भूख पर पहरे :
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हिन्दी में गीति काव्य शब्द का सबसे पहले प्रयोग लोचन प्रसाद पाण्डेय जी ने 'कविता कुसुम माला की भूमिका में किया था। समय के अंतराल से यही गीति काव्य अब गीत के नाम से जाने लगा है। गीति काव्य से लेकर गीत होने तक की यात्रा में गीति काव्य जिस लक्षण के आधार पर पृथक पहचाना जाता है वह है उसका आंतरिक लक्षण, उसका अंतर्मुखी दृष्टिकोण। गीतिकार की दृष्टि अपेक्षाकृत सीमित, वैयत्तिक और आत्मनिष्ठ होती है जबकि गीत के साथ वह व्यापक हो जाती है। गीति काव्य, कवि की निजी भावनाओं का प्रकाश होता है। मन की तरल-सरल भावनाएँ जब लय में एकाकार होकर गंभीर भावावेश के परिणामस्वरूप सहज उद्वेग एवं प्राकृतिक वेग के साथ निःसृत होती हैं तब गीत रचना हो जाती है।
कहा जाता है कि गीत व्यक्ति के अन्तराल से निकली कोई ध्वनि है जो विस्तारित होकर समयगत परिसीमाओं तक रहती है। वस्तुतः गीत मन को छूने वाली सरस् प्रस्तुति है। काव्य में नवल स्वर हो,गेयता भी, सुख-दुख की सूक्ष्मता और गहन क्रीड़ा एवं सघन पीड़ा की अनुभूति तथा कथ्य की संक्षिप्तता से गीत की पृष्ठभूमि बनती है।
लयात्मकता और गीतात्मकता उस काव्य में सर्वोच्चता प्रदान करती है और जब गीत संगीतमय होकर दिग्दिगन्त में परिव्याप्त हो जाता है ,अनूगूँज छोड़ता है।
गीति काव्य से लेकर गीत यात्रा तक की इस वैचारिक पृष्ठभूमि के निकस पर रखकर यदि मुरैना, मध्यप्रदेश के चर्चित गीतिकार डॉ.कैलाश गुप्ता "सुमन" जी के गीतों पर दृष्टिपात करें तो उनके काव्य में दोनों अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी दृष्टियाँ देखने को मिलती हैं।
वरिष्ठ रचनाकार डॉ.कैलाश गुप्ता 'सुमन' जी पिछले चार दशकों से निरन्तर छन्द की साधना में रत हैं और उनका लेखन बहुआयामी है। हाल ही मैं मुझे उनकी पाण्डुलिपि 'भूख पर पहरे' के लगभग पाँच दर्जन गीतों से एक साथ गुज़रने का अवसर मिला। इन गीतों की कहिन पारम्परिक शैली में है सम्भवतः इसके पीछे पारम्परिक छन्दों की सुदीर्घ साधना भी एक कारक रही है। सुमन जी गीत, दोहा, सोरठा,कुण्डलिया, छप्पय और घनाक्षरी जैसे पारम्परिक छन्द साधिकार लिखते आ रहे हैं। साथ ही बाल साहित्य में भी आपकी अच्छी खासी पैठ है।
यही कारण है कि भिन्न भावभूमियों के विविध गीतों से सुसज्जित खूबसूरत गुलदस्ते में अनेक रंग के गीतनुमा पुष्पों पर पाठक मन रीझ -रीझ जाता है।
'भूख पर पहरे' के गीतों को वर्गीकरण के आधार पर मोटे तौर से,सामाजिक समरसता, प्रकृति और पर्यावरण,आर्थिक असमानता, मूल्यबोध, घर-परिवार , तीज-त्योहार, ईश-आराधन भौगोलिक स्थिति, प्रेरणा पुरुष और समसामयिक सन्दर्भ के साथ वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य जैसे अनेक विषयों में अलग-अलग बाँटा जा सकता है।
डॉ.कैलाश गुप्ता 'सुमन' जी के गीतों के परिप्रेक्ष्य में यदि सार संक्षेप में कुछ कहा जाय तो इन गीतों का मूल वैशिष्ट्य इनमें युगीन प्रासंगिकता का होना है। इसीलिए यह पाठक के साथ दूर तक चलते हैं और देर तक साथ बने रहते हैं।
द्रष्टव्य है उनका जिन्दगी से जुड़े एक गीत का अंश
"प्राणवायु के बिना टूटती,
साँसों की सरगम
जीवन अगर बचाना है तो,
पेड़ लगाएँ हम।।
वसुधा वसन विहीन हो रही
उसे वसन पहनाओ।
दुष्ट दुशासन नहीं,कृष्ण-सा
बनकर रूप दिखाओ।
दुनियाभर में हरियाली का,
फहराओ परचम।
हमारे वाङ्गमय में इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि कवि अपनी दृष्टि से भूत भविष्य एवं वर्तमान को कुछ अंशों में जानने में सक्षम होता है।
इसी सन्दर्भ के आधार पर डॉ. कैलाश गुप्ता सुमन जी यदि अपने गीत में शोषित की आवाज़ बनने के घोषणा करते हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा !
देखें उनके गीत का एक और अंश-
"गर्व करेगी दुनिया इनपर
भारत माँ का ताज बनेंगे।
मेरे गीतों के कुछ मुखड़े,
शोषित की आवाज़ बनेंगे।
जनगण मन की पीड़ा हरना
मेरे गीतों की परिपाटी।
राह बताने को बनते हैं
सबके सब अंधों की लाठी।
कान बनेंगे यह बहरों के
गूंगों के अल्फ़ाज़ बनेंगे।
मेरे गीतों के कुछ मुखड़े,
शोषित की आवाज़ बनेंगे।"
संग्रह के कुछ गीतों में (भले ही इनकी संख्या अत्यल्प ही क्यों न हो) व्यवस्था विरोध का तीखा स्वर है। जैसे-जैसे इन गीतों के कथ्य में समसामयिक सन्दर्भ जुड़ते गए गीत अंतरा दर अंतरा धारदार होता चला गया।
डॉ. कैलाश गुप्ता 'सुमन' जी का नया संग्रह "भूख पर पहरे" ऐसे ही गीतों के चलते पाठकों में समादृत होगा; ऐसा मेरा मानना है।
डॉ.कैलाश गुप्ता 'सुमन' जी की अतिशय विनम्रता प्रणम्य है।
उन्हें नई कृति "भूख पर पहरे"के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
मनोज जैन 'मधुर'
106, विट्ठलनगर,
गुफामन्दिर रोड,
भोपाल
462030
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'भूख पर पहरे'