सोमवार, 23 अगस्त 2021

स्मरण : मधुकर गौड़


स्मरण-मधुकर गौड़
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                               मधुकर गौड़ एक जाना पहचाना नाम है। आज कल तो नवगीत की चौथी पीढ़ी नई पौध के रूप में सक्रिय है,और बहुत अच्छा काम कर रही है। समूह वागर्थ की अपनी परम्परा कड़ियाँ जोड़ने की रही है। नई पीढ़ी अपनेर परवर्ती और पूर्ववर्ती पीढ़ी को जाने; उनके कामों के चर्चा हो, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं कीर्तिशेष कवि मधुकर गौड़ जी की चर्चा !
                          मधुकर गौड़ जी ने अनेक प्रतिभाओं को प्रोत्साहित कर उन्हें मंच प्रदान किया। उनके खाते में एक बात और जुड़ती है उन्होंने, गीत को एक अलग नाम और पहचान देने की कोशिश की थी।
                   परन्तु उनका दिया हुआ नाम ज्यादा चल नहीं सका न उनके साथ और न उनके बाद! पर हाँ, उन्होंने ताउम्र इसी नाम यानि कि 'गीत नवान्तर' के नाम से गीत लिखे और पत्रिका का सञ्चालन बड़े मनोयोग और ठसक से किया।
                     सनक तो उनमें भी कीर्तिशेष राम अधीर जी या इसाक अश्क़ जैसी ही थी। मधुकर गौड़ जी भी उनकी पत्रिका को प्रेषित रचनाओं को लौटती डाक से यह लिख कर वापस करते रहे हैं कि हम स्वयं रचनाकार से गीत बुलाकर छापते हैं। और वह तमाम पत्र पत्रिकाओं पर नजर रखते थे रचनाएँ पत्र लिखकर आमन्त्रित भी करते थे।
                     खैर, हरएक की अपनी मानवीय प्रवृर्त्ति है इसमें दम्भ या अहमन्यता जैसी कोई बात नहीं, परंन्तु वह एक नेक दिल इंसान थे, उन्होंने अपने समय में छान्दसिक कविता के लिए अच्छा काम किया समूह वागर्थ उन्हें ससम्मान उनका स्मरण करते हुए उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है।
                           वागर्थ अपने पाठकों के लिए राजेन्द्र स्वर्णकार जी का एक आलेख प्रस्तुत करता है जो मधुकर गौड़ जी की स्मृतियों से जुड़कर  संस्मरणात्मक  आलेख बन पड़ा है।

