1
मरुत अश्व पर भाव तरंगें
कहाँ-कहाँ की
सैर कराएँ
दृश्य,भाव,अनुभव सब मिलकर
शांत पड़े मन को
उकसाएँ
भावुक मन का उडन खटोला
यहाँ विचरता वहाँ विचरता
कभी अश्रु देता नैनो में कभी
सहमता कभी विहँसता
बाहर भीतर के सब मौसम
इक दूजे सँग
ताल मिलाएँ
पृष्ठों के गोरे गालों पर मोती-मोती
वर्ण झरे जब
खनन-खनन-खन वर्ण बजे फिर शब्द सजे भावार्थ भरे जब
गीत ग़ज़ल तब धीरे-धीरे
भीगे अपने
केश सुखाएँ
लोकोत्तर जग की सरिता मे
भावों की नौका लहराई
शब्दों को नहला-नहला कर उस जग से
इस जग तक लाई
दोनों जग का महासेतु मन,
ही हमसे
पदबंध रचाएँ
2
नाद और झंकार की जब भाँवरे पड़ने लगी
भावना के देश में पुरवाइयाँ चलने लगीं
था अपरिचित नाद भी अनभिज्ञ थी झंकार भी
क्या कहीं होता है जग में प्यार का व्यवहार भी
मन मृदंग जब कामना की थाप से झंकृत हुआ
तब हृदय सागर में सज्जित तरणियाँ तिरने लगी
नैन थे जब से मिले निश्छल समर्पित नेह से
हर घड़ी हर पल भिगोते जा रहे कण मेह के
नित नये अंकुर को पाकर खिल उठी मन की धरा
प्रेम के निर्झर मे झिर झिर जल तरंग बजने लगी
था नहीं कुछ भी जहाँ पर भू भी नहीं नभ भी नहीं
सृष्टि का बंधन नहीं न जनम कही न मरण कहीं
देह थे दोनों यही पर दो थे साये जा रहे
आत्माएं आ हवाओं पर गले मिलने लगीं
3
कुछ ठहर कर चलीं, कुछ झिझक कर चलीं
लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं
काकली कूँज से मन हुआ बाँवरा
बंसवारी में गूँजा स्वतः दादरा
कामनाओं से कम्पित हो कायानगर
चूड़ियों नूपुरों की छननछन हुईं
झोर पुरवा चली झोर पछुआ चली
घेरकर हर तरफ से हुई मनचली
सबसे छुपकर पवन आँचरा ले उड़ा
घड़कने जिस्म की हैं सुहागन हुईं
टहनियों से मिलीं टहनियाँ झूम कर
फूल हँसने लगे मौज मे डूबकर
बरखा आँगन मे बरसी बिना बादरी
नर्म माटी ही चंदन का लेपन हुईँ
एक स्वस्तिक वचन प्रेमियो के लिए
फूल झरने लगे वेणियों के लिए
एक मीठी छुअन कोरे अहसास की
सारी जगती ही मानो तपोवन हुई
4
शब्दों को संचित करना फिर
कविता में चुनकर लिखना
जैसे की महिमा जाने बिन
पोखर को पुष्कर लिखना
जिसने जिया नहीं है झमझम बारिश की
छप्पा छइयाँ।
फिर है उचित नहीं उसका गैया-गोरू
छप्पर लिखना
बिन सीखे ही बुनने बैठे जैसे
चादर को बुनकर
वैसे है जैसे धूनी बिन कंठी
औ खप्पर लिखना
अर्धगोल गुम्बद से मतलब ना ही
उसके परिक्रम से
चुम्बकत्व गुण को समझे बिन
ज्यों जंतर-मंतर लिखना
पुस्तक में पढ़कर कथ्यों को या
लोगों से सुन-सुनकर
चम्पक सम छोटे पेड़ों को
वृक्ष और तरुवर लिखना
बुद्धि-ज्ञान का ओढ़ लबादा
भावों का उपहास करें
उनके लिए बहुत आसां है
फूलों को पत्थर लिखना
कभी न है जिसका क्षय सम्भव
जिसमें लीन अन्य सब भूत
महाशून्य को बड़ा कठिन आकाश,
व्योम, अम्बर लिखना
5
पैनी अंतरदृष्टि चाहिए
ख़ुद को अगर समझना है तो
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए।
काहे की भागादौड़ी काहे का झंझट
हाथों मे पतवार उसी के, वो ही केवट
बेहद पाकर क्या पा लेगे
मन में बस संतुष्टि चाहिए
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए,
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए
हम कर्मो के कृषक, हमी हैं उत्तरदायी
अपनी ही करनी फल बनकर आगे आयी
और किसी की नही उसी की
अनुकम्पा की वृष्टि चाहिए
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए।
दुनिया कहती जग प्रपंच, धोखा है सारा
मै कहती ये एकतत्व की अविरल धारा
नैतिक ध्वज जिसपर टिक जाये
ऐसी सुदृढ़ यष्टि चाहिए
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए।
6
तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो
झरते पत्तों को देख देख
मन बरबस विचलित हो जाता
वट-तरु की छाया के नीचे
तन-मन सुख-शांति रहा पाता
हो घाम शीत में परिवर्तित
जर्जर हाथों से डाल गहो
तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो
अंधड़ पानी में बन छतरी
पथिकों के हो अवलंब रहे
टहनी-टहनी की बन शोभा
दे प्राणवायु निर्दम्भ रहे
मृण्मय की अब हो गए प्रकृति
उर्वर धरती के साथ रहो
तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो
माना है झरना रीति-प्रथा
लेकिन तरु पर अच्छे लगते
होना ही एकमात्र तेरा
तरु अंगों मे ऊर्जा भरते
मस्तक पर अपना हाथ रखो
तुम मौन रहो या बात कहो
तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो
आदर्शिनी श्रीवास्तव