एक नवगीत
बकरीद
हाँ,मियाँ बकरीद आई ।
मंडियों में
दिखे बकरे
जग उठा मन का कसाई।
हाँ,मियाँ बकरीद आई ।
कलमा पढ़कर सिरपर चढ़कर
गर्दन कटनी है।
तीन भाग में बेजुबान की
बोटी बँटनी है।
गोश्त खाने मोमिनों की
जीभ कैसी
लपलपाई ।
हाँ,मियाँ बकरीद आई ।
अल्लाह के फ़रमान की
मिल दे रहे हैं
ये दुहाई।
हाँ, मियाँ बकरीद आई ।
तड़पा-पड़पा कर निरीह को
ऐसे मारेंगे।
रूढ़ि यही है धर्म नहीं है
कब स्वीकारेंगे।
क्रूरता से जान
लेने में भला
कैसी खुदाई।
हाँ! मियाँ बकरीद आई।
क्रूर बर्बर रूढ़ियों की
हम नहीं
देंगे बधाई।
हाँ! मियाँ बकरीद आई।
मनोज जैन