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५१ बाल कविताएँ अम्मा को अब भी है याद
५१ बाल कविताएँ
अम्मा को अब भी है याद
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
अंतरजाल पर उपलब्ध ये बाल कवितायेँ बच्चों-बड़ों की पहुँच से दूर नहीं हैं |एक ही जगह उपलब्ध हों इसलिए पुस्तक के पन्नों में संजोकर भी प्रस्तुत कर रहे हैं | आपकी पसंद से मुझे भी प्रसन्नता होगी |
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
* अनुक्रम *
१-रूठी बिन्नू
२-रखो पकड़कर समय
३-नाचो-कूदो-गाओ
४-अपना फ़र्ज़ निभाता पेड़
५- खुद सूरज बन जाओ न
६-अम्मा को अब भी याद
७-धूप उड़ गई
८-खुशियों के मज़े
९-नानी आज अकेली है
१०-जीत के परचम
११- शीत लहर फिर आई
१२-बूँदों की चौपाल
१३-तोता हरा-हरा
१४ -कम्प्यूटर पर चिड़िया
१५-ई मेल से धूप
१६-छूना है सूरज के कान
१७-नानी मुझसे नहीं छुपाओ
१८-मंदिर जैसी माँ
१९-उठ जाओ अब मेरे लल्ला
२०-सूरज चाचा कैसे हो?
२१-ऊधम की रेल
२२-होगी पेपरलेस पढ़ाई
२३-हाथी बड़ा भुखैला
२४-पानी नहीं नहानी में
२५-पिज़्ज़ा के पेड़
२६-कहाँ जाएँ हम
२७-आम का पना
२८-अगर पेड़ में रूपये फलते
२९-जानवरों के उसूल
३०-श्रम करने से रूपये मिलते
३१-इनको करो नमस्ते जी
३२-अन्धकार की नहीं चलेगी
३३-डाँट पड़ेगी नानी से
३४-अम्मू ने फिर छक्का मारा
३५-जंगल की बात
३६-दादी माँ के घर झूले
३७-पर्यावरण बचा लेंगे हम
३८-सोच रहा हूँ
३९-हिंदी के हम होलें
४०-वोट डालने जाएँ
४१-ताली खूब बजाएँगे
४२-रेन बसरा
४३-बोल पगे हैं शक़्कर से
४४-झब्बू का नया साल
४५-क्यों कैसे?
४६-दादा दादी बहुत रिसाने
४७-सूरज को संदेशा दो माँ
४८-बात याद है गाँधी वाली
४९-हद हो गई शैतानी की
५०-हवा भोर की
५१-गप्पीमल की गप्प
१
रूठी बिन्नू
रूठी-रूठी बिन्नूजी हैं ,
मना रहे हैं भैयाजी।
बिन्नू कहती टिकट कटा दो,
हमें रेल से जाना है।
पर भैया क्या करे बेचारा
खाली पड़ा खजाना है।
कौन मनाए रूठी बिन्नू,
कोई नहीं सुनैयाजी।
बिन्नू कहती ले चल मेला,
वहाँ जलेबी खाऊँगी |
झूले में झूला झूलूँगी,
बादल से मिल आऊँगी |
मेला तो दस कोस दूर है,
साधन नहीं मुहैयाजी।
मत रूठो री प्यारी बहना,
तुमको ख़ूब घुमाऊँगा |
धैर्य रखो मैं जल्दी-जल्दी,
खूब बड़ा हो जाऊँगा |
चना-चिरौंजी, गुड़ की पट्टी,
रोज खिलाऊँ लैयाजी।
जादू का घोड़ा लाऊँगा,
उस पर तुझे बिठाऊँगा।
ऐड़ लगाकर पूँछ दबाकर,
घोड़ा ख़ूब भगाऊँगा
अम्बर में हम उड़ जाएँगे,
जैसे उड़े चिरैयाजी|
२
रखो पकड़कर समय
चिड़िया बोली,
राम -राम जी ।
उठो, करो कुछ ,
काम धाम जी।
सूरज ऊगा कब से तुम,
अब तक न जागे।
इसी बीच में दुनियाँ गई,
बढ़ मीलों आगे।
ऐसे ही क्या उम्र करोगे,
तुम तमाम जी।
सूरज चंदा तारों का ,
जीवन अविरल है।
नदी कहाँ रुकती, बहती,
रहती कलकल है।
मिलता श्रम करने से ही तो,
है इनाम जी ।
एक -एक पल मोती सा,
अनमोल बहुत है।
ज्ञान और विज्ञान सभी,
का ही ये मत है।
रखो पकड़कर समय न छूटे,
अब लगामजी जी।
३
नाचो-कूदो-गाओ
झोलक-झोलक, झम्मा-झम्मा,
उइ अम्मा, उइ अम्मा।
तोता-मैना नाच रहे हैं,
छत पर छम्मा-छम्मा।
नाच देखकर कोयल दीदी,
दौड़ी-दौड़ी आई।
हाथ पकड़ कर कौए का भी,
खींच-खींच कर लाई।
फिर दोनों ही लगे नाचने,
धुम्मा-धुम्मा-धुम्मा।
शोर हुआ छत पर तो सारे,
पंछी दौड़े आए।
ढोल-मंजीरा तबला-टिमकी,
बाँध गले में लाए।
खूब बजा संगीत नाच पर,
ढमर-ढमर, ढम ढम्मा।
कुत्ते-बिल्ली गाय-बैल भी,
बीच सड़क पर नाचे।
खुशियों वाले पर्चे लेकर,
सब घर-घर में बाँटे।
पर्चे पढ़कर नाचे दादा,
दादी-बापू-अम्मा।
पर्चों में यह लिखा हुआ था,
खुशियाँ रोज मनाओ।
छोड़ो दुःख का रोना-धोना,
नाचो-कूदो-गाओ।
धूम मची तो लगे नाचने,
सोनू-मोनू-पम्मा।
४
अपना फ़र्ज़ निभाता पेड़
दादाजी-दादाजी बोलो,
पेड़ लगा जो आँगन में।
इतना बड़ा हुआ दादाजी,
बोलो तो कितने दिन में?
मुझको यह सच-सच बतलाओ,
किसने इसे लगाया था।
हरे आम का खट्टा-खट्टा,
फल इसमें कब आया था?
मात्र बरस दस पहले मैंने,
बेटा इसे लगाया था।
हुआ बरस छह का था जब ये,
तब पहला फल आया था।
बीज लगाया था जिस दिन से,
खाद दिया, जल रोज दिया।
पनपा खुली हवा में पौधा,
मिली धूप तो रूप खिला।
तना गया बढ़ता दिन पर दिन,
डाली पर फुनगे फूटे।
हवा चली जब सर-सर-सर सर,
गान पत्तियों के गूँजे.
