शनिवार, 17 अप्रैल 2021

वरिष्ठ नवगीतकार जय चक्रवर्ती जी के बारह नवगीत और एक टिप्पणी प्रस्तुति समूह वागर्थ

~।।वागर्थ ।। ~ 

      में आज प्रस्तुत हैं जन की पीड़ा के गायक नवगीतकार : जय चक्रवर्ती जी  के बारह नवगीत ।

_______________________________________________

     इसे महज संयोग ही कहूँगा कि जब मैं वरेण्य नवगीतकार जय चक्रवर्ती जी के नवगीतों से गुजर रहा था तभी  भोपाल के वरिष्ठ रचनाकार रमेश नन्द जी ने राग भोपाली के प्रमुख सम्पादक शैलेंद्र शैली जी की एक पोस्ट उस समय साझा की , जब मुझे इनके  नवगीतों पर कुछ अनूठे ढंग से लिखने के लिए अपने मानस को तैयार करना था ।  जय चक्रवर्ती जी के नवगीतों की रचना प्रक्रिया की पड़ताल करने में शैलेंद्र शैली जी की पोस्ट पाठक की मदद करती है और साथ ही हमें नूतन दृष्टि प्रदान करती है ।

पोस्ट का शीर्षक था..

 #अविस्मरणीय_सृजन_की_चुनौतियां"  
------------------------------------------------- 
जो यहाँ अविकल प्रस्तुत है । 

    " प्रत्येक रचनाकार के मन में यह इच्छा जरूर होती है कि वह कुछ ऐसा अवश्य ही लिख सके जो यादगार हो ,जो उसकी पहचान बने तथा जिसके लिए उस रचनाकार को सदैव याद किया जाए । इस तरह का अविस्मरणीय सृजन किसी भी रचनाकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है । इस चुनौती से जूझना आसान नहीं है । किसी भी अविस्मरणीय सृजन के लिए व्यापक मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता से प्रेरित विश्व दृष्टि बेहद जरूरी है । इसके लिए साहित्य को मशाल की तरह थामना होता है । अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होते हैं । सत्ता के प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना होता है ।मानवीय मूल्यों , मानव अधिकार ,सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की रक्षा के लिए किए जा रहे जन आंदोलनों के प्रति अपनी पक्षधरता को अभिव्यक्त करना होता है । अंध विश्वासों ,प्रतिगामी प्रवृत्तियों और रूढ़ियों से जूझते हुए तर्क संगत विचारों को अर्जित करना होता है ।    
      धर्म ,जाति ,नस्ल ,भाषा और क्षेत्र से जुड़ी संकीर्णताओं का कड़ा प्रतिरोध करना होता है । युद्ध के उन्माद के खिलाफ विश्व शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त करना होता है । इन कसौटियों पर खरा उतरने पर ही रचनाकार विश्व नागरिक बनकर ही अविस्मरणीय सृजन कर सकता है । "
       राग भोपाली के ख्यात सम्पादक शैलेन्द्र शैली जी की परिभाषा के निकष पर वरिष्ठ नवगीतकार जय चक्रवर्ती जी के प्रस्तुत नवगीत सौ फीसदी खरे उतरते हैं ।
                    जय चक्रवर्ती जी के प्रस्तुत नवगीत अपने समय की विडम्बनाओं और अन्यायों की तात्कालिकता या समकालिकता से आगे बढ़कर जीवन के मूलभूत आशयों की संवेदना के विस्तार को सघनता में व्यक्त करते हैं ।
   उनके पास सम्पन्न दृष्टि है साथ ही सुनिश्चित किया हुआ गन्तव्य भी इस आशय के आस्वाद का पता अन्यत्र कहीं और नहीं अपितु उनके एक नवगीत में ही मिलता है कथन की पुष्टि के लिए  द्रष्टव्य हैं उनके एक नवगीत से कुछ पँक्तियाँ.....

पथ मेरा रोको मत भाई!
मुझको-
बहुत दूर जाना है.

नदिया नाले वन पर्वत मरु
ये सब
मुझे पार करने हैं
और शाम होने से पहले
लक्ष्य-द्वार पर 
पग धरने हैं

अभी नहीं आना जम्हाई
मुझको
बहुत दूर जाना है ।

प्रस्तुत १२  नवगीत उन्हें अपने समय के अन्य नवगीतकारों से दृष्टि सम्पन्नता के चलते अलग पंक्ति में खड़ा करता है , जिन्होंने रचा तो बहुत पर सुस्पष्ट समझ विचारधारा और दृष्टि सम्पन्नता के अभाव के चलते अपनी कोई ठोस जमीन अभी तक तैयार नहीं कर सके। 
           समूह  वागर्थ इस अनूठे रचनाकार को प्रस्तुत कर प्रसन्नता का अनुभव करता है और उन्हें बधाइयाँ प्रेषित करता है ।

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
_________________

जय चक्रवर्ती के नवगीत
------------------------------

(१) राजा के दुष्कर्मों का फल
-------------------------------------

राजा के दुष्कर्मों का 
फल प्रजा भोगती है.

