चार बजे घर आना जी
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आज बनेंगे गरम पकौड़े,
चार बजे घर आना जी।
ऊब उदासी छोड़, कली से,
चटक फूल से खिले नहीं।
अरसा हुआ शहर में रहते,
हम सब कब से मिले नहीं।
यादों की बारातें लेकर,
महफ़िल में छा जाना जी।
भागम भाग लगी जीवन में,
दो पल कहीं सुकून मिले।
बैठ बगीचे में देखेंगे,
चटक रंग के फूल खिले।
पास यहीं पर नदिया बहती,
चलकर वहाँ नहाना जी।
भोला भाला, कालू अपना,
हीरे का व्यापारी है।
था किताब का कीड़ा मोहन,
कहीं बड़ा अधिकारी है।
मिलकर याद करेंगे फिर से,
गुजरा हुआ जमाना जी।
मोटी रानी,चश्मे वाली,
अब भी बहुत तुनकती है।
झेला करती मार समय की,
मन को बहुत धुनकती है।
थोड़ा धीरज उस पगली को,
मिल कर हमें बंधाना जी।
पचपन में हम बचपन वाले,
दिन लौटाने वाले हैं।
पहले भी हम लोग अलग थे,
अब भी बड़े निराले हैं।
मिलकर साथ करेंगे भोजन,
रात यहीं सो जाना जी।
शर्त एक है रहे ध्यान में,
बच्चों के संग आना है।
जमकर बारिश हुई यहाँ पर,
मौसम बड़ा सुहाना है।
जल्दी आना गरम पकौड़े,
बड़े मजे से खाना जी।
मनोज जैन