वागर्थ में आज
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प्रस्तुत हैं आदरणीय
डा.कृष्णकुमार 'नाज़' जी के दो गीत
इन गीतों के प्रस्तुतिकरण के बहाने सिर्फ दो बातें आपसे कहना चाहूँगा कुछ गीतकार मुश्किल से आठ या दस जिनमें से चार भोपाल शहर से और कुछ गाजियाबाद और एक या दो शायद कानपुर और साहिबाबाद से आते हैं। इन मूर्खाधिराजों को उम्र के चौथेपन तक इतनी सी बात समझ में नहीं आ सकी की नवगीत ने कभी भी गीत का विरोध नहीं किया बल्कि नवगीत ने अपना फॉमेट गीत से ही लिया है और मरते हुये गीत को जिंदा रखने का काम नवगीत ने ही किया है।
इस बात को समझे बिना इन बेतालों का काम पारम्परिक गीत की लाश को ढोते रहना ही रहा है और आज भी यथावत जारी है। समय और परिस्थितियों के बदलते ही कथ्य में परिवर्तन होना स्वाभाविक और सामान्य सी प्रक्रिया है। लिजलिजे,भावुक घिसेपिटे कथ्य के यह पारम्परिक गीतप्रेमी, नवगीत रचने वालों के सर पर अकारण सवार होने की पूरी कोशिश में लग जाते हैं।
बिना बहस किये इन प्रेतों को सिर से उतार फेंके! आज के लिए इतना ही कहने का आशय यह कि यदि आप नवगीत का विरोध करते हैं तो प्रकारान्तर से आप गीत का ही विरोध करते हैं। नवगीत को कोसने की बजाय नवगीत विषयक अपनी समझ को दुरुस्त करें।
मनोज जैन
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प्रस्तुति
वागर्थ
आइए पढ़ते हैं डॉ कृष्ण कुमार नाज़ साहब के दो गीत
एक
सामर्थ्यवान तुम
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शब्दकोश सामर्थ्यवान तुम
मैं तो एक निरर्थक अक्षर
अपनी शक्ति मुझे भी दे दो
अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर
तुम श्रद्धा के पात्र और मैं
निष्ठा से परिपूर्ण पुजारी
तुम सूरज जाज्वल्यमान हो
मैं नन्हीं सी किरण तुम्हारी
तुम देवालय, तुम्हीं देवता
मैं तो एक अपावन पत्थर
अपनी शक्ति मुझे भी दे दो
अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर
सारे अर्थ निहित हैं तुममें
तुम उदार, करुणा के सागर
मेरा जीवन ऋणी तुम्हारा
भर दो मेरी रीती गागर
तुम विस्तृत आकाश और मैं
निर्धन का छोटा-सा छप्पर
अपनी शक्ति मुझे भी दे दो
अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर
वेद,पुराण,उपनिषद,गीता,
रामायण में वास तुम्हारा
झलक तुम्हारी पा जाने को
उत्सुक रहता है जग सारा
तुम सुख की बहती सरिता,मैं-
दुख का एक चिरंतन निर्झर
अपनी शक्ति मुझे भी दे दो
अधिक नहीं,केवल चुटकी-भर
दो
दुनियाभर का खेल-तमाशा
दर्शक बनकर देख रहा हूँ
दुनियाभर का खेल-तमाशा
आस कहीं पाई चुटकीभर
और कहीं पर घोर निराशा
जिस क्षण मुश्किल हो जाता है
अपनों से सम्मान बचाना
मन को बोझिल कर देता है
संबंधों का ताना-बाना
कैसे आख़िर पहचानूँ मैं
चेहरों से ऐसे लोगों को
भेष बदलकर हो जाते जो
पल में तोला, पल में माशा
सब चेहरों पर सजे मुखौटे
सबने चढ़ा रखे दस्ताने
भ्रम का ओवरकोट पहनकर
बरबस लगते हाथ मिलाने
भाषा की मर्यादा तजकर
अनुशासन का पाठ पढ़ाते
बोली में विष घोल रहे हैं
रख दाँतों के बीच बताशा
सज्जनता का करें प्रदर्शन
साधारण क्या, नामचीन भी
किंतु निकलते हैं भीतर से
निपट खोखले, सारहीन भी
शिष्टाचार छपा है इनके
रँगे-पुते चेहरों पर, लेकिन-
गाढ़े मेकप के पीछे से
झाँक रही है घनी हताशा
-डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़'
परिचय
नाम : डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’
साहित्यिक गुरु : श्री कृष्णबिहारी 'नूर'
पिता : श्री रामगोपाल वर्मा
जन्मतिथि। : 10 जनवरी, 1961
जन्मस्थान : ग्राम कूरी रवाना, ज़िला मुरादाबाद (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. (समाजशास्त्र, उर्दू व हिंदी), बी.एड., पी-एच.डी. (हिंदी)
संप्रति : शासकीय सेवा से निवृत्त
प्रकाशित कृतियाँ :
1. इक्कीसवीं सदी के लिए (ग़ज़ल-संग्रह),1998
2. गुनगुनी धूप (ग़ज़ल-संग्रह), 2002 व 2010
3. मन की सतह पर (गीत-संग्रह), 2003
4. जीवन के परिदृश्य (नाटक-संग्रह), 2010
5. उगा है फिर नया सूरज (ग़ज़ल-संग्रह), 2013 व 2022
6. हिन्दी ग़ज़ल और कृष्णबिहारी ‘नूर’, 2014
7. व्याकरण ग़ज़ल का (2016, 2018 व 2023)
8. नई हवाएँ (ग़ज़ल-संग्रह), 2018
9. साथ तुम्हारे (गीत-संग्रह), 2022
10. दिये से दिया जलाते हुए (ग़ज़ल-संग्रह), 2023
11. प्रश्न शब्दों के नगर में (साक्षात्कार-संग्रह), 2023
12. क़ाफ़िया (नए दृष्टिकोण के साथ तुकांत का प्रयोग) 2023
संपादन :
1. दोहों की चौपाल (2010), वाणी प्रकाशन
2. रंग-रंग के फूल (2019), किताबगंज प्रकाशन
3. नवगीत-मंथन (2019), किताबगंज प्रकाशन
4. बालगीत-मंथन (2019), किताबगंज प्रकाशन
संपर्क : 9/3, लक्ष्मी विहार, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद-244105 (उ.प्र).
मोबा. : 99273-76877, 98083-15744
email : kknaaz1@gmail.com
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