पहला फूल खिला डाली पर,
विटप बहुत मुस्काया था।
जब बदली मुस्कान हँसी में,
तब पहला फल आया था।
तब से अब तक हम सबने ही,
ढेर-ढेर फल खाये हैं।
जब से ही यह खड़ा बेचारा,
अविरल शीश झुकाये है।
इसे नहीं अभिमान ज़रा भी,
कुछ भी नहीं मंगाता है,
बस देते रहने का हरदम,
अपना फ़र्ज़ निभाता है।
५
खुद सूरज बन जाओ न
चिड़िया रानी, चिड़िया रानी,
फुर्र-फुर्र कर कहाँ चली।
दादी अम्मा जहाँ सुखातीं,
छत पर बैठीं मूंगफली।
चिड़िया रानी चिड़िया रानी,
मूंग फली कैसी होती।
मूंग फली होती है जैसे,
लाल रंग का हो मोती।
चिड़िया रानी चिड़िया रानी,
मोती मुझे खिलाओ न।
बगुला भगत बने क्यों रहते,
बनकर हंस दिखाओ न।
चिड़िया रानी, चिड़िया रानी,
हंस कहाँ पर रहते हैं।
काम भलाई के जो करते,
हंस उन्हीं को कहते हैं।
चिड़िया रानी चिड़िया रानी,
भले काम कैसे करते।
सूरज भैया धूप भेजकर,
जैसे अँधियारा हरते।
चिड़िया रानी चिड़िया रानी,
सूरज से मिलवाओ न।
अपना ज्ञान बाँटकर सबको,
खुद सूरज बन जाओ न।
६
अम्मा को अब भी है याद
नाना खेतों में देते थे,
कितना पानी, कितना खाद।
अम्मा को अब भी है याद।
उन्हें याद है बूढ़न काकी,
सिर पर तेल रखे आती थीं।
दीवाली पर दिये कुम्हारिन,
चाची घर पर रख जाती थीं।
मालिन काकी लिये फुलहरा,
तीजा पर करती संवाद।
अम्मा को अब भी है याद।
चना चबेना नानी कैसे,
खेतों पर उनसे भिजवातीं।
उछल कूद करते -करते वे,
रस्ते में मस्ताती जातीं।
खुशी-खुशी देकर कुछ पैसे,
नानाजी देते थे दाद।
अम्मा को अब भी है याद।
खलिहानों में कभी बरोनी,
मौसी भुने सिंगाड़े लातीं।
उसी तौल के गेहूँ लेकर,
भरी टोकनी घर ले जातीं।
वही सिंगाड़े घर ले जाने,
अम्मा सिर पर लेतीं लाद।
अम्मा को अब भी है याद।
छिवा- छिवौअल गोली कंचे,
अम्मा ने बचपन में खेले,
नाना के सँग चाट पकौड़ी,
खाने वे जातीं थीं ठेले।
छोटे मामा से होता था,
अक्सर उनका वाद विवाद।
अम्मा को अब भी है याद।
नानी थी धरती से भारी,
नाना थे अंबर से ऊँचे।
हँसते- हँसते बतियाते थे,
सब दिन उनके बाग बगीचे।
घर आँगन में गूँजा करते,
हर दिन खुशियों से सिंह नाद।
अम्मा को अब भी है याद |
७
धूप उड़ गई
अभी-अभी छत पर बैठी थी,
अभी हो गई फुर्र।
काना बाती कुर्र चिरैया,
काना बाती कुर्र।
उदयाचल के नरम बिछौने,
पर सूरज का डेरा।
पकड़ हाथ में किरणें उसने,
भू पर झाड़ू फेरा।
फैली थी कोहरे की चादर,
फटी ज़ोर से चुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
धूप खिली तो आँगन चूल्हे,
चाय चढ़ाती दादी।
चाय नाश्ता आकर कर लो,
घर में पिटी मुनादी।
कप सॉसर से चाय सभी के,
मुँह में जाती सुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
भाभी हँसकर दाल धो रही,
चाची बीने चावल।
सूरज खेल रहा बादल सँग,
पल-पल, छुपा-छुपऊ अल ।
अम्मा मटके से ले आई,
मुट्ठी भर अम चुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
ज़रा देर में फिर कोहरे ने,
अपनी चादर तानी।
आसमान में देख रहे सब,
किसकी यह शैतानी।
पल भर में ही धूप उड़ गई,
आँगन में से हुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
८
खुशियों के मज़े
फुलवारी-सी दादी मेरी,
बाग बगीचा दादा।
दादीजी ममता कि मूरत,
जी भर नेह लुटातीं ।
लाड़ प्यार की बूँदें बनकर,
बच्चों पर झर जातीं।
प्यार भरी झिड़की देती हैं,
पर चेहरा मुस्काता।
वाणी, दादाजी की ऐसी,
जैसे झरने गाते।
हँसी फुलझड़ी जैसी होती,
फूलों से मुस्काते।
मस्ती में रहते, जैसे हों,
ख़ुशी नगर के राजा।
घर के सभी, नन्हियाँ-नन्हें,
तितली से मंडराते।
घेर-घेर दादा दादी को,
अल्हड़ गीत सुनाते।
जो भी घर आता खुशियों के,
मजे लूट ले जाता |
९
नानी आज अकेली है
क्यों अब बनी पहेली है |
नानी आज अकेली है |
बात नहीं अब करता कोई ,
घर में नाना नानी से|
गुड़िया रानी को अब मतलब ,
रहता नहीं कहानी से |
बचपन में नाना-नानी के,
सँग में हर दिन खेली है |
क्रिसमस की छुट्टी में नाती ,
नातिन घर में आये हैं |
लेकिन मोबाइल में दोनों ,
बैठे आँख गड़ाए हैं |
मोबाइल से ही करतें हैं,
पल-पल वे अठखेली है |
ऐसा कुछ क्या हुआ चमन में ,
फूल नहीं अब मुस्काते |
कर दी बंद महक फैलाना,
सब सुगंध खुद पी जाते |
यही अराजकता किस कारण,
दुनियाँ भर में फैली है ?
१०
जीत के परचम
मन को लुभा रहे हैं,
ये फूल गुलमोहर के।
ये लाल -लाल लुच- लुच
डालों पे डोलते हैं।
कुछ ध्यान से सुनों तो,
शायद ये बोलते हैं।
सब लोग देखते हैं,
इनको ठहर -ठहर के।
चुन्ना ने एक अंगुली ,
उस और है उठाई।
देखा जो गुलमोहर तो,
चिन्नी भी खिलखिलाई।
मस्ती में धूल झूमे,
नीचे बिखर -बिखर के।
हँसते हैं मुस्कुराते,
ये सूर्य को चिढ़ाते।
आनंद का अंगूठा,
ये धूप को दिखाते।
हैं जीत के ये परचम ,
उड़ते फहर- फहर के।
११
शीत लहर फिर आई
गलियों में शोर हुआ,
शोर हुआ सडकों पर।
शीत लहर फिर आई।
भजियों के दौर चले,
कल्लू के ढाबे में।
ठण्ड नहीं आई है,
फिर भी बहकावे में।
गरम चाय ने की है,
थोड़ी-सी भरपाई।
शीत लहर फिर आई।
मुनियाँ की नाक बही,
गीला रूमाल हुआ।
शाळा में जाना भी,
जी का जंजाल हुआ।
आँखों की गागर ही,
आँसू से भर आई।
शीत लहर फिर आई।
दादाजी, दादी को,
दे रहे उलहने हैं।
स्वेटर पहिनो, हम तो,
चार-चार पहिने हैं।
अम्मा भी सिगड़ी के,
कान ऐंठ है आई।
शीत लहर फिर आई |
१२
बूँदों की चौपाल
हरे-हरे पत्तों पर बैठे,
हैं मोती के लाल।
बूँदों की चौपाल सजी है,
बूँदों की चौपाल।
बादल की छन्नी में छनकर,
आई बूँदों,मचल-मटक कर।
पेड़ों से कर रहीं जुगाली,
बतयाती बैठी डालों पर।
नवल-धवल फूलों पर बैठे,
जैसे हीरालाल।
बूँदों की...
