#सोनहँसी_हँसते_हैं_लोग_हँस_हँसकर_डसते_हैं_लोग
~।। वागर्थ ।। ~
में आज प्रस्तुत हैं नवगीत के उन्नायक शंभुनाथ सिंह जी के नवगीत
शंभुनाथ सिंह जी का जन्म १७ जून १९१६ को गाँव रावतपुर जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश में हुआ । वे नवगीत के प्रतिष्ठापक और प्रगतिशील कवि माने जाते हैं । उनका नवगीत पर अविस्मरणीय योगदान नवगीत दशक १,२,३ व ’नवगीत अर्द्धशती’ का सम्पादन है।
शंभुनाथ जी का शंभुनाथ हो जाने का आधार उनका नवगीत विधा पर किया गया कार्य रहा । उनका नवगीत पर किया गया कार्य मानक बना ।
.डॉ शंभुनाथ सिंह जी के बारे में यह बात जग जाहिर है कि चयन के मामले में वह दुविधा के शिकार रहे , शंभुनाथ जी को उपनाम से कुछ असहजता थी हो सकता यह उनकी अपनी रणनीति एवम सूझबूझ का हिस्सा ही हो, अतः कुछ नवगीतकारों के नाम में उपनाम होना भी नवगीत दशक में शामिल न हो पाने का कारण एक बड़ा कारण बना और उनकी इस ज़िद के चलते उस समय के अनेक प्रतिभाशाली नवगीतकार या तो छोड़ दिये गए या वे स्वयं शामिल नहीं हुए ।
वैसे भी संपादक का कार्य आसान नहीं होता , उसकी अपनी दुश्वारियाँ होती हैं , ऐसा लगभग हर संपादन में होता है कि कुछ वांछित क़लमें रह जाती हैं ,कारण वैयक्तिक से लेकर वैचारिक कुछ भी रहें ।
जैसा कि शंभुनाथ जी नवगीत दशक १ की भूमिका में लिखते हैं " कि नवगीत आन्दोलन नहीं है , इसी कारण वह उत्तरोत्तर विकसित होता गया है , नई कविता और नवगीत दोनों में ही एक समान प्रवृत्ति है जिसने कभी दोनों को जोड़ा था वह है आधुनिकता की प्रवृत्ति , जो तब तक नहीं मरेगी जब तक आधुनिकता का बोध मानव के भीतर रहेगा ...नवगीत ही नहीं प्रत्येक काव्य विधा के दो रूप सदा से रहते आए हैं पारंपरिक और रूढ़ रूप तथा नवता एवं मौलिकता वाला रूप "
उनके ही कथन के निकष पर कहूँ तो उनके नवगीत बौद्धिक चेतना से संपृक्त मौलिकता से लबरेज़ हैं , उनका गीतकार मानव जीवन की अधुनातन विसंगतियों पर प्रभावशाली चित्र अंकित करने में सर्वथा समर्थ है ।
यदि सारे किन्तु परन्तु परे रखकर बात की जाए तो उनके पास नवगीत को लेकर समग्र दृष्टि थी , उनके नवगीत का शिल्प , विषयवस्तु व प्रासंगिकता इसकी पुष्टि करते हैं ।
शंभुनाथ जी युगांतरकारी कवि हुए , नवगीत को स्थापित करने हेतु वह अपने अवदान से एक बड़ी लकीर खींच गए , उनके साहित्य व साहित्यिक योगदान को कुछ शब्दों में समेटा नहीं जा सकता ।
क्या चिन्हित किया जाए क्या छोड़ दिया जाए ....
वैसे तो हमारी दृष्टि के सामने से उनके जितने गीत गुजरे सभी चित्त बाँध लेने वाले थे , वागर्थ हेतु चयन करते समय निर्ममता से कुछ गीत हटाने पड़े । पोस्ट संपादित करने के क्रम में सातवें गीत से फिर गुजरी और सोचने को विवश हुई कि सच ही कहा गया है कि निर्माण में समय लगता है विध्वंस पलक झपकते होता है , फिर वह चाहे मानवीय संबंध हों , भूखण्ड हों , सभ्यता हो या रियासतें । इसी दृष्टि का शंभुनाथ जी का एक गीत का गीतांश अचानक सचेत कर जाता है कि हम कर क्या रहे हैं और हमें करना क्या है ...
