लेबल

रविवार, 21 दिसंबर 2025

प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी की कविताएं

 नाच नचाती   चाची 

          जिस अंगुली पर चाचाजी को,
          नाच नचाती चाची |
          उस अंगुली का पता ठिकाना,
          बिलकुल नहीं बताती |

         चाची जो भी कहतीं चाचा,
         हुकुम बजा कर लाते |
         वे कहतीं तो दस मंजिल तक,
         सीढ़ी से चढ़ जाते |
         उस अंगुली में जादू है क्या,
         हमको नहीं बताती |
         जिस अंगुली पर चाचाजी को,
         नाच नचाती चाची |

         चाची कहतीं तो चाचाजी,
         झट मुरगा बन जाते |
         कुकड़ूं कूँ-कूँ, बोल-बोल कर,
         लम्बी बांग लगाते |
         उस अंगुली पर चमत्कार की,
         शायद चिप्स लगाती |
         जिस अंगुली पर चाचाजी को,
         नाच नचाती चाची |

        चाची जी की मरजी  के बिन,
        हिले न कोई पत्ता |
        सारे घर में ही फैली है,
        बस  उनकी ही सत्ता |
        पता नहीं मेरी चाची वह,
        अंगुली कहाँ छुपाती |
        जिस अंगुली पर चाचाजी को,
        नाच नचाती चाची |


 तेंदुआ अंकल 

       मेरी बस्ती की गलियों में,
       घूम रहे थे कल |
       तेंदुआ  अंकल |

     कुछ बच्चों ने मोबाइल में,
     तुम्हें किया था बंद |
     चेहरे पर  थी कुछ घबराहट,
     मन में कुछ-कुछ द्वन्द |
     भटक रहे हो क्यों बस्ती में,
     छोड़ा क्यों जंगल |
     तेंदुआ अंकल |
     

     वन-कानन में शायद तुमको,
     मिलते नहीं शिकार |
     लगने लगी प्रकृति की शोभा,
     क्या तुमको बेकार !
     या फिर वहां नहीं मिल पाता,
     भोजन- वायु- जल |
     तेंदुआ अंकल |

     तुम हो मूल निवासी जंगल,
     पर्वत-माला के |
     शायद होगे छात्र किसी भी ,
     जंगल शाळा के |
     क्या जंगल में नहीं रहा है,
     पहले सा मंगल |
     तेंदुआ अंकल |



 रोटी का सम्मानगोल गोल रोटी अलबेली
कितनी प्यारी लगती है
बिना शोरगुल किये बेचारी
गर्म तवे पर सिकती है।

त्याग और बलिदान देखिये
कितना भारी रोटी का
औरों की खातिर जल जाना
उसकी बोटी बोटी का।

बड़े प्यार से थाली में रख
जब हम रोटी खाते हैं
याद कहाँ उसकी कुर्वानी
कभी लोग रख पाते हैं।

इसीलिये जानो समझो
रोटी की राम कहानी को
नमन करो दोनों हाथों से
इस रोटी बलिदानी को।

गेहूं पिसकर आटा बनता
चलनी में चाला जाता
ठूंस ठूंस कर बड़े कनस्तर‌
पीपे में डाला जाता।

फिर मन चाहा आटा लेकर‌
थाली में गूंथा जाता
ठोंक पीट की सारी पीढ़ा
वह हँस‌ हँसकर सह जाता।

अब तक जो आटा पुल्लिंग था
वह स्त्री लिंग हो जाता
स्त्रीलिंग बनने पर उसका
लोई नाम रखा जाता।

हाथों से उस लोई पर‌
कसकर आघात किये जाते
पटे और बेलन के द्वारा
दो दो हाथ किये जाते।

बेली गई गोल रोटी को
गर्म तवा पर रखते हैं
रोटी के अरमान आँच पर‌
रोते और बिलखते हैं।

कहीं कहीं तो तंदूरों में
सीधे ही झोंकी जाती
सोने जैसी तपकर वह‌
तंदूरी रोटी कहलाती।

जिस रोटी के बिना आदमी
कुछ दिन भी न रह पाता
उस रोटी को बनवाने में
कहर किस तरह बरपाता।

इसलिये आओ सब मिलकर‌
रोटी का गुणगान करें
जहाँ मिले रोटी रख माथे
रोटी का सम्मान करें।N




यह सबको समझातीं नदियाँ / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
 
बहुत दूर से आतीं नदियाँ,
बहुत दूर तक जातीं नदियाँ।
थक जातीं जब चलते-चलते,
सागर में खो जातीं नदियाँ।
 
गड्ढे, घाटी, पर्वत, जंगल,
सबका साथ निभातीं नदियाँ।
मिल-जुलकर रहना आपस में,
यह सबको समझातीं नदियाँ।
 
खेत-खेत को पानी देतीं,
तट की प्यास बुझातीं नदियाँ।
फसलों को हर्षा-हर्षाकर,
हंसती हैं, मुस्कातीं नदियाँ।
 
घाट कछारों और पठारों,
सबका मन बहलातीं नदियाँ।
सीढ़ी पर हंसकर टकरातीं,
बलखातीं, इठलातीं नदियाँ।
 