सर-सर हिले हवा में पत्ते
जाते दिल्ली से कलकत्ते।
बिखर-बिखर कर गिर-गिर जाते,
बूँदों के नन्हें से बच्चे।
भीग गई रिमझिम बूँदों से,
आँगन रखी पुआल।
बूँदों की...
पीपल पात थरर- थर काँपा ।
कठिन लग रहा आज बुढ़ापा।
बूँदों,हवा मारती टिहुनी,
फिर भी नहीं खो रहा आपा।
उसे पता है आगे उसका,
होना है क्या हाल।
बूँदों की...
१३
तोता हरा- हरा
बच्चों ने डाली पर देखा
तोता हरा-हरा।
पत्तों के गालों पर उसने,
चुंटी काटी कई-कई बार।
पत्तों का भी उस तोते पर,
उमड़ रहा था भारी प्यार।
बहुत भला सुंदर तोता वह,
था निखरा-निखरा।
पत्तों से मुँह जोरी करके,
तोते ने फिर भरी उड़ान।
वहीं पास के एक पेड़ पर,
अमरूदों के काटे कान।
बेरी के तरुवर पर जाकर,
एक बेर कुतरा।
कैद किए बच्चों ने करतब,
अपने मोबाइल में बंद।
तोते की मस्ती चुस्ती का,
लिया अलौकिक-सा आनंद।
फुर्र हुआ तोता, पेड़ों पर,
सन्नाटा पसरा।
१४
कम्प्यूटर पर चिड़िया
बहुत देर से कम्प्यूटर पर,
बैठी चिड़िया रानी।
बड़े मजे से छाप रही थी,
कोई बड़ी कहानी।।
तभी अचानक चिड़िया ने जब,
गर्दन जरा घुमाई।
किंतु न जाने किस कारण वह,
जोरों से चिल्लाई।।
कौआ भाई फुदक-फुदक कर,
शीघ्र वहाँ पर आए।
'तुम्हें क्या हुआ बहन चिरैया',
कौआ जी घबराए।।
चिड़िया बोली 'पता नहीं यह,
कैसी है लाचारी।
दर्द भयंकर, मुझे हुआ है,
अकड़ी गर्दन सारी।'
तब कौए ने गिद्ध वैद्य से,
उसकी जाँच कराई ।
वैद्यराज ने सर्वाई कल,
की बीमारी पाई।।
कम्प्यूटर पर काम देर तक,
करती है बेचारी |
लगातार बैठे रहने से,
हुई उसे बीमारी |
काम अनवरत कम्प्यूटर पर,
करना है दुखदाई |
दर्द उठे तो नियमित कसरत,
करना बर्फ सिकाई |
कभी बैठकर,कभी खड़े में,
भी कर सकते काम |
नए उपकरण,नए तरीके,
हैं उपलब्ध तमाम |
१५
ई मेल से धूप
हमें बताओ कैसे भागे,
आप रात की जेल से।
सूरज चाचा ये तो बोलो,
आये हो किस रेल से।
हमें पता है रात आपकी,
बीती आपाधापी में।
दबे पड़े थे कहीं बीच में,
अँधियारे की कापी में।
अश्व आपके कैसे छूटे?,
तम की कसी नकेल से।
पूरब की खिड़की का परदा,
रोज खोलकर आ जाते।
किन्तु शाम की रेल पकड़कर,
मुँह उदास वापस जाते।
लगता है थक जाते दिन की,
धमा चौकड़ी खेल से।
रोज- रोज की भागा दौड़ी ,
तुम्हें उबा देती चाचा।
शायद इसी चिड़चिडे पन से,
गरमी में खोते आपा।
कड़क धूप हम तक भिजवाते,
गुस्से में ई मेल
१६
छूना है सूरज के कान
तीन साल के गुल्लू राजा,
हैं कितने दिलदार दबंग।
जब रोना चालू करते हैं,
रोते रहते बुक्का फाड़।
उन्हें देखकर मुस्काते हैं,
आँगन के पौधे और झाड़।
जब मरजी कपड़ों में रहते,
जब जी चाहे रहें निहंग।
नहीं चाँद से डरते हैं वे,
तारों की तो क्या औकात।
डाँट डपट कर कह देते हैं,
नहीं आपसे करते बात।
जब चाहे जब कर देते हैं,
घर की लोकसभाएँ भंग।
आज सुबह से मचल गए हैं,
छूना है सूरज के कान।
चके लगाकर सूरज के घर,
पापा लेकर चलो मकान।
दादा दादी मम्मी को भी,
ले जाएँगे अपने संग |
१७
नानी मुझसे नहीं छुपाओ
सच्ची-सच्ची बात बताओ,
नानी मुझसे नहीं छुपाओ।
है नाना ने नानी तुमको,
कभी चिकोटी काटी क्या?
अक्ल नापने की मशीन से,
अक्ल तुम्हारी नापी क्या?
याद करो अच्छे से नानी,
हँसकर मुझे नहीं बहलाओ।
क्या नानाजी तुम्हें घुमाने,
पार्क कभी ले जाते थे?
कहीं किसी ठेले पर जाकर,
चाट तुम्हें खिलवाते थे?
इसमें डरना कैसा नानी,
बतला भी दो न शरमाओ।
कभी गईं हो क्या तुम नानी,
नाना के संग मेले में?
दोनों कहीं किसी होटल में,
बैठे कभी अकेले में?
भेद नहीं खोलूँगी नानी,
मुझसे बिलकुल न घबराओ।
सुनकर हँसी जोर से नानी,
बोली बेटी हाँ-हाँ-हाँ।
सब करते हैं धींगा मस्ती,
नाना करते क्यों ना-ना।
अब ज़्यादा न पूछो बिट्टो,
मारूँगी, अब भागो जाओ |
१८
मंदिर जैसी माँ
बड़े ही भोर में उठकर,
हमें माँ ने जगाया है।
कठिन प्रश्नों के हल क्या हैं,
बड़े ढंग से बताया है।
किताबें क्या रखें, कितनी रखें,
हम आज बस्ते में,
सलीके से हमारे बेग को,
माँ ने जमाया है।
बनाई चाय अदरक की,
पराँठे भी बनाये हैं।
हमारे लंच पेकिट को,
करीने से सजाया है।
हमारे जन्म दिन पर आज खुद,
माँ ने बगीचे में।
बड़ा सुंदर सलोना-सा,
हरा पौधा लगाया है।
फरिश्तों ने धरा पर,
प्रेम करुणा और ममता को।
मिलाकर माँ सरीखा दिव्य,
एक मंदिर बनाया है।
१९
उठ जाओ अब मेरे लल्ला
तारों ने मुँह फेर लिया है ,
अस्ताचल में छुपा अन्धेरा |
पूरब के मुँह पर ऊषा ने,
कूची से भगवा रंग फेरा |
उठ जाओ अब मेरे लल्ला ,
तुम्हें अभी शाला जाना है |
कौओं चिड़ियों की आवाज़ें ,
छत ,मुँडेर पर लगीं गूँजने |
सूरज भी आने वाला है,
अभी- अभी ही क्षितिज चूमने |
हवा बाँसुरी बजा रही है ,
कोयल को गाना गाना है |
हरे- भरे पत्तों पर, उठकर ,
देखो कैसी ओस दमकती |
पारिजात के पुष्प दलों से ,
भीनी मंद सुगंध महकती |
बस थोड़ी सी देर और है ,
आँगन धूप उतर आना है |
देखो तो पिंजरे की मैना ,
फुदक-फुदक कर बोल रही है |
सुन लो उसकी मीठी बोली,
कानों में रस घोल रही है |
हो जाओ तैयार तुम्हें अब ,
राजा बेटा बन जाना है |
२०
सूरज चाचा कैसे हो
सूरज चाचा कैसे हो,
क्या इंसानों जैसे हो ?