उत्खनन किया है मैंने
गहराई तक अतीत का ।
कब्रों में ठठरियाँ मिलीं
टूटे उजड़े भवन मिले
मिट्टी में ब्याज मिल गए
पर न कहीं मूलधन मिले
आदमी मिला कहीं नहीं
जीवित साक्षी व्यतीत का ।
मिट्टी के खिलौने मिले
विचित्र मृतभाण्ड भी मिले
सड़कों -चौराहों के बीच
हुए युद्ध-काण्ड भी मिले
कोई ध्वनि -खण्ड पर नहीं
मिला किसी बातचीत का ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सब अपने आपसी मतभेदों व मनभेदों को भुलाकर विगत पीढ़ी के बेहतर किए हुए को आत्मसात करें व आगत पीढ़ी के लिए स्वस्थ्य वातावरण का निर्माण करें ।
प्रस्तुति
~।।वागर्थ ।।~
सम्पादक मण्डल
_________________________________________________
(१)
सोनहँसी हँसते हैं लोग
हँस-हँस कर डसते हैं लोग ।
रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से ।
नागफनी को बाहों में
हँस-हँस कर कसते हैं लोग ।
जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर ।
अपने ही बुने जाल में
हँस-हँस कर फँसते हैं लोग ।
चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में ।
भूतों के इन महलों में
हँस-हँस कर बसते हैं लोग ।
भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से ।
भीड़ों के इस दलदल में
हँस-हँस कर धँसते हैं लोग ।
वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग ।
अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
हँस-हँस कर ग्रसते हैं लोग ।
(२)
देश हैं हम
महज राजधानी नहीं ।
हम नगर थे कभी
खण्डहर हो गए,
जनपदों में बिखर
गाँव, घर हो गए,
हम ज़मीं पर लिखे
आसमाँ के तले
एक इतिहास जीवित,
कहानी नहीं ।
हम बदलते हुए भी
न बदले कभी
लड़खड़ाए कभी
और सँभले कभी
हम हज़ारों बरस से
जिसे जी रहे
ज़िन्दगी वह नई
या पुरानी नहीं ।
हम न जड़-बन्धनों को
सहन कर सके,
दास बनकर नहीं
अनुकरण कर सके,
बह रहा जो हमारी
रगों में अभी
वह ग़रम ख़ून है
लाल पानी नहीं ।
मोड़ सकती मगर
तोड़ सकती नहीं
हो सदी बीसवीं
या कि इक्कीसवीं
राह हमको दिखाती
परा वाक् है
दूरदर्शन कि
आकाशवाणी नहीं ।
(३)
समय की शिला पर
-----------------------
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।
किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।
शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।
भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाए, उषा ने सुलाए।
सुरभि की अनिल-पंख पर मोर भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिन्दु बनकर बिखर पर गए स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाए, लहर ने बहाए।
(४)
यों अँधेरा अभी पी रहा हूँ,
रोशनी के लिए जी रहा हूँ ।
एक अँधे कुएँ में पड़ा हूँ
पाँव पर किन्तु अपने खड़ा हूँ,
कह रहा मन कि क़द से कुएँ के
मैं यक़ीनन बहुत ही बड़ा हूँ ।
मौत के बाहुओं में बँधा भी
ज़िन्दगी के लिए जी रहा हूँ ।
ख़ौफ़ की एक दुनिया यहाँ है,
क़ैद की काँपती-सी हवा है,
सरसराहट भरी सनसनी का
ख़त्म होता नहीं सिलसिला है ।
साँप औ' बिच्छुओं से घिरा भी
आदमी के लिए जी रहा हूँ ।
तेज़ बदबू, सड़न और मैं हूँ,