ओढ़े हुए मौत 
आती हैं नित-नित विपदाएं.
नुक्कड़-नुक्कड़ जश्न मनातीं
हिंसा-हत्याएं.
जयकारों के स्वर में डूबी
जन गण की चीखें-
खुद ही कहती-खुद ही सुनती
अपनी पीड़ाएं.

भूख-गरीबी बूँद-बूँद 
खुद को निचोड़ती है.

अंहकार की सत्ता रहती है
आँखें मींचे.
न्याय नियम कानून सिसकते
बूटों के नीचे.
फूलों की हर तरफ़ 
झूठ पर बारिश होती है-
सच मरता- सड़ता है रोज 
सींखचों के पीछे.

संविधान की देवी लज्जित
साँस तोड़ती है.

सिंहासन की परिक्रमा में
सूरज रहता है.
बस्ती-बस्ती अँधियारों का 
दरिया बहता है.
सपनों का सौदागर
'बुलेट प्रूफ' के पीछे से-
मरघट की ज्वालाओं को
दीवाली कहता है.

सदियों-सदियों रात
प्रात की वाट जोहती है.

(२) क्यों नहीं अब टूटतीं
--------------------------------

क्यों नहीं अब टूटतीं
आखिर-
फ़िजा़ओं पर जड़ी ये चुप्पियाँ?

क्यों न जाने अब 
हमारा खून 
पानी हो गया है.
वक़्त का
हर पल सज़ा की 
इक कहानी  हो गया है.

क्यों नहीं उठतीं
शिखर के 
अमर्यादित आचरण पर उँगलियाँ ?

हो गए हैं -
देशद्रोही 
प्रश्नवाचक चिन्ह सारे.
व्याकरण संवाद का
कोई यहाँ
कैसे सँवारे.

और हिस्से में 
सवालों के कहाँ तक
रहेंगी पाबंदियाँ?

झपटते हैं 
एक सच पर झूठ के
सौ सौ शिकारी.
आचरण की संहिता के
रचयिता हैं
दुराचारी.

कहाँ तक ले जाएंगी
पाखण्ड को 
अब धर्म की बैसाखियाँ ?

(३) बंद करो ये लिखना-विखना
----------------------------------------

सच लिखने से डर लगता है?
बंद करो, 
ये लिखना- विखना !

कब तक गाओगे -
' मुखड़ा है 
चाँद का टुकड़ा'
देखा है क्या 
मुखड़े के पीछे का 
दुखड़ा 

दरबारों में 
लोट लगाते रहना है तो-
छोड़ो ये कवि जैसा दिखना !

दुःख में, पीड़ा में, 
चिन्ता में
बोलो-कब-कब मुस्काये हो
जो औरों से कहते हो,
क्या-
खुद भी वह सब कर पाये हो

पहले तो अपने को बाँचो
फिर 
दुनिया पर कविता लिखना!

पैदा करो 
एक चिनगारी प्रतिरोधों की-
संवेदन की
और दहकने दो भट्ठी
पल-प्रतिपल
अपने अंतर्मन की 

सीखो कविवर ,
इस भट्ठी में सुबह-शाम
रोटी-सा सिंकना ।

(४)पथ मेरा रोको मत भाई
----------------------------------

पथ मेरा रोको मत भाई!
मुझको-
बहुत दूर जाना है.

नदिया नाले वन पर्वत मरु
ये सब
मुझे पार करने हैं
और शाम होने से पहले
लक्ष्य-द्वार पर 
पग धरने हैं

अभी नहीं आना जम्हाई
मुझको
बहुत दूर जाना है.

अग्नि परीक्षाओं में
दहतीं तिल-तिल कर
सच की सीताएं
पग-पग बाँट रहीं सम्मोहन
छल-छंदों की 
सूर्पनखाएं

साथ निभाना ओ सच्चाई!
मुझको
बहुत दूर जाना है.

सुख के सपनों की गलियों में
या फिर-
फूलों में-कलियों में
पाकर साथ मदिर-गंधों का
खो जाऊँ 
मैं रँगरलियों में

मत करना इतनी पहुनाई
मुझको
बहुत दूर जाना है.

(५) मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा 
--------------------------------------

तुम दरबारों के गीत लिखो
मैं जन की पीड़ा गाऊँगा.