बिना दाम के काम नहीं,
क्या तुम भी उनमें से हो?
बोलो -बोलो क्या लोगे?
बादल कैसे भेजोगे?
चाचा जल बरसाने का,
कितने पैसे तुम लोगे?
पानी नहीं गिराया है |
बूँद-बूँद तरसाया है |
एक टक ऊपर ताक रहे,
बादल को भड़काया है।
चाचा बोले गुस्से में |
अक्ल नहीं बिल्कुल तुममें |
वृक्ष हज़ारों काट रहे |
पर्यावरण बिगाड़ रहे।
ईंधन खूब जलाया है |
ज़हर रोज़ फैलाया है |
धुँआ-धुँआ अब मौसम है |
गरमी नहीं हुई कम है।
बादल भी कतराते हैं |
नभ में वे डर जाते हैं |
पर्यावरण सुधारोगे |
ढेर -ढेर जल पा लोगे।
२१
ऊधम की रेल
क्यों करते हो बाबा ऊधम,
नहीं बैठते हो चुपचाप |
अपने कमरे में दादाजी,
पेपर पढ़ते होकर मौन।
दादीजी चिल्लातीं, चुप रह,
जब बेमतलब बजता फोन।
शोर-शराबा हल्ला-गुल्ला,
उनको लगता है अभिशाप।
उछल-कूद या चिल्ल-चिल्ल पों,
पापा को भी लगे हराम।
गुस्से के मारे कर देते,
चपत लगाने तक का काम।
भले बाद में बहुत देर तक।
करते रहते पश्चाताप।
पर मम्मी कहतीं हो-हल्ला,
ही तो है बच्चों का खेल।
उन्हें भली लगती जब चलती,
छुक-छुक-छुक ऊधम की रेल।
उन्हें बहुत भाते बच्चों के,
धूम धड़ाकों के आलाप।
२२
होगी पेपर लेस पढ़ाई
होगी पेपरलेस पढ़ाई,
बहुत आजकल हल्ला।
काग़ज़ की तो शामत आई,
बहुत आजकल हल्ला।
काग़ज़ पेन किताबों की तो,
कर ही देंगे छुट्टी।
बस्ते दादा से भी होगी,
पूरी-पूरी कुट्टी।
पर होगी कैसे भरपाई,
बहुत आजकल हल्ला।
रबर पेंसिल परकारों का,
होगा काम न बाकी।
चाँदा सेटिस्क्वेयर कटर भी,
होंगे स्वर्ग निवासी।
होगी कैसे सहन जुदाई,
बहुत आजकल हल्ला।
ब्लेक बोर्ड का क्या होगा अब,
रोज़ पूछते दादा।
पेपरलेस पढ़ाई वाला,
होगा पागल आधा।
चाक करेगी खूब लड़ाई |
बहुत आजकल हल्ला।
कभी किराना ,सब्जी लेने,
जब दादाजी जाते।
लेकर पेन किसी कापी में ,
सब हिसाब लिख लाते।
हाय करें अब कहाँ लिखाई,
बहुत आजकल हल्ला।
रखे हाथ पर हाथ रिसानी,
बैठी मालिन काकी।
काग़ज़ पर ही तो लिखती हैं,
जोड़ घटाकर बाकी।
कर्ज़ बसूले कैसे भाई,
बहुत आजकल हल्ला।
काग़ज़ पेन किताबें ओझल,
कैसी होगी आँधी।
पूछो तो इन बातों से क्या,
सहमत होंगे गाँधी।
यह तो होगी बड़ी ढिठाई,
बहुत आजकल हल्ला।
२३
हाथ बड़ा भुखैला
हाथी बड़ा भुखेला अम्मा,
हाथी बड़ा भुखेला।
खड़ा रहा मैं ठगा ठगा-सा,
खाए अस्सी केला अम्मा,
खाए अस्सी केला।
सूंड़ बढ़ाकर रोटी छीनी,
दाल फुरक कर खाई।
चाची ने जब पुड़ी परोसी,
लपकी और उठाई।
कितना खाता पता नहीं है,
पेट बड़ा-सा थैला अम्मा,
पेट बड़ा-सा थैला।
चाल निराली थल्लर-थल्लर,
चलता है मतवाला।
राजा जैसे डग्गम-डग्गम,
जैसे मोटा लाला।
पकड़ सूंड़ से नरियल फोड़ा,
पूरा निकला भेला अम्मा,
पूरा निकला भेला।
पैर बहुत मोटे हैं उसके,
ज्यों बरगद के खंभे।
मुँह के अगल-बगल में चिपके,
दाँत बहुत हैं लंबे।
रहता राजकुमारों जैसा,
पास नहीं है धेला अम्मा |
पास नहीं है धेला।
पत्ते खाता डाल गिराता,
ऊधम करता भारी।
लगता थानेदार सरीखा,
बहुत बड़ा अधिकारी।
पेड़ उठाकर इस कोने से,
उस कोने तक ठेला अम्मा|
उस कोने तक ठेला।
२४
पानी नहीं नहानी में
जरा ठीक से देखो बेटे,
पानी नहीं नहानी में|
तुमको आज नहाना होगा
इक लोटे भर पानी में।
नहीं बचा धरती पर पानी,
बहा व्यर्थ मन मानी में|
खूब मिटाया हमने-तुमने,
पानी यूँ नादानी में।
बीस बाल्टी पानी सिर पर,
डाला भरी जवानी में|
पानी को जी भर के फेका,
बिना विचारे पानी में।
ढेर-ढेर पानी मिलता था,
सबको कौड़ी-कानी में|
अब तो पानी मोल बिक रहा,
पैसा बहता पानी में |
कितना घाटा उठा चुके हैं,
हम अपनी मनमानी में|
ऐसा न हो, शेष बचे अब,
पानी कथा कहानी में |
२५
पिज़्ज़ा के पेड़
पिज्जा के मैं पेड़ लगाऊँ।
बर्गर के भी बाग़ उगाऊँ।
मिलें बीज अच्छे-अच्छे तो,
क्यारी में नूडल्स बोआऊँ।
चॉकलेट का घर बनवाऊँ।
च्युंगम की दीवार उठाऊँ।
चिप्स कुरकुरे चाऊमिन से,
परदे नक्कासी करवाऊँ।
बिस्कुट के मैं टाइल्स लगाऊँ।
कालीनों पर ब्रेड बिछाऊँ।
