~।। वागर्थ ।। ~
प्रस्तुत करता है कवि राजीव राज जी के दो गीत
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सर्वविदित है कि राजीव राज जी एक ऐसे सुयोग्य शिक्षक हैं जिनके कुशल शैक्षणिक अवदान के लिए कम उम्र में शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए श्रेष्ठ शिक्षक के रूप में राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया है।
वे न सिर्फ़ एक जिम्मेदार शिक्षक ही हैं बल्कि एक बेहतरीन गीतकार हैं , ऐसे गीतकार जिन्हें सुनकर मुग्धता भी मुग्ध हो जाए , गीत तो आपके बेहतरीन होते ही हैं मगर जब यही गीत आपका स्वर पाते हैं तो मणिकांचन संयोग बनता है । इस सबसे ऊपर वे एक नायाब इन्सान हैं । शिक्षा और साहित्य को समर्पित बेहद सहज सरल और विनम्र व्यक्तित्व। राजीव जी , चाहे वह छोटा ,बड़ा या हमउम्र हो , सबके बेहतर प्रयासों को अवश्य ही सराहते हैं ,यदि उसका लेखन प्रभावी है ।
लाकडाउन पीरियड में अपनी साहित्यिक संस्था #पहल ' के जरिए लगातार अनथक सक्रिय रहे जिसमें उन्होंने शानदार तरीके से निस्वार्थ भाव से नवोदितों को बड़ा प्लेटफार्म देकर वाचिक परम्परा और साहित्य की उल्लेखनीय सेवा की है ।
तो आइए बिना कुछ अधिक कहे पढ़ते हैं अपने साहित्यिक भाई बहनों का मनोबल बढ़ाने में सदैव तत्पर रहने वाले , संवेदनशील व्यक्तित्व के दो बहुत प्यारे व चर्चित गीत ...
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(१)
पतंगें
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उड़तीं हैं चहुँओर पतंगें।
लगतीं हैं चितचोर पतंगें।
सबको ख़ुश करने की ख़ातिर,
नाचें बन के मोर पतंगें।
उड़ें गगन में मगर पतंगों सा है कौन अभागा।
उतनी ही परवाज़ मिली जितना चरखे में धागा।।
अम्बर का विस्तार नयन में स्वप्न सँजोता है।
दूर क्षितिज तक उड़ पाने की ख़्वाहिश बोता है।
सपने तो सपने हैं अपने कभी नहीं होते,
बन्धन चाहे जैसा भी हो बन्धन होता है।
ठुमक रहीं कठपुतली बनकर,
घूम रही हैं तकली बनकर।
क़िस्मत की थापों पर बेबस,
बजती आयीं ढपली बनकर।
जगीं युगों की सुबहें लेकिन इनका भाग्य न जागा।
उतनी ही परवाज़ मिली जितना चरखे में धागा।।
पहले पहल पिता के हाथों में जी भर खेली।
उम्र चढ़ी प्रिय के इंगन पर डोली अलबेली।
रंग ढला जर्जर तन, कन्ने जब कमज़ोर हुए,
चरख़ा-डोर हाथ में अगली पीढ़ी ने ले ली।
यही निरन्तर क्रम जारी है।
यहाँ तरक़्क़ी भी हारी है।
औरों के हाथों में रहना,
ही पतंग की लाचारी है।
नुची लुटेरों से जिसने चरखे का बन्धन त्यागा।
उड़ें गगन में मगर पतंगों सा है कौन अभागा।।
देख थिरकती देह पतंगों की अम्बरतल पर।
ताली दे हँसती जो दुनियाँ ख़ुश होती जमकर।
वही लगाकर दाँव, फँसाकर पेच, काट देती,
ऊपर उठती हुयी पतंगें क्यों लगतीं नश्तर।
क्या उनको अधिकार नहीं है।
क्या उनका संसार नहीं है।
ख़ुद से ऊपर उनका होना,
बोलो क्यों स्वीकार नहीं है।
कब तक शबनम पर जाएगा अहम का शोला दागा।
उड़ें गगन में मगर पतंगों सा है कौन अभागा।।
(२)
बारिश
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हुयी तो हर बरस बारिश कभी सावन कभी भादौं,
मगर जो बात इस बारिश में है , पहले नहीं थी वो।।
धुले पत्तों पे छम - छम नाचती बूँदें पहन पायल।
रिझातीं लोच भर कर देह में, नैना करें घायल।
वो छूते ही परस्पर घुल के एकाकार हो जाना।
कि जैसे कह रहीं सबसे, यही है प्यार हो जाना।
ये बूँदें कब नहीं थिरकीं, हवाओं के इशारों पर,
मगर जो बात इस जुंबिश में है , पहले नहीं थी वो।।
भिगोये तन बदन देखो, तने को चूमती डाली।
न रहने दे रही चैतन्य, सौंधी गन्ध मतवाली।
घटाओं के खुले जूड़े, लुढ़कता जल, धरा बेसुध।
विफल तटबंध, संयम खो न दे ऐसे में क्यों सुधबुध।
इरादों का हिमालय कब नहीं घेरा घटाओं ने,
जो शोख़ी आज की साज़िश में है , पहले नहीं थी वो।।
पपीहे गा रहे रह रह के मीठे प्रेम के दोहे।
कपोतों की जुगलबंदी लुभाये सबका मन मोहे।
खड़े हैं जो कि बरसों से शिलाएँ मौन की लादे।
निभाने आ गयीं हैं बिजलियाँ उनसे किये वादे।
मेहरबाँ हो गया मौसम, फिरे दिन पर्वतों के भी
जो मस्ती आज इस बंदिश में है, पहले नहीं थी वो।।
- डॉ राजीव राज़
प्रस्तुति
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