हर तरफ़ है घुटन और मैं हूँ ।
हड्डियों, पसलियों, चीथड़ों का
सर्द वातावरण और मैं हूँ ।
यों अकेला नरक भोगता भी
मैं सभी के लिए जी रहा हूँ ।
सिर उठा धूल मैं झाड़ता हूँ
और जाले तने फाड़ता हूँ,
फिर दरारों भरे इस कुएँ में
दर्द की खूँटियाँ गाड़ता हूँ ।
चाँद के झूठ को जानता भी
चाँदनी के लिए जी रहा हूँ ।
(५)
एक मीनार उठती रही
एक मीनार ढहती रही
अनरुकी अनथकी सामने
यह नदी किन्तु बहती रही
पर्वतों में उतरती हुई
घाटियाँ पार करती हुई,
तोड़ती पत्थरों के क़िले
बीहड़ों से गुज़रती हुई,
चाँद से बात करती रही
सूर्य के घात सहती रही ।
धूप में झलमलाती हुई
छाँव में गुनगुनाती हुई,
पास सबको बुलाती हुई
प्यास सबकी बुझाती हुई,
ताप सबका मिटाती हुई
रेत में आप दहती रही ।
बारिशों में उबलती हुई
बस्तियों को निगलती हुई,
छोड़ती राह में केंचुलें
साँप की चाल चलती हुई ।
हर तरफ़ तोड़ती सरहदें,
सरहदों बीच रहती रही ।
सभ्यताएँ बनाती हुई
सभ्यताएँ मिटाती हुई,
इस किनारे रुकी ज़िंदगी
उस किनारे लगाती हुई ।
कान में हर सदी के नदी
अनकही बात कहती रही ।
(६)
पर्वत से छन कर झरता है पानी,
जी भर कर पियो
और पियो ।
घाटी-दर-घाटी ऊपर को जाना,
धारण कर लेना शिखरों का बाना,
देता अक्षय जीवन हिमगिरी दानी,
हिमगिरी को जियो
और जियो ।
अतिथि बने बादल के घर में रहना
हिम-वर्षा-आतप हँस-हँस कर सहना
अरुणाचल-धरती परियों की रानी
सुन्दरता पियो
और पियो ।
किन्नर-किन्नरियों के साथ नाचना
स्वर-लय की अनलिखी क़िताब बाँचना,
उर्वशियाँ घर-घर करती अगवानी,
गीतों को जियो
और जियो ।
देना कुछ नहीं और सब कुछ पाना,
ले जाना हो तो घर लेते जाना,
यह सुख है और कहाँ ओ अभिमानी !
इस सुख को पियो
और पियो ।
(७)
उत्खनन किया है मैंने
गहराई तक अतीत का ।
सिन्धु-सभ्यता से अब तक
मुझको एक ही स्तर मिला,
ईंट-पत्थरों के घर थे
सोने का नहीं घर मिला,
युद्धों के अस्त्र मिले पर
वृत्त नहीं हार-जीत का ।
यज्ञकुण्ड अग्निहोत्र के
मिले नाम गोत्र प्रवर भी
सरस्वती की दिशा मिली
पणियों के ग्राम-नगर भी
कोई अभिलेख पर नहीं
सामगान के प्रगीत का ।
क़ब्रों में ठठरियाँ मिलीं
टूटे उजड़े भवन मिले,
मिट्टी में ब्याज मिल गए
पर न कहीं मूल-धन मिले,
आदमी मिला कहीं नहीं
जीवित साक्षी व्यतीत का ।
मिट्टी के खिलौने मिले
चित्रित मृतभाण्ड भी मिले ।
सड़कों-चौराहों के बीच
हुए युद्ध-काण्ड भी मिले,
कोई ध्वनि-खण्ड पर नहीं
मिला किसी बातचीत का ।
मन्दिर गोपुर शिखर मिले
देवता सभी मरे मिले
उकरे युगनद्ध युग्म भी
दीवारों पर भरे मिले ।
सहते आए हैं अब तक
जो संकट ताप-शीत का ।
(८)
विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!
यहाँ राह अपनी बनाने चले हम,
यहाँ प्यास अपनी बुझाने चले हम,
जहाँ हाथ और पाँव की ज़िन्दगी हो
नई एक दुनिया बसाने चले हम;
विषम भूमि को सम बनाना हमें है
निठुर व्योम को भी झुकाना हमें है;
न अपने लिये, विश्वभर के लिये ही
धरा व्योम को हम रखेंगे उलटकर!
विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!
अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!