गुलदस्ते वाले गमलों में,
रंग-बिरंगी केक सजाऊँ।
छोटा भीम कभी बन जाऊँ।
बाल गणेशा बन इतराऊँ।
तारक मेहता के चश्मे को,
उल्टे से सीधे करवाऊँ।
पर मम्मी-पापा के कारण।
जो सोचा वह कर ना पाऊँ।
नहीं मानते बात हमारी,
उनको अब कैसे समझाऊँ।
२६
कहाँ जाएँ हम
भालू चीता शेर सियार सब,
रहने आये शहर में|
बोले’अब तो सभी रहेंगे,
यहीं आपके घर में|’
तरुवर सारे काट लिये हैं ,
नहीं बचे जंगल हैं|
जहाँ देखिये वहीं दिख रहे,
बंगले और महल हैं|
अब तो अपना नहीं ठिकाना,
लटके सभी अधर में|
भालू चीता शेर सियार सब,
रहने आये शहर में|
जगह-जगह मैदान बन गये,
नहीं बची हरियाली|
जहाँ देखिये वहीं आदमी,
जगह नहीं है खाली|
अब तो हम हैं बिना सहारे,
भटके डगर-डगर में|
भालू चीता शेर सियार सब,
रहने आये शहर में|
पता नहीं कैसा विकास का,
घोड़ा यह दौड़ाया|
काट छाँट कर दिया,वनों का,
ही संपूर्ण सफाया|
बोलो-बोलो जाएँ कहाँ अब,
भर गरमी दुपहर में|
भालू चीता शेर सियार सब ,
रहने आये शहर में|
२७
आम का पना
मीठा है खट्टा है,
कुछ-कुछ नमकीन।
पी लो तो तबियत,
हो जाए रंगीन।
आम का पना है यह,
आम का पना।
चावल सँग खाओ तो,
बहुत मजा आता है।
गट-गट पी जाओ तो,
पेट सुधर जाता है।
पापा तो पी जाते,
पूरे कप तीन।
आम का पना है यह,
आम का पना ।
दादा को, दादी को,
काँच की गिलसिया में।
मैं तो भर लेता हूँ,
मिट्टी की चपिया में।
आधा पर मम्मी जी,
लेती हैं छीन।
आम का पना है यह,
आम का पना
२८
अगर पेड़ में रूपये फलते
टप्-टप्-टप्-टप् रोज टपकते,
अगर पेड़ में रुपये फलते |
सुबह पेड़ के नीचे जाते |
ढ़ेर पड़े रुपये मिल जाते |
थैलों में भर-भर कर रुपये,
हम अपने घर में ले आते |
मूँछों पर दे ताव रोज हम,
सीना तान अकड़के चलते |
कभी पेड़ पर हम चढ़ जाते |
जोर-जोर से डाल हिलाते |
पलक झपकते ढेरों रुपये,
तरुवर के नीचे पुर जाते |
थक जाते हम मित्रों के सँग,
रुपये एकत्रित करते-करते |
एक बड़ा वाहन ले आते |
उसको रुपयों से भरवाते |
गली-गली में टोकनियों से,
हम रुपये भरपूर लुटाते |
वृद्ध गरीबों भिखमंगों की,
रोज रुपयों से झोली भरते |
निर्धन कोई नहीं रह पाते |
अरबों के मालिक बन जाते |
होते सबके पास बगीचे,
बड़े-बड़े बंगले बन जाते |
खाते-पीते धूम मचाते,
हम सब मिलकर मस्ती करते |
२९
जानवरों के उसूल
एक छछूंदर धोती पहने,
गया कराने शादी।
उसके साथ गई जंगल की
आधी-सी आबादी।
जब छछूंदरी लेकर आईं,
फूलों की वरमाला।
छोड़ छछूंदर, चूहेजी को,
पहना दी वह माला।
इस पर कुंवर, छछूंदरजी का,
भेजा ऊपर सरका।
ऐसा लगा भयंकर बादल,
फटा और फिर बरसा।
बोला, अरी बावरी तूने,
ऐसा क्यों कर डाला।
मुझे छोड़कर चूहे को क्यों,
पहना दी वरमाला।
वह बोली -रे मूर्ख छछूंदर,
क्यों धोती में आया।
जानवरों के क्या उसूल हैं,
तुझे समझ ना आया।
सभी जानवर रहते नंगे,
यह कानून बना है।
जो कपड़े पहने रहते हैं,
उनसे ब्याह मना है।
३०
श्रम करने से रूपये मिलते
घर में रुपये नहीं हैं पापा,
चलो कहीं से क्रय कर लाएँ।
सौ रुपये कितने में मिलते,
मंडी चलकर पता लगाएँ।
यह तो पता करो पापाजी,
पाँच रुपये कितने में आते|
एक रुपये की कीमत क्या है,
क्यों इसका न पता लगाते।
नोट पाँच सौ का लेना हो,
तो हमको क्या करना होगा।
दस का नोट खरीदेंगे तो,
धन कितना व्यय करना होगा।
पापा बोले बाज़ारों में,
रुपये नहीं बिका करते हैं।
रुपये के बल पर दुनिया के,
सब बाज़ार चला करते हैं।
श्रम शक्ति के व्यय करने पर,
रुपये हमको मिल जाते हैं।
कड़े परिश्रम के वृक्षों पर,
रुपये फूलकर फल जाते हैं।
३१
इनको करो नमस्ते जी
आज गाँव से आए काका,
इनको करो नमस्तेजी।
जब-जब भी वे मिलने आते,
खुशियों की सौगातें लाते।
यादें सभी पुरानी लेकर,
मिलते हँसते - हँसते जी।
;
याद करो छुटपन के वे दिन,
कैसे बीते हैं वे पल छिन।
बचपन कंधे पर घूमा है,
इनके रस्ते-रस्ते जी।
जाते बाँदकपुर के मेले।
छह आने के बारह केले।
एक रूपये के दस रसगुल्ले!
मिलते कितने सस्तेजी !
