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गीत
जाने कब हो भोर
मन का पंछी व्याकुल बैठा
जाने कब हो भोर ।
आशा और निराशा के दो
पलड़ो में मैं झूलूँ
पंख कटे हैं फिर भी मन है
आसमान को छू लूँ।
कैसे बाँधू गति चिंतन की
चले न कोई जोर।
टूट गई मोती की माला
निकला धागा कच्चा
इस दुनिया में ढूँढे से भी
मिला न कोई सच्चा
कोयल बनकर कौआ बैठा
मचा रहा है शोर।
सम्बन्धों के मकड़जाल में
फँस गई अब तो जान
उस पर रिश्ते गिरगिट जैसे
होती नहीं पहचान।
तड़़प रहा है कैदी मनवा
देखे अब किस ओर।
प्रो0 ममता सिंह
मुरादाबाद
2
गीत ----
महँगी है मुस्कान
दर्द यहाँ पर सस्ता यारो।
महँगी है मुस्कान।।
जीवन की आपाधापी में,
संगी साथी छूटे।
मृगतृष्णा से बाहर आकर,
कितनों के दिल टूटे।
कस्तूरी पाने को फिर भी।
भटक रहा इंसान।।
मक्कारी में मिला झूठ ही,
राज़ दिलों पर करता।
सच की खातिर लड़ने वाला,
चौराहों पर मरता।
मोल चवन्नी के ही देखो।
बिकता है ईमान।।
फुर्सत किसको है जो अपने,
मन के अंदर झांके।
घर में रक्खा आईना भी,
धूल यहाँ पर फांके।
मुश्किल है ऐसे में *ममता*।
खुद की भी पहचान।।
प्रोफेसर ममता सिंह
मुरादाबाद
3
गीत ----
डूब रहा संसार
आज रंग में भौतिकता के,
डूब रहा संसार ।
सम्बन्धों में गरमाहट अब,
नज़र नहीं है आती
आने वालो की छाया भी
बहुत नहीं है भाती।
चटक रही दीवार प्रेम की,
गिरने को तैयार।
होता खालीपन का सब कुछ,
होकर भी आभास।
लगे एक ही छत के नीचे,
कोई नहीं है पास।
आभासी दुनिया ने बदला,
जीने का ही सार ।
खुले आम सड़कों पर देखो,
मौत कुलाचें भरती।
बटुये की कै़दी मानवता,
कहाँ उफ़्फ भी करती।
खड़ी सियासत सीना ताने,
बनकर पहरेदार।
प्रोफेसर ममता सिंह
मुरादाबाद