लहर गिरि-शिखर सी उठी आ रही है,
हमें घेर झंझा चली आ रही है,
गरजकर, तड़पकर, बरसकर घटा भी
तरी को हमारे ड़रा जा रही है
नहीं हम ड़रेंगे, नहीं हम रुकेंगे,
न मानव कभी भी प्रलय से झुकेंगे
न लंगर गिरेगा, न नौका रुकेगी
रहे तो रहे सिन्धु बन आज अनुचर!
अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!
कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर!
बना रक्त से कंटकों पर निशानी
रहे पंथ पर लिख चरण ये कहानी
,
बरसती चली जा रही व्योम ज्वाला
तपाते चले जा रहे हम जवानी;
नहीं पर मरेंगे, नहीं पर मिटेंगे
न जब तक यहाँ विश्व नूतन रचेंगे
यही भूख तन में, यही प्यास मन में
करें विश्व सुन्दर, बने विश्व सुन्दर!
कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर ।
(९)
तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।
तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
जंगलों में या पहाड़ों में,
मंदिरों में, खंडहरों में,
सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,
मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।
शाल-वन की छाँव में
चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
पास मृगछौने बुलाता हूँ,
पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।
रेत में सूखी नदी की
मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,
द्वार पर बैठा गुफ़ा के
मैं तथागत गीत गाता हूँ,
बोढ के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।
इन झरोखों से लुटाता
उम्र का अनमोल सरतमाया,
मैं दिनों की सीढ़ियाँ
चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,
हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।
(१०)
आदमी का जहर
---------------------
एक जलता शहर
हो गई ज़िन्दगी !
आग का गुलमोहर
हो गई ज़िन्दगी !
हर तरफ हैं अंधेरी
सुरंगें यहां
है भटकती हुई
सिर्फ! रूहें यहां
जादुई तलघरों से
गुजरती हुई
है तिलिस्मी सफर
हो गई ज़िन्दगी।
भागकर जायें भी
तो कहाँ जायें हम
कब तलक यह मिथक
और दुहरायें हम
है दवा ही न जिसकी
अभी तक बनी
आदमी का जहर
हो गई ज़िन्दगी !
जंगलों में सुखी
और खुशहाल था
आदमी नग्न था
पर न कंगाल था
बदबुओं का न
अहसास अब रह गया
सभ्यता का गटर
हो गई ज़िन्दगी !
चाँद तारे सभी
आज झूठे हुए
हर तरफ घिर उठे
हैं ज़हर के धुएँ
आंख की रोशनी को
बुझाती हुई
रोशनी की लहर
हो गई ज़िन्दगी
(११)
पास आना मना
-------------------------
पास आना मना
दूर जाना मना,
जिन्दगी का सफर
कैदखाना बना।
चुप्पियों की परत
चीरती जा रही
चीख–चीत्कार
बेइंतिहा दूर तक,
पत्थरों के बुतों में
बदलने लगे
साँस लेते हुए
सब मकां दूर तक।
भाग कर आ गये
हम जहाँ,
उस जगह
तड़फड़ाना मना
सोचना और आँसू
बहाना मना।
पट्टियों की तरह
जो बँधी ज़खम पर
रोशनी मौत
की लोरियाँ गा रही,
आ दबे पाँव
तीखी हवा जिस्म पर
आग का सुर्ख
मरहम लगा जा रही,
इस बिना नाम के
अजनबी देश में
सर उठाना मना
सर झुकाना मना
देखना और आँखें
मिलाना मना।
आँख अंधी हुई
धूल से, धुंध से
शोर में डूबकर
कान बहरे हुए,
कोयले के हुए
पेड़ जो ये हरे
राख के फूल
पीले सुनहरे हुए,
हुक्मरां वक़्त की
यह मुनादी फिरी
मुसकराना मना
खिलखिलाना मना,