काकाजी को खूब छकाया,
गलियों सड़कों पर दौड़ाया।
खोलो-खोलो बेटे खोलो,
स्मृतियों के बस्ते जी।
३२
अन्धकार की नहीं चलेगी
माँ बोलीं सूरज से बेटे,
हुई सुबह तुम अब तक सोए।
देख रही हूँ कई दिनों से,
रहते हो तुम खोए-खोए।
जाते हो जब सुबह काम पर,
डरे-डरे से तुम रहते हो।
क्या है बोलो कष्ट तुम्हें प्रिय,
साफ-साफ क्यों न कहते हो।
सूरज बोला सुबह-सुबह ही,
कोहरा मुझे ढाँप लेता है।
निकल सकूँ उसके चंगुल से,
कोई नहीं साथ देता है।
ऐसे में तो हिम्मत मेरी,
रोज पस्त होती रहती है।
विकट समय में बहन धूप भी,
मेरा साथ नहीं देती है।
माँ बोलीं हे पुत्र तुम्हारा,
कोहरा कब है क्या कर पाया।
उसके झूठे चक्रव्यूह को,
तोड़ सदा तू बाहर आया।
कवि कोविद जेठे सयाने सब,
देते सदा उदाहरण तेरा।
कहते हैं सूरज आया तो,
भाग गया है दूर अंधेरा।
हो निश्चिंत, कूद जा रण में,
विजय सदा तेरी ही होगी।
तेरे आगे कोहरे की या,
अंधकार की नहीं चलेगी।
३३
डाँट पड़ेगी नानी से
बादल को खूब गरजने दो,
बिजली को चमक दिखाने दो |
बूँदों की झम -झम बौछारें ,
भू पर झर-झरकर आने दो |
मैं ओसारे से हाथ बढ़ा ,
गिरते पानी को छेड़ूँगी |
चुल्लू में भर-भर कर पानी,
ठंडा- ठंडा मैं पी लूँगी |
लेकर छोटा सा छाता मैं ,
सड़कों पर धूम मचाऊँगी |
दोनों हाथों से घुमा -घुमा ,
मैं छाता खूब नचाऊँगी |
फिर हटा -हटा छाता सिर से,
बूँदों को मुँह पर झेलूँगी |
मुखड़े को थोड़ा हिला- डुला,
मैं बौछारों से खेलूँगी |
इच्छा तो होगी बहुत देर,
तक खेलूँ गिरते पानी से |
लेकिन ज्यादा देरी होगी ,
तो डाँट पड़ेगी नानी से |
३४
अम्मू ने फिर छक्का मारा
गेंद गई बाहर दोबारा,
अम्मू ने फिर छक्का मारा।
गेंद आ गई टप्पा खाई।
अम्मू ने की खूब धुनाई।
कभी गेंद को सिर पर झेला,
कभी गेंद की करी ठुकाई।
गूँजा रण ताली से सारा।
अम्मू ने फिर छक्का मारा।
कभी गेंद आती गुगली है।
धरती से करती चुगली है।
कभी बाउंसर सिर के ऊपर,
बल्ले से बाहर निकली है।
अम्मू को ना हुआ गवारा।
अम्मू ने फिर छक्का मारा।
साहस में न कोई कमी है।
साँस पेट तक हुई थमी है।
जैसे मछली हो अर्जुन की,
दृष्टि वहीं पर हुई जमी है।
मिली गेंद तो फिर दे मारा।
अम्मू ने फिर छक्का मारा।
कभी गेंद नीची हो जाए।
या आकर सिर पर भन्नाए।
नहीं गेंद में है दम इतना,
अम्मू को चकमा दे जाए।
चूर हुआ बल्ला बेचारा।
अम्मू ने जब छक्का मारा।
सौ रन कभी बना लेते हैं।
दो सौ तक पहुँचा देते हैं।
कभी-कभी तो बाज़ीगर से,
तिहरा शतक लगा देते हैं।
अपने सिर का बोझ उतारा।
अम्मू ने फिर छक्का मारा।
३५
जंगल की बात
जंगल के सारे पेड़ों ने,
डोंडी ऐसी पिटवा दी है।
बरगद की बेटी पत्तल की,
कल दोनेंजी से शादी है।
पहले तो दोनों प्रणय युगल,
वट के नीचे फेरे लेंगे।
संपूर्ण व्यवस्था भोजन की,
पीपलजी ने करवा दी है।
जंगल के सारे वृक्ष लता,
फल फूल सभी आमंत्रित हैं।
खाने पीने हँसने गाने,
की पूर्ण यहाँ आजादी है।
रीमिक्स सांग के साथ यहाँ,
सब बाल डांस कर सकते हैं।
टेसू का रँग महुये का रस,
पीने की छूट करा दी है।
यह आमंत्रण में साफ़ लिखा,
परिवार सहित सब आएँगे।
उल्लंघन दंडनीय होगा,
यह बात साफ़ बतलादी है।
वन प्रांतर का पौधा-पौधा,
अपनी रक्षा का प्रण लेगा।
इंसानों के जंगल प्रवेश,
पर पाबंदी लगवा दी है।
यदि आदेशों के पालन में,
इंसानों ने मनमानी की।
फतवा जारी होगा उन पर,
यह बात साफ़ जतलादी है।
३६
दादी माँ के घर झूले
घर की मियारी पर दादी ने,
डाले दो झूले रस्सी के।
चादर की घोची डाली है,
तब तैयार हुए हैं झूले।
अब झूलेगी चिक्की पिक्की,
चेहरे हैं खुशियों से फ़ूले।
इन्हें झुलाएँगे दादाजी,
हुए उमर में जो अस्सी के।
छप्पर पर पानी की बूँदें,
खरर-खरर कर शोर मचतीं।
चिक्की, पिक्की झूल रहीं हैं,
दादी गीत मजे से गातीं।
खाती दोनों चना कुरकुरे,
हो हल्ले होते मस्ती के।
दादी माँ के घर झूलों की,
चर्चा गली-गली में फैली।
झाँक- झाँक कर देख गए हैं,
मोहन, सोहन, आशा, शैली।
हर दिन आने लगे झूलने,
और कई बच्चे बस्ती के।
अब दादी जी बड़े प्रेम से,
सबको झूला झुलवाती हैं।
हर बारी में अलग-अलग से,
एक-एक लोरी गाती हैं।
होते रहते मना-मनौ-अल,
स्वांग रोज़ गुस्सा गुस्सी के।
३७
पर्यावरण बचा लेंगे हम
मुन्ना चर्चे हर दिन सुनता,
पर्यावरण प्रदूषण के।
बोला एक दिन, बापू-बापू,
दिल्ली मुझे घुमा लाओ।
ध्वस्त हो गई अगर कहीं तो,
कब घूमूँगा बतलाओ।
दिल्ली के बारे में बातें,
सुनते मुँह से जन-जन के।
आज खाँसती दिल्ली बापू,
कल मुम्बई भी खाँसेगी।
परसों कोलकाता चेन्नई को,
भी यह खाँसी फाँसेगी।
पैर पड़ रहे हैं धरती पर,
रावण के, खर दूषण के।
नष्ट नहीं हो इसके पहले,
मुम्बई मुझे घुमा देना।
कोलकाता कैसा है बापू,
दरस परस करवा देना।
चेन्नई चलकर वहाँ दिखाना,
सब धरोहरें चुन-चुन के।
बापू बोले सच में ऐसी,
बात नहीं है रे मुन्ना।
इतनी निष्ठुर नहीं हुई है,
अपनी ये धरती अम्मा।
फर्ज निभाकर पेड़ लगाएँ,
रोज हजारों गिन-गिन के।
पेड़ लगाकर धुआँ मिटाकर,
अपनी धरा बचा लेंगे।
जहर नहीं बढ़ने देंगे हम,
पेड़ नहीं कटने देंगे।
पर्यावरण बचा लेंगे हम,
आगे बढ़कर तन-तन के।
३८
सोच रहा हूँ
सोच रहा हूँ, इस गर्मी में,
चन्दा मामा के घर जाऊँ।
मामा-मामी, नाना-नानी,
सबको कम्प्यूटर सिखलाऊँ।
सोच रहा हूँ पंख खरीदूँ,
उन्हें लगाकर नभ् में जाऊँ।
ज्यादा ताप नहीं फैलाना,।
सूरज को समझाकर आऊँ।
सोच रहा हूँ मिलूँ पवन से,
शीतल रहो उसे समझाऊँ॥
ठीक नहीँ ऊधम,हो-हल्ला,
उसे नीति का पाठ पढ़ाऊँ।
सोच रहा हूँ रूप तितलियों,
का धरकर मैं वन में जाऊँ।
फूल-फूल का मधु चूसकर,
ब्रेक फास्ट के मजे उड़ाऊँ।
सोच रहा हूँ कोयल बनकर,
बैठ डाल पर बीन बजाऊँ।
कितने लोग दुखी बेचारे,
उनका मन हर्षित करवाऊँ।
सोच रहा हूँ चें-चें चूँ-चूँ,
वाली गौरैया बन जाऊँ।
दादी ने डाले हैं दाने,
चुगकर उन्हें नमन कर।
३९
हिंदी के हम होलें
हम जब हिन्दुस्तानी हैं तो,
हिंदी क्यों न बोलें ?
