीत लिखें 

सुख की दुख की जड़ चेतन की 
परिभाषाएँ हैं 
तेरी मेरी सबकी अनगिन 
अभिलाषाएँ हैं 

अपनी और पराई तजकर 
नूतन रीत लिखें 

हारे मन का हार परायो 
को पहना दें
बांधे उर के छोर भोर सी 
मीठी यादें 

हार सकल संसार 
पलभर की जीत लिखें

परिचय

स्व. जितेंद्र शंकर बजाड़

जन्म-2 नवंबर 1957
मंदसौर जिले के नारायणगढ़ गाँव में
मृत्यु-8 सितंबर 2020
चित्तौड़गढ़ जिले के बिछोर गाँव में 

माता-बरजी देवी
पिता-प्यारे लाल गुर्जर