मंगलवार, 19 जुलाई 2022

चोट तो फूल से भी लगती है : विनोद श्रीवास्तव आलेख मनोज जैन

चोट तो फूल से भी लगती है : विनोद श्रीवास्तव 

                    "धार पर हम दो" की नौका में (सह सवार विनोद जी और स्वयं मैं) बात उन दिनों की है जब हिंदी के चर्चित नवगीतकार कवि वीरेन्द्र आस्तिक जी, हिंदी पट्टी के कुछ नवगीतकारों को लेकर बड़ा काम करने जा रहे थे। यद्धपि उन दिनों उनके इस काम की सुगबुगाहट नवगीतकारों के मध्य पूरे देश में थी, पर जब 2010 में आस्तिक जी ने अपने नेतृत्व में "धार पर हम" रूपी नौका में जिन 16 नवगीत कवियों को एक साथ बैठने का सुअवसर दिया, उनमें से कानपुर के प्रख्यात कवि विनोद श्रीवास्तव जी भी एक थे, और वह अपनी विशेषताओं के चलते अन्य कवियों से हटकर भी थे।              कविवर विनोद श्रीवास्तव जी से मेरे परिचय का आरम्भ यहीं से होता है।
              विनोद जी के "धार पर हम" भाग दो में प्रस्तुत आठ नवगीतों को पढ़कर उनसे मिलने की इच्छा बलवती हो उठी। दैवयोग से लखनऊ की चर्चित मासिकी 'राष्ट्रधर्म' द्वारा घोषित नवगीत वर्ष में मेरी पुस्तक "एक बूँद हम" का चयन राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान के लिये किया गया। लखनऊ प्रवास से लौटते हुए कानपुर की चर्चित संस्था 'मान सरोवर'की सरस काव्य गोष्ठी में भागीदारी और वहाँ के कुछ चर्चित साहित्यकारों से भेंट के इस निमित्त का सुयोग सन 2013 में दादा आस्तिक जी के माध्यम से जुटा।
                इस क्रम में दादा आस्तिक जी ने जिन दो साहित्यिक विभूतियों से भेंट के लिए समय नियत किया, उनमें से पहले थे डॉ  विमल जी, जिन्हें मैं चलती-फिरती यूनिवर्सिटी कहना ज्यादा पसन्द करूँगा, और दूसरे थे नाद ब्रह्म के साधक विनोद श्रीवास्तव जी ! 
      दोनों विभूतियों से आस्तिक जी की अत्यन्त निकटता के चलते मुझे जो स्नेह मिला वह शब्दातीत है।  मिलने से पहले विनोद जी का जो काल्पनिक स्केच मेरे मस्तिष्क ने बना रखा था , विनोद जी ठीक उससे उलट थे।
      आस्तिक जी ने हम दोनों का परिचय
कराया। परिचय के ठीक बाद विनोद जी ने एक प्रश्न दागा। "क्या, आप भी नवगीत गाते हैं" ? पता नहीं, विनोद जी ने मेरी सबसे बड़ी कमजोरी कैसे ताड़ ली ! मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए मैंने तहत में अपना एक नवगीत उनके समक्ष रखा और कार्यालयीन व्यस्तता के चलते इस भेंट ने चाय के उपरान्त विराम ले लिया। तदुपरांत कवि से पुनः भेंट का अन्तराल लम्बा भले ही रहा हो पर है रोचक!
         मरुप्रदेश राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर, हरवर्ष गीतों पर एकाग्र कुंभ का सरस आयोजन "गीत चाँदनी" के नाम से करता आ रहा है। 4,अक्टूबर 2014 के गीतोत्सव के इस आयोजन में मुरादाबाद से दादा माहेश्वर तिवारी जी, महाकाल की नगरी उज्जयिनी से कविवर हेमन्त श्रीमाल , गाज़ियाबाद से विजय किशोर मानव जी के साथ भोपाल से मुझे भी इस साहित्यिक कुंभ यानि गीत चाँदनी के इस कवि सम्मेलन में विशम्भर कौशिक जी के आदेश पर कीर्तिशेष सुरेन्द्र दुबे जी ने अपने संचालन में पाठ हेतु मुझे भी आमन्त्रित किया गया था।

            मैंने कानपुर से पधारे कविवर विनोद श्रीवास्तव जी के मुखारविंद से उच्चरित ध्वनि जिसकी तुलना यदि ब्रह्मनाद से की जाय तो भी अतिशयोक्ति ना होगी। उनके जादुई पाठ का प्रभाव और असर पूरे नौ साल के अन्तराल पर भी मेरी स्मृति में जस का तस है। उन्होंने पाठ का आरम्भ जिस मुक्तक से किया वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

      धर्म छोटे बड़े नहीं होते
      जानते तो लड़े नहीं होते
      चोट तो फूल से भी लगती है,
      सिर्फ़ पत्थर कड़े नहीं होते।