हिंदी है बीमार! अगर तो ,
उसकी नब्ज़ टटोलें |
अंग्रेजों को दिखा दिए थे,
हमनें दिन में तारे |
आज़ादी के रण में गूँजे ,
जब हिंदी में नारे |
अब हम अपने कानों में भी ,
हिंदी का रस घोलें |
होकर खड़े हिमालय पर था,
हिंदी में ललकारा |
दूर हटो दुनिया वालो, था,
हिंदी में ही नारा; |
क्यों उनकी भाषा के अब तक ,
पीछे -पीछे डोलें ?
माल बेचते हैं वे अपना,
हिंदी विज्ञापन से |
भरे जा रहे अपनी पेटी ,
हिन्दुस्तानी धन से |
बंद ज्ञान के अपने ताले,
बिना झिझक हम खोलें |
बापू ने था कहा राष्ट्र की ,
भाषा हो अब हिंदी |
हिंदी ही शोभित हो, बनकर,
भारत माँ की बिंदी |
जय -जय हिंदुस्तान जयति जय ,
हिंदी की हम बोलें|
हिंदी को जल्दी होना है;अब ,
जग भर की भाषा |
विश्व गुरु होंगे हम सबका ,
ऊँचा होगा माथा |
हिंदी है अपनी भाषा तो,
हिंदी के हम होलें |
४०
वोट डालने जाएँ जी
मम्मी पापा से कहियेगा,
वोट डालने जाएँ जी |
घर में यूँ ही पड़े-पड़े वे,
व्यर्थ न समय गवाएँ जी |
एक वोट की बहुत है कीमत,
दादाजी यह कहते हैं |
किसी योग्य अच्छे व्यक्ति को,
संसद में पहुँचाएँ जी |
दादी कहती बड़ी भीड़ है,
कब तक लम्बी लाइन लगें |
वोट डालने उनको भी,
झटपट तैयार कराएँ जी |
दादाजी हैं बड़े भुल्लकड़,
वोटिंग का दिन भूल गये |
सुबह- सुबह ही जल्दी जाकर,
उनको याद दिलाएँ जी |
गुंडों बदमाशों को चुनना,
बहुत देश को घातक है |
घर-घर जाकर यही बात,
मतदाता को समझाएँ जी |
पुरा पड़ोसी वाले भी,
जब-तब आलस कर जाते हैं |
एक वोट का क्या महत्व है,
उनको बात बताएँ जी |
जो अनपढ़ सीधे सादे हैं,
ऐसे मतदाताओं को,
लोकतंत्र में वोट का मतलब,
क्या होता बतलाएँ जी|
देखो परखो कि चुनाव में,
कितने दागी खड़े हुये |
हो जाये बस जप्त जमानत,
ऐसा सबक सिखाएँजी |
बच्चों के द्वारा बच्चों की,
केवल बच्चों की खातिर,
दिल्ली में जाकर बच्चे,
अपनी सरकार चलाएँ जी
४१
ताली खूब बजायेंगे
चींटी एक आई पूरब से,
एक आ गई पश्चिम से।
हुई बात कानों-कानों में,
रुकीं ज़रा दोनों थम के।
बोली एक, कहाँ जाती हो,
कहीं नहीं दाना पानी।
चलें वहाँ पर जहाँ हमारे,
रहते हैं नाना नानी।
गर्मी की छुट्टी है दोनों,
चलकर मजे उड़ाएँगे।
नानाजी से अच्छा वाला,
बर्गर हम मंगवाएँगे।
कहा दूसरी ने, पागल हो!
वहाँ नहीं हमको जाना।
हाथी घूम रहा गलियों में,
चलकर उसको चमकाना।
"घुसते अभी सूँड़ में तेरी,"
यह कहकर धमकाएँगे।
भागेगा वह इधर उधर तो,
ताली ख़ूब बजाएँगे| ।
४२
रेन बसेरा
नाम रखा है रेन बसेरा,
दो मंज़िल का घर है मेरा।
नीचे धरती, ऊपर छप्पर,
घर दिखता है कितना सुन्दर।
बैठक खाना रम्य मनोहर,
खिड़की पर परदों की झालर।
सोफा सेट गद्दियों वाला,
बिछी हुई सुन्दर मृग छाला।
कोने में सुन्दर गुलदस्ते,
दरवाजों पर परदे हँसते।
है घर में खुशियों का डेरा,
दो मंज़िल का घर है मेरा।
शयन कक्ष भी तीन बने हैं,
परदे बहुत महीन लगे हैं।
बड़े पलंगों पर गादी है,
चादर बिछी स्वस्छ सादी है।
शिवजी की होती हर-हर है,
यह दादी का पूजा घर है।
जहाँ रामजी लड्डू खाते,
कृष्ण कन्हैया धूम मचाते।
सबको सबसे प्रेम घनेरा,
दो मंज़िल का घर है मेरा।
इस कमरे में दादी दादा,
उच्च विचार काम सब सादा।
सभी दुआएँ लेने आते,
दादी दादा झड़ी लगाते॥
बच्चे धूम मचाते दिन भर,
भरा लबालब खुशियों से घर।
दादाजी के लगें ठहाके,
लोट पोट हैं हँसा-हँसा के।
कण-कण में आनंद बिखेरा,
दो मंज़िल का घर है मेरा।
४३
बोल पगे हैं शक़्कर से
अब भी बड़े सुहाने लगते,
लिपे हुए घर गोबर से |
घर कच्चा है, गाँव बड़ा है,
आँगन सुंदर प्यारा-सा |
लिपा गाय के गोबर से है,
दिखता सजा-सँवारा सा |
सौंधी-सौंधी गंध उठ रही,
चूना पुते हुए घर से |
नीम छाँव वाले आँगन में,
मढ़े माड़ने चूने से |
बेल, पत्तियों पर टाँके हैं,
सुन्दर फूल करने से |
सब जूते चप्पल बाहर हैं,
दादी अम्मा के डर से |
पूजा के कमरे में उठती,
है सुगंध। वन चंदन की |
सुबह शाम कानों में पड़ती,
मधुर गूँज टन-टन-टन की |
ईश वंदना करते हैं सब,
धीमे मधुर-मधुर स्वर से |
स्वर्ग सरीखे सारे सुख हैं,
घर,आँगन में देहरी पर |
हँसी-ठहाके गूँजा करते,
सुबह-शाम-दोपहरी भर |
बोल सभी के मीठे जैसे,
पगे हुए हैं शक़्कर से |
४४
झब्बू का नया साल
सबने ख़ूब मिठाई खाई,
नए-नए इस साल में।
झब्बू भैया रूठे बैठे,
थे अब तक भोपाल में।
गए साल में झब्बन को सँग,
ले, छिंदवाड़ा छोड़ा था।
जिस घोड़े पर गए बैठकर,
चाबी वाला घोड़ा था।
नहीं ठीक से चल पाया था,
लंगड़ापन था चाल में।
खूब मनाया झब्बू भैया,
नए साल में घर आओ।
मिट्टी की गुड़ियों के हाथों,
का हलुआ तुम भी खाओ।
पर उनके स्वर थे बदले से,
नहीं दिखे थे ताल में।
तभी अचानक शाम ढले ही,
खट खट-खट का स्वर आया।
सबने देखा आसमान से,
झब्बू का घो्ड़ा आया।
बजा तालियाँ लगे नाचने,
सभी खिलौने हाल में।
४५
क्यों कैसे ?
