वागर्थ में आपका स्वागत है !
प्रस्तुत है वरिष्ठ नवगीतकार आदरणीय वीरेंद्र निर्झर जी के
दो गीत!
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ओठों पर लगे पहरे ॑
संकलन से एक बेचारगी का गीत
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सचमुच हम कितने बेचारे
लड़ते रहे समय से हरदम
लेकिन अपनों से ही हारे
अपनी अपनी राह सभी की
अपनी अपनी चाह सभी की
सबके रंग ढंग अपने-अपने
किसको कैसे कौन संभारे।
चुप चुप सब कुछ सुनते-सुनते
ऊब गए खालीपन बुनते
परछाईं भी बात न पूछे
खांस रहे बेवजह उसारे ।
नदी बह रही है मनमानी
प्यास किसी ने कभी न जानी
उखड़ गए घाटों के पत्थर
गोल तिकोने सभी सहारे ।
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आज की इस प्रगति और विडंबना पर एक गीत
क्या कहें हम
आज के इस ठाट के
हो गए हैं लोग बारह बाट के ।
दौड़ते इस समय में
सब हैं मशीनों की तरह
और अदनी बात पर भी
कर रहे बरसों जिरह
रोपते हैं फूल फल
तरु को जड़ों से काट के
दहकती सी रेत में
चलकर बिताई यह उमर
किसी ने दो शब्द
मरहम के नहीं बोले मगर
शनी की ढैया हुए हैं
घट हुए अरघाट के ।
धड़कने दीवाल घड़ियों सी
समय का बोध हैं
और समझौते प्रगति के
नपुंसक प्रतिरोध हैं
टूटी अदवाइन हुए दिन
अधबिनी सी खाट के
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आदरणीय वीरेंद्र कुमार स्वर्णकार
" निर्झर "जी का जन्म 1949 को महोबा उत्तरप्रदेश में हुआ था,आपने एम ए,हिंदी से की,आपको पी एच डी की उपाधि प्राप्त है, आप वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक रहे है अनेक साहित्यिक संस्थाओं में आप पदाधिकारी है ,आपकी कृतियां
होंठो पर लगे पहरे,
विप्लब के पल, ठमक उठी चौपाल ,सपने हाशियों पर,आदि है ,आदरणीय निर्झर जी ने हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में लेखन कार्य किया है।
संप्रति,,,
निदेशक
डा जाकिर हुसैन ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूट बुरहानपुर मध्यप्रदेश
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