लड़ते-लड़ते तूफानों से
मेरे तो युग के युग बीते
वीभत्स अभावों का साया
आकर हर रोज डराता है.
मैं क्या जानूँ सोने-से दिन
क्या जानूँ चाँदी-सी रातें
जो भोग रहा हूँ रात-दिवस
मेरा तो उससे नाता है.

तुम सोने-मढ़ा अतीत लिखो
मैं अपना समय सुनाऊँगा.

जो भोगा पग-पग वही लिखा
जैसा हूँ मुझमें वही दिखा
मैं कंकड़-पत्थर-काँटों पर
हर मौसम चलने का आदी.
वातानुकूल कक्षों में शिखरों-
की प्रशस्ति के तुम गायक
है मिली हुई जन्मना तुम्हें
कुछ भी करने की आजादी.

तुम सुख-सुविधा को मीत चुनो
मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा.

आजन्म रही मेरे हिस्से
निर्मम अँधियारों की सत्ता
मुझ पर न किसी पड़ी दृष्टि
मैं अनबाँचा अनलिखा रहा.
मुस्तैद रहे हैं मेरे होंठों पर 
सदियों- सदियों ताले
स्वर अट्ठहास के गूँज उठे
जब मैंने अपना दर्द कहा.

तुम किरन-किरन को क़ैद रखो
मैं सूरज नया उगाऊँगा .

(६) शर्तों पर मैं गा न सकूंगा
-----------------------------------

नहीं, तुम्हारी शर्तों पर
मैं गा न सकूंगा

मैं पंछी हूँ,
बादशाह हूँ अपने मन का
डर न किसी का
और न भूखा हूँ कंचन का

मैं दर्पन हूँ,
सच को मैं झुठला न सकूँगा.

रहा अभावों का
सिर पर जीवन-भर साया
दरबारों को मगर न मैंने
शीश झुकाया

मर जाऊँगा,
तलवे मैं सहला न सकूँगा.

गाता हूँ मैं गीत 
पसीने की बहार के
संघर्षों से, दुख से
पग पग अमर प्यार के

पीड़ा का स्वर हूँ,
मैं तुमको भा न सकूँगा.

रहा सर्जना के पथ पर
मैं निपट अकेला
रास न आया -
क्षण भर भी दुनिया का मेला

समझौतों के साथ
कभी मैं जा न सकूँगा ।

(७)
तुम अँग्रेजी बुलडॉग
और हम
पन्नी खाती गायें.

चरण चाट कर, पूँछ हिला कर
तुम 
महलों में सोते
हम दर-दर अपनी लाशें
अपने-
कंधों पर ढोते

तुम उड़ो हवा के संग
और हम
डग-डग डपटे जायें.

चाहे जिस पर भौंको,
काटो
दौड़ाओ, गुर्राओ
जहाँ मन करे छीनों-
झपटो,
लूटो, मारो, खाओ

तुम टूटो बन कर मौत
और हम
भागें दायें-बायें.

संविधान, कानून, कोर्ट
सब
फेल तुम्हारे आगे
करते  तुम हो, लेकिन-
हरदम
भरते हमीं अभागे

तुम खेलो अपने खेल
और हम
लाठी-गोली खायें ।

(८)
घिर गए हैं एक डर से
हम चतुर्दिक
समझ में आता नहीं है
अब किधर जाएं!

जा रहे हैं मीत अनगिन
छोड़कर 
असमय-अचानक
और हम 
अभिशप्त हैं-दुःख भोगने को 
यह भयानक

हैं फिज़ाओं में 
अहर्निश-
सिर्फ़ दहशत की कथाएं.

डोर जिनके हाथ है
 वे 
दरअसल बहुरूपिए हैं
आदमी की 
शक्ल ओढ़े कोबरा हैं-
भेड़िए हैं

फन निकाले-
हरी, नीली, 
लाल, केसरिया ध्वजाएं.

बताते थे जो
 प्रजा को कल तलक 
बिल्कुल निरापद
मंत्री,राजा, सिपाही
आज 
सबके सब नदारद

जल रही हैं
दृष्टि में हर ओर
सपनों की चिताएं ।

(९)
राजा तो राजा होता है

राजा दूध-धुला रहता है
बिल्कुल खुला-खुला रहता है
क़ातिल,डाकू,चोर, लुटेरे-
सबसे मिला-जुला रहता है.

प्रतिबंधों की दीवारों में
राजा दरवाज़ा होता है.

राजा जाल नये बुनता है
नहीं किसी की वह सुनता है
मुंसिफ,मजलिस,जाँच,मुकदमा
अपनी मर्ज़ी से चुनता है.