हुए चार दिन नहीं सुनाई,
नानी मुझे कहानी।
चिड़ियों वाली आज सुना दो,
कैसे खातीं खाना।
नहीं दाँत फिर भी चब जाता,
कैसे चुनका दाना।
कैसे घूँट चोंच में भरती,
कैसे पीतीं पानी।
कैसे छुपा बीज धरती में,
पौधा बन जाता है।
दिन पर दिन बढ़ते-बढ़ते वह,
नभ से मिल आता है।
बिना थके दिन रात खड़ा वह,
कैसे औघड़ दानी।
सुबह-सुबह से सूरज कैसा,
दुल्हन-सा शर्माता।
किन्तु दोपहर होते ही क्यों,
अंगारा बन जाता।
मुँह सीकर क्यों खड़ी हो नानी,
कुछ तो बोलो वाणी।
नल की टोंटी में से पानी,
बाहर कैसे आता।
बनकर धार धरा पर गिरना,
कौन उसे सिखलाता।
घड़ों, मटकियों की नल पर क्यों,
होती खींचातानी?
४६
दादा -दादी बहुत रिसाने
दादा दादी आज सुबह से,
बैठे बहुत रिसाने हैं|
नहीं किया है चाय नाश्ता,
न ही बिस्तर छोड़ा है।
पता नहीं गुस्से का क्यों कर,
लगा दौड़ने घोड़ा है।
अम्मा बापू दोनों चुप हैं,
बच्चे भी बौराने हैं।
शायद खाने पर हैं गुस्सा,
खाना ठीक नहीं बनता।
या उनकी चाहत के जैसा,
सुबह नाश्ता न मिलता।
हो सकता है कपड़े उनको,
नए-नए सिलवाने हैं।
कारण जब मालूम पड़ा तो,
सबको हँसी बहुत आई।
पापा जी का हुआ प्रमोशन,
बात उन्हें न बतलाई।
डाँट रहे, मम्मी-पापा को,
क्यों न होश ठिकाने हैं।
मम्मी समझीं पापा ने यह,
बात उन्हें बतलादी है।
पापा समझे माँ ने उनके,
कानों तक पहुँचा दी है।
अम्मा बापू से मंगवाली,
माफ़ी, तब ही माने हैं।
४७
सूरज को संदेशा दो माँ
सूरज को संदेशा दो माँ,
ठीक नहीं है गाल फुलाना।
बिना बात के लाल टमाटर,
बनकर लाल-लाल हो जाना।
खुद तपते हो हमें तपाते।
बेमतलब ही हमें सताते।
गाल फुलाकर रखे आपने,
न हँसते न मुस्करा पाते।
ऐसे में उम्मीद कहाँ है,
तुम से कुछ भी राहत पाना।
आँखें लाल रिस रहा गुस्सा।
बोलो अंकल यह क्या किस्सा?
गठरी में बाँधो अंगारे,
बंद करो गर्मी का बस्ता।
ठीक नहीं नभ की भट्टी में,
लू की खिचड़ी अलग पकाना।
सुबह-सुबह जब तुम आते हो,
मौसम मधुर गीत गाता है।
जब गज भर चढ़ जाते नभ में,
धरती,अंबर डर जाता है।
ऊपर चढ़ने का मतलब क्या,
होता है अभिमान दिखाना?
४८
बात याद गांधी वाली
झाड़ू लेकर साफ-सफाई,
कर दी अपने कमरे की।
टेबिल कंचन-सी चमकाई।
कुर्सी की सब धूल उड़ाई।
पोंछ-पाँछ के फिर से रख दी,
चीजें पढ़ने-लिखने की।
फर्श धो दिया है पानी से।
धूल झड़ाई छत छानी से।
यही उमर होती है, बाबा,
कहते हैं श्रम करने की।
गर्द हटाई दीवारों से।
जाले छाँटे सब आलों से।
आज प्रतिज्ञा ली सब चीजें,
यथा जगह पर रखने की।
बात याद है गांधी वाली।
भारत स्वच्छ बनाने वाली।
मोदी ने फिर अलख जगाई,
निर्मल भारत करने की।
४९
हद हो गई शैतानी की
टिंकू ने मनमानी की,
हद हो गई शैतानी की।
सोफे का तकिया फेंका,
पलटा दिया नया स्टूल।
मारा गोल पढ़ाई से,
आज नहीं पहुँचे स्कूल।
फोड़ी बोतल पानी की,
हद हो गई शैतानी की।
हुई लड़ाई टिन्नी से,
उसकी नई पुस्तक फाड़ी।
माचिस लेकर घिस डाली,
उसकी एक-एक काड़ी।
माला तोड़ी नानी की,
हद हो गई शैतानी की।
ज्यादा उधम ठीक नहीं,
माँ ने यह बतलाया था।
एक कहानी के द्वारा,
पाठ उसे समझाया था।
धज्जी उड़ी कहानी की।
हद हो गई शैतानी की।
बॉल पड़ गई खिड़की में,
शीशा चकनाचूर हुआ।
पिटे पड़ोसी से टिंकू,
मस्ती का ज्वर दूर हुआ।
अक्ल ठिकाने आनी थी।
हद हो गई शैतानी की।
५०
हवा भोर की
हवा भोर की करती अक्सर ,
काम दवा का जी |
यही बात समझाते हर दिन ,
मेरे दादाजी |
इसी हवा में मनभावन सी ,
धूप घुली रहती |
और "विटामिन-डी" जैसी कुछ,
चीज मिली रहती |
भोर भ्रमण से दिन भर रहती,
तबियत ताजा जी |
सुबह -सुबह चिड़ियों की चें-चें,
चूँ -चूँ भाती है |
तोते बिही कुतरते दिखते ,
मैना गाती है |
पत्ते डालें ,सर -सर बाजा,
खूब बजाते जी |
ऊषा के आँगन में सूरज,
किलकारी भरता |
दुखी रात से थी धरती जो,
उसके दुःख हरता |
सोने वाले प्राणी जागो ,
करे तगाज़ा जी |
५१
गप्पीमल की गप्प
गप्पीमल की गप्प सुनोजी,
गप्पीमल की गप्प।
कर लेते हैं सुबह-सुबह ही,
दो सौ लड्डू हप्प |
सुनोजी गप्पी मल की गप्प।
रोटी दस क्विन्टल की खाते।
तरकारी सौ किलो उड़ाते।
दो सौ लीटर दूध हैं पीते ।
खा जाते हैं साठ पपीते।
बीच सड़क पर खड़े हुए तो,
होते रास्ते ठप्प। सुनो जी,,,
आसमान में हैं उड़ जाते।
चंदा तारों से मिल आते
कान पकड़ लेते सूरज के।
गप्पीजी केवल दो गज के।
मंगल ग्रह की लाल पीठ पर,
धौल जमाते धप्प। सुनोजी,,,
नदी जेब में भर लेते हैं।
पर्वत सिर पर धर लेते हैं।
हाथी बिठा कँधे पर लाते।
फिर सौ मीटर दौड़ लगाते।
गाते जाते हैं मस्ती में,
लारे-लारे लप्प । सुनोजी...






