काश ! वर्चस्ववादी ताकतें इस मुक्तक का अनुसरण कर पातीं । कट्टर धर्मावलम्बियों को स्वधर्म से विरक्त किए बिना मनुष्यत्व के प्राकृतिक धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित करता यह मुक्तक  बेहद संदेशप्रद है।
विनोद जी की अद्भुत पाठ शैली की विशेषता यह है कि इन्हें इनका श्रोता बड़ी संजीदगी से सुनता है जितनी गम्भीरता से विनोद जी रचते हैं श्रोता भी इनके लिखे हुए को वैसा ही मान देता है। जहाँ तक मैंने  विनोद जी के पूरे पाठ के दौरान महसूस किया यह मुक्तक पूरे पाठ का मंगलाचरण 
है इस मुक्तक को माध्यम बना कर कवि अपने श्रोताओं को नाद ब्रह्म रूपी सस्वर पाठ से मानव धर्म का बोध बड़े सरल शब्दों में  कराते हैं; एवं आधुनिक मनुष्य को मानव बड़े शालीन तरीके से मानव धर्म का सन्देश देकर सच्चा इन्सान बनाने में अपने कवि धर्म का सम्यक निर्वहन करते हैं।
           प्रसंगवश विनोद जी से एक छोटी सी मुलाक़ात का ज़िक्र किये बिना बात पूरी नहीं होगी। विनोद जी ने न तो बहुत लिखा है और न ही मैंने विनोद जी को बहुत पढ़ा है। यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि वे  न तो पूरी तरह साहित्यक हैं न ही पूरी तरह मंचीय । प्रकारान्तर से कहें तो उन्होंने दोनों जगह एक कुशल नट की तरह सम्यक संतुलन साधा हुआ है। उनके हिस्से में कुल जमा दो पुस्तकें दर्ज हैं 
            भीड़ में बाँसुरी (१९८७), अक्षरों की कोख से (२००१) यह मेराअपना  दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि मैं अपने प्रिय कवि के इन दोनों संग्रहों से अभी तक नहीं गुजरा पर उनके व्यक्तित्व की सघनता और गहराई के चलते मैंने उन्हें यूट्युब पर और विभिन्न फेसबुक पेज एवम्  सोशल मीडिया के माध्यम से भी आंशिक जानने की पूरी कोशिश की । मैं इस कोशिश में किसी हद तक सफल भी रहा हूँ।
विनोद जी मितभाषी हैं वह सामान्य वार्ता लाप में भी शब्दों को बेबजह जाया नहीं करते उन्हें जो कहना होता उसे वह अपने गीतों में बोलते हैं
15 जुलाई 2016 
        काव्यालोक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था, लालगंज रायबरेली में सुने उनके दो प्रतिनिधि गीतों की अमिट छाप मेरे मस्तिष्क पर अब भी देखी जा सकती है।
              विनोद जी के नवगीत मर्मस्पर्शी गहरी व्यंजना से समृद्ध होते हैं उनके पाठ को सुनने का मतलब है एक न भूलने वाला अनुभव। उनके गीतों का कथ्य  शिल्प और बिम्ब-विधान अद्भुत है एक ऐसी अन्तर्लय जो सहज ही मन को आबद्ध कर लेती है

एक खामोशी

एक खामोशी
हमारे बीच है
तुम कहो तो
तोड़ दूँ पल में।

सिरफिरी तनहाइयों का
वास्ता हमसे न हो
जो कहीं जाए नहीं
वह रास्ता हमसे न हो।

एक तहखाना
हमारे बीच है
तुम कहो तो
बोर दूँ जल में।

फूल हैं, हैं घाटियाँ भी
पर कहाँ खुशबू गई
क्यों नहीं आती शिखर से
स्नेहधारा अनछुई।

एक सकुचाना
हमारे बीच है
तुम कहो तो
छोड़ दूँ तल में।

रूप में वय प्राण में लय
छंद साँसों में भरे
और वंशी के सहारे
हम भुवन भर में फिरें।

एक मोहक क्षण
हमारे बीच है
तुम कहो तो
रोप दूँ कल में।

2
  
नदी के तीर पर ठहरे

नदी के तीर पर
ठहरे
नदी के बीच से
गुज़रे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती।
हवा को हो गया है क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं'
घरों में गूँजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं।
धुएँ के शीर्ष पर
ठहरे
धुएँ के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती

नक़ाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है।
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती।

कहाँ मंदिर कहाँ गिरजा
कहाँ खोया हुआ काबा
कहाँ नानक कहाँ कबिरा
कहाँ चैतन्य की आभा।
अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुज़रे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती।

            तिथि से गणना करें तो विनोद जी मुझसे तीस वर्ष ज्येष्ठ हैं, परन्तु वह अपने इस अनुज को सदैव एक मित्र के जैसा आदर देते हैं।
         सोशल मीडिया के सबसे चर्चित नवगीतों पर एकाग्र फेसबुक समूह वागर्थ में उनके गीतों पर चर्चा करने कराने का यश मेरे हिस्से में दर्ज है। भाई साहब शतायु हों विनोद जी की प्रस्तुति वाचिक परम्परा के स्वर्णकाल की याद दिलाती है।

मनोज जैन 
संचालक वागर्थ समूह
106, विट्ठल नगर 
गुफामन्दिर रोड भोपाल
462030
मोबाइल
9301337806

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