राजा को आने वाले हर पल का 
अंदाज़ा होता है.

राजा के हैं शौक निराले
साँप भेड़िए सब हैं पाले
बहुत बड़ा है मुँह राजा का-
जिसको जब चाहे तब खा ले.

सबको डर में रखकर -
राजा स्वयं तरोताज़ा होता है.

(१०)

भीड़ हैं हम
और हमारी ओर बंदूकें तनी हैं
जान दे दें या उठाकर हाथ
जयकारे लगायें !

हर तरफ़ से हर किसी की
मौत का ओढ़े कहर
गूँजता है फ़िज़ाओं में 
एक कोरस हर प्रहर

भूख से बेहाल -
कंधों पर बिठा कर दुधमुंहे को
चतुर्दिक खुशहालियों के
ढोल पीटें-गीत गायें .

राष्ट्रभक्ति के अहर्निश 
नए नाटक चल रहे
दृश्य में हैं नग्न-प्रहसन
श्रव्य में बस कहकहे

विदूषक की हर अदा पर
फिदा होकर
हैं जहाँ हम खड़े होकर वहीं से
ताली कभी थाली बजायें.

रास्तों को सौंप कर
कुछ आँधियाँ कुछ स्याहियाँ
बाँध दीं हैं नियति ने
हर पाँव में चिनगारियाँ

डालकर तेज़ाब आँखों में
ढकेले जा रहे हम
मौत के अंधे कुएं में
किस तरह खुद को बचायें।

(११)
हमें मालूम  है साहब 
___________________

तुम्हारी प्राथमिकताएं
हमें 
मालूम हैं साहब!

हमारा भूख से मरना
तुम्हें
विचलित नहीं करता
विवश,लाचार रूहों को
डराती है-
ये बर्बरता

तुम्हारी भग्न-चिन्ताएं
हमें
मालूम हैं साहब!

हकीकत देखना-सुनना
तुम्हें
कब रास आता है
घृणा, पाखंड
छल, षड्यंत्र से आद्यंत
नाता है

तुम्हारी व्यूह रचनाएं
हमें
मालूम हैं साहब!

नहीं इंसान से तुमको
मोहब्बत
पत्थरों से है
नदी से दुश्मनी है
दोस्ताना-
सागरों से है

तुम्हारी वास्तविकताएं
हमें
मालूम हैं साहब!

(१२)

वक़्त बुरा पहले भी था
पर-
इतना बुरा न था.

आसमान का 
षड्यंत्रों से गहरा
नाता है
धरती के दुःख पर
सूरज
कहकहे लगाता है

ऊँचाई का अर्थ
हमेशा-
इतना गिरा न था.

धर्मों की कारा में
बंदी
शब्द प्रार्थना के
गूँज रहे हैं
मंत्र परस्पर कुटिल-
कामना के

प्रेम-प्यार का राग
कभी-
इतना बेसुरा न था.

मसनद 
जिनकी है मजलूमों के
कंकालों पर
जड़े उन्होंने कदम-कदम
प्रतिबंध
सवालों पर

सिंहासन का शीश
कभी-
इतना सिरफिरा न था।

   ~ जय चक्रवर्ती
________________________________________________

परिचय 
------------

जय चक्रवर्ती
-----------------
जन्म: १५ नवंबर, १९५८
कन्नौज, उत्तर प्रदेश
शिक्षा :  
-हिन्दी साहित्य में परास्नातक
-मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा

प्रकाशित कृतियां:

  (१)  संदर्भों की आग
  (२)  ज़िन्दा हैं आँखें अभी

  ( दोनों दोहा संग्रह)

(३)थोड़ा लिखा समझना ज़्यादा
(४)ये अँधेरों का समय है

( दोनों नवगीत संग्रह)

(५)हमारे शब्द बोलेंगे
  ( मुक्तक संग्रह)

- वर्ष २००० के बाद के राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित लगभग सभी प्रतिष्ठित दोहा एवं नवगीत संकलनों में रचनाएं संकलित.
दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा,अमर उजाला, हिन्दुस्तान, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, राष्ट्र धर्म, साक्षात्कार, समकालीन भारतीय साहित्य ,अलाव, मंतव्य, साहित्य भारती,आजकल  सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन.
आकाशवाणी के लखनऊ एवं जमशेदपुर केन्द्रों से काव्यपाठ अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ एवं मंच संचालन.अनेक साहित्यिक संस्थाओं से पुरस्कृत एवं सम्मानित.
संप्रति : भारत सरकार के सार्वजनिक प्रतिष्ठान आई टी आई लिमिटेड , रायबरेली में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन.
संपर्क : एम.1/149, जवाहर विहार, रायबरेली -10