धूप में, चाँदनी में
नहाना मना।
भूमि के गर्भ में
आग जो थी लगी
अब लपट बन
उभर सामने आ गयी,
घाटियों में उठीं
गैस की आँधियाँ
पर्वतों की
धुएँ की घटा छा गयी,
हर तरफ़ दीखती हैं
टंगी तख्तियाँ –
'आग का क्षेत्र है
घर बनाना मना,
बाँसुरी और
मादल बजाना मना।’
(१२)
अभिशप्त
-------------------
पर्वत न हुआ, निर्झर न हुआ
सरिता न हुआ, सागर न हुआ,
किस्मत कैसी ! लेकार आया
जंगल न हुआ, पातर न हुआ।
जब-जब नीले नभ की नीचे
उजले ये सारस के जोड़े,
जल बीच खड़े खुजलाते हैं
पाँखें अपनी गर्दन मोड़े।
तब-तब आकुल हो उठता मन
किस अर्थ मिला ऐसा जीवन,
जलचर न हुआ, जलखर न हुआ,
पुरइन न हुआ, पोखर न हुआ।
जब–जब साखू-वन में उठते
करमा की धुन के हिलकोरे,
मादल की थापों के सम पर
भांवर देते आँचल कोरे।
तब–तब रो उठता है यह मन
कितना अभिशप्त मिला जीवन,
पायल न हुआ, झांझर न हुआ,
गुदना न हुआ, काजर न हुआ।
(१३)
रबर के खिलौने
--------------------
हम रबर के खिलौने
बिकते हैं सुबहोशाम,
लिख गयी अपनी किस्मत
शाहजादों के नाम।
कुछ नहीं पास अपने
है नहीं कोई घर,
रहते शो-केस में हम
या कि फुटपाथ पर।
होने का नाम भर है
मिटना है अपना काम।
छपते हम पोस्टरों में
बनते हैं हम खबर,
बन दरी या गलीचे
बिछते है फर्श पर।
कुर्सियों में दबी ही
उम्र होती तमाम।
दूर तक चलने वाला
है नहीं कोई साथ,
ताश के हम हैं पत्ते
घूमते हाथों–हाथ।
हम तो हैं इक्के–दुक्के,
साहब बीबी गुलाम।
रेल के हैं हम डब्बे
खीचता कोई और
छोड़कर ये पटरियाँ
है कहाँ हमको ठौर।
बंद सब रास्ते हैं
सारे चक्के हैं जाम।
(१४)
खो गया है गाँव मेरा
-------------------------
खो गया है गांव मेरा
देश की इस राजधानी में।
बन गईं पगडंडियाँ
गलियाँ यहाँ सड़कें
बगीचे पार्क में बदले
हो गये हैं अब
विहार नगर पुरम
टोले मुहल्ले
जो रहे अपने
बंट गये
बहुमंजिले आवास
ब्लॉकों, फेज, पॉकिट में।
हो गये गुम
व्यक्तियों के नाम
अंकों की निशानी में।
बन गये वे खेत
गोंयड़ लहलहाते
यहाँ पर जंगल मकानों के
फार्म हाउस मार्केट
इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स
बने ऊसर शिवानों के
गांव के गन्दे पनाले और गड्ढे
राजधानी में बने यमुना।
सूर्य पुत्री यहाँ
आकर बनी वैतरणी
प्रदूषण की कहानी में।
आसमाँ के हो गये
टुकड़े हजारों
दिशाएँ भी नाम खो बैठीं
चाँद तारों को
न कोई पूछता है
हवाएँ गुमनाम हो बैठीं
हो गईं हैं शून्य
सब संवेदनाएँ
गाँव के रिश्ते सभी भूले।
है न इस वातानुकूलित
कक्ष में वह सुख रहा जो
फूस की टूटी पलानी में।
खो गया है गाँव मेरा
देश की इस राजधानी में।
~ डॉ.शंभुनाथ सिंह
________________________________________________
जन्म 17 जून 1916
निधन 03 सितम्बर 1991
जन्म स्थान गाँव अमेठिया, रावतपार, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ
रूप रश्मि (1941) ,माता भूमिः, छायालोक (1945), उदयाचल (1946), मनवन्तर (1948), समय की शिला पर (1968) दिवालोक, जहाँ दर्द नीला है(1977) , वक़्त की मीनार पर (1986), माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: (1991) -- (सभी गीत संग्रह), दो कहानी संग्रह -- ‘रातरानी’ (1946) और ‘विद्रोह’ (1948), नव नाटक ‘धरती और आकाश’ (1950) और ‘अकेला शहर’ (1975)।
विविध