गर्मी में जब तपता सूरज,
बन बादल उड़ जातीं नदियाँ।
पानी बरसे जब भी झम-झम,
रौद्र रूप धर आतीं नदियाँ।
 
जब आता है क्रोध कभी तो,
महाकाल बन जातीं नदियाँ।
जंगल, पशु, इंसान घरों को,
बहा-बहा ले जातीं नदियाँ।
 
सूखे में पर सूख-सूखकर,
खुद कांटा बन जातीं नदियाँ।
पर्यावरण बचाना होगा,
चीख-चीख चिल्लातीं नदियाँ।


रखा जीभ पर मीठा मीठा स्वाद अभी तक‌
  मां के हाथों बनी चाय है याद अभी तक|
 
  खुली आंख से भले न उससे मिल पाता हूं
               सपने में होते रहते संवाद अभी तक|
 
              "राजा बेटा उठ जाओ हो गया सबेरा"
               कानों में गूंजा करती आवाज अभी तक|
 
               कितने शेर दिलेर बहादुर देखे हमने
               नहीं मिला है मां जैसा जांबाज़ अभी तक|
 
               सारी मांओं से अच्छी जग में मेरी मां
               होता रहता हर दिन यह अहसास अभी तक|


दोनों खुश हैं
     सभी हुआ है अच्छा अच्छा दोनों खुश हैं
     अस्पताल में जच्चा बच्चा दोनों खुश हैं|
    राजा रैयत, चोर सिपाही अपने रंग में
     इनमें से कोई न सच्चा दोनों खुश हैं|
    भर दोपहर में पोंछ पसीना बतियाते हैं
     गलियारे में काकी कक्का दोनों खुश हैं|
     नकली रुपयों के बदले में नकली सोना
      मूर्ख बने खाया है गच्चा दोनों खुश हैं|
     कई सालों से इंतजार था इस मौके का
      ब्याह हुआ अब जाकर पक्का दोनों खुश हैं
[18/12, 22:28] Prabhu Dayal Shrivastav Bal Sahitykaar: बच्चों के चेहरे चेहरे पर जगह जगह पर राम लिखा है
 
      बच्चों के चेहरे चेहरे पर जगह जगह पर राम लिखा है| 
     कहीं कहीं पर कृष्ण लिखा है कहीं कहीं बलराम लिखा है|
 
   अल्लाह अल्लाह लिखा लिखा हुआ है, ईसा का भी नाम लिखा   है|    
 बच्चों के स्मित ओंठों पर निश्छल और निष्काम लिखा है|
 
          हाथ पैर अंगुली पंजों पर सच्चाई श्रमदान लिखा है|
          दिल के भीतर प्यार मोहब्बत करुणा का पैगाम लिखा है|
 
          बच्चों के आभा मंडल में चारों तीरथ धाम लिखा है|
          एक बार देखो तो इनको बड़ा सुखद परिणाम लिखा है|
 
          बचपन की यादों में पावन भोर, सुहानी शाम लिखा है|
          झरबेरी का बेर लिखा है, खट्टा मीठा आम लिखा है|
 जंगल
पीपल नीम आम के जंगल|
होते बड़े काम के जंगल|
 
कितने निश्छल भोले भाले
होते तीर कमान के जंगल|
 
कभी कभी क्यों हो जाते हैं
बारूदी अंजाम के जंगल|
 
 
 
बच्चो कभी न बनने देना
ओसामा सद्दाम के जंगल|
 
वंशी की मधु तान सुनाते
नटनागर घनश्याम के जंगल|
 
रामायण के पाठ पढ़ाते
सीता राजा राम के जंगल|
 
बिल्कुल एक सरीखे दिखते
राम और रहमान के जंगल|
 
प्रेम दया करुणा सिखलाते
कृष्ण भक्त रसखान के जंगल|
 
सत्य अहिंसा क्षमा रटाते
श्रद्धा के गुरू नाम के जंगल|
 
भारत के जयनाद गुंजाते
केरल तक आसाम के जंगल|
 
अमर रहे गणतंत्र हमारा
गाते हिन्दुस्तान के जंगल|
 
 वापिस समय लौट के आजा


वापिस समय लौट के आजा
 
 
 
बात उस समय की है भैया
सोलह‌ आने का होता था एक रुपैया|
 
बड़ी जलेबी चार  आने की आधा सेर‌
ले आते थे हम बज़ार से कैसा था अंधेर‌|
 
एक रुपैया लेकर जाते थे बाज़ार
एक‌ बोरी में ले आते थे सॊलह सेर ज्वाँर‌|
 
और पिपरिया वाला ठाकुर‌ महिने में आता दो बार‌
तीन रुपैया सेर भाव से हमें शुद्ध घी दे जाता था बारंबार‌|
 
पेन लिया था चौदहआने का जो पूरे छह साल चला था
न लेता था नाम कभी भी गुम जाने का|
 
जिस घर में हम रहते थे उसका ज्यादा बहुत् किराया था
तीन रुपये महिने से हमने हर बार चुकाया था |
 
सौ रुपये का तोला भर आया था सोना
अम्मा कहतीं लिया था उस दिन‌ जब होना था उनका गोना|
 
आजा आजा वापिस समय लौट के आजा
लल्लू कहता आठ आने का एक सेर खाजा दिलवाजा|