प्रस्तुति
वागर्थ
संपादक मण्डल


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आलेख : राजेन्द्र स्वर्णकार 

शत शत प्रणाम ! स्मृतिशेष पं.मधुकर गौड़ 
24-25 मार्च 2019 रविवार-सोमवार
लग रहा है आज गीत सुबक रहे हैं, ग़ज़ल सिसकियां भर रही है, छंद उदास  किंकर्तव्यविमूढ़ हैं । गीत छंद छांदस काव्य एवं छंदबद्धता के प्रति स्नेह साधना एवं समर्पण भाव रखने वाले हर क़लमकार का हृदय आज विदीर्ण है, यह सूचना पा'कर कि हिंदी में 'सार्थक' और राजस्थानी में 'मरुधारा' इन दोनों पत्रिकाओं के गुणी संपादक हिंदी राजस्थानी के वरिष्ठ कवि श्री मधुकर गौड़ अब हमारे मध्य नहीं रहे । उनका दिनांक 24 मार्च 2019 रविवार को मुंबई में देहावसान हो गया । बहुत समय से वे बीमार चल रहे थे ।
आज उनको श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए लिखने बैठा हूं तो आंखें नम हो रही हैं । प्रमाणित हो रहा है कि हमारे मध्य अंतरंग संबंध था, गहरा रिश्ता था । निश्चित रूप से उनके साथ यही प्रगाढ़ता 'सार्थक' का हर रचनाकार हर पाठक अनुभव कर रहा होगा ।
याद आता है...
संपर्क होने के शुरूआती वर्षों में कई बार फोन पर वे कितनी लंबी लंबी बातचीत किया करते थे मुझसे । पिछले दो तीन वर्ष को टाल कर लगभग पंद्रह वर्ष से यह सिलसिला बना हुआ ही था । रचनाएं भेजने की नियमितता के कारण तब प्रायः इधर उधर पत्र पत्रिकाओं में मेरे गीत ग़ज़ल छपते थे । मधुकर जी ने किसी पत्रिका में मेरी रचना देखी, और उसमें से मेरा ठिकाना ले'कर मुझे 'सार्थक' का अंक भेजा था । मैं जवाब दे पाता, तब तक उनका भेजा हुआ एक और पैकेट मिला 'गीत नवांतर' 'ग़ज़ल नवांतर' के साथ । तब मैं अभी जितना उलझा हुआ फंसा हुआ अव्यवस्थित आलसी तो नहीं था, लेकिन उनकी सक्रियता का जवाब न अब है न तब था । मुझे डाक मिलने के हफ़्ते भर के अंदर ही उन्होंने फोन किया था, पहली बार । कितनी आत्मीयता और ईमानदारी थी उनमें ! बीसों अवसरों पर मेरी पचासों रचनाएं पढ़ने सुनने वाले साहित्य के झंडाबरदार बने अधिकतर अगुओं में से किसी से निष्पक्ष ईमानदार सकारात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन न पाने के माहौल के अभ्यस्त मेरे रचनाकार को, मात्र दो पांच पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं के आधार पर ही मधुकर जी द्वारा ढंग का छंद रचनाकार मानते हुए प्रोत्साहित करना, स्नेहाशीर्वाद से धन्य धन्य कर देना उनका बड़प्पन ही था । बाद में महीने दो महीने में एक बार उनका फोन आया रहता । ख़ूब लंबी बातचीत होती हर बार । कई बार पौन घंटे से घंटा सवा घंटा तक भी । मैंने भी अपनी पुस्तकें 'रूई मांयीं सूई' और 'आइनों में देखिए' उन्हें भेजी । वे मुझे प्रकाशनार्थ रचनाएं भेजने के लिए बराबर कहते रहते, संयोग ही रहा कि मैं उन्हें रचनाएं बहुत कम ही भेज पाया । सार्थक में दो तीन बार ही छपा होऊंगा । कई बार वे उलाहना देते, राजस्थानी में... (हिंदी राजस्थानी दोनों में बात होती रहती थी हमारी) - "म्हाराज, जिकां नैं कीं नीं आवै बै तो भोड़ा ऊपराथळी बकवास भेज भेज'र तगादा कर कर' डंडो करता रैवै, म्हारी रचना छापो, म्हारी रचना छापो । अर थां'री म्हैं  साम्हीं गरज्यां करुं तो ई कान कोनीं ढेैरो !" 
मेरे प्रति उनका स्नेह अपनत्व और विश्वास का गहरा रिश्ता था । हमारी बातचीत में भारत भर के बहुत सारे गीतकारों नवगीतकारों ग़ज़लकारों दोहाकारों का ज़िक़्र आता । ...और उनका भी जो स्वयं को छंदज्ञाता ग़ज़लकार मान लेने का भ्रम पाले होने के कारण 'सार्थक' में छपने की कोशिशों में मधुकर जी को समय समय पर उनके ही शब्दों में, दुखी करते रहते थे ।
एक बार उन्होंने एक वरिष्ठ साहित्यकार की बात छेड़ते हुए बताया कि - "ये महाशय ग़ज़ल का क ख भी नहीं जानते, लेकिन पुरस्कृत और वरिष्ठ होने की धौंस जमाते हुए बहुत समय से छापने का दबाव डाल डाल कर दुखी कर रखा है । थक कर इस बार ज्यों का त्यों बिना सुधारे छाप रहा हूं, अब जैसी प्रतिक्रियाएं आएंगी वे भी अगले अंक में छापूंगा ।" और... 'सार्थक' के नियमित पाठकों को निश्चित रूप से याद होगा, कि 'उस अगले अंक में' पाठक प्रतिक्रिया का लगभग पौना पृष्ठ 'उन महाशय' की ग़ज़लों के संदर्भ में गुणी और जानकार रचनाकारों की तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियों प्रतिक्रियाओं से भरा था । अगली बार फोन पर बात हुई तो गौड़ साहब ने कहा - "क्यों भायाजी, पढ़ली उनकी ग़ज़लें और प्रतिक्रियाएं ? छप गए 'सार्थक' में... अबै ज़िंदगी भर वास्तै काळजै में ठंडक आयगी होसी !"  
वे मुझे बताते थे कि - "राजस्थानी रचनाओं के मामले में मैं इतनी सख़्ती न रखते हुए राजस्थानी के भले के लिए अपनी ओर से यथासंभव परिष्कार करके लगभग सबको सम्मान देता हूं ।"
राजस्थानी के प्रति निष्ठा भावना के कारण ही उन्होंने दिवंगत कवियों सहित समकालीन कवियों को ढूंढ ढूंढ़ कर, संपर्क साध साध कर, मिन्नतें कर कर के गीत ग़ज़ल छंद संकलित किए और 'छंदां रौ हलकारो' पुस्तक प्रकाशित करने का अद्भुत कार्य किया । 'छंदां रौ हलकारो' पुस्तक एक प्रकार से राजस्थानी के छंद रचनाकारों के लिए डायरेक्टरी की तरह आपस में संपर्क साधने का माध्यम बन गई थी उन दिनों । 
राजस्थानी को मान्यता मान्यता करने वाले, राजस्थान में ही बसने वाले साहित्यकारों में से किसी साहित्यकार ने इस तरह का काम करने की बात सोची भी नहीं होगी, जैसा महत्वपूर्ण अद्वितीय अनुकरणीय कार्य, चालीस पैंतालीस साल से राजस्थान से दूर एक अहिंदीभाषी प्रदेश में रहते हुए भी मधुकर जी राजस्थानी के लिए किसी अन्य को कोई कष्ट भार दिए बिना, एक अकेले स्वयं के बलबूते पर कर गए । जबकि स्वयं उन्हें राजस्थानी में कविता लिखना प्रारंभ किए हुए भी अधिक समय नहीं हुआ था । (हिंदी में तो वे बराबर लिख ही रहे थे) राजस्थानी में ग़ज़ल गीत लिखना प्रारंभ करने के लिए वे मुझे अपना प्रेरणास्रोत भी कह देते थे कई बार । मेरी पुस्तक 'रूई मांयीं सूई' की वे बहुत प्रशंसा करते थे । 
सबको साथ ले'कर कुछ ठोस कुछ विशेष करना है, इस महान संकल्पना के चलते उन्होंने राजस्थानी महिला कहानीकारों को ले'कर 'सोळा जोड़ी आंख' का संपादन प्रकाशन किया । इसी प्रकार 'नवांतर व्यंग्य दशक' दो भागों में, और केंद्रीय अकादमी से पुरस्कृत राजस्थानी कहानियों का संग्रह 'अठारा असवार' और यात्रा संस्मरण 'जात्रा भाव सूं भावां री' आदि ऐसी पुस्तकों का संपादन प्रकाशन कार्य भी संपन्न किया जो उनके अपने विषय भी नहीं थे । ...और राजस्थानी में पत्रिका 'मरुधारा' भी शुरू की । 'मरुधारा' प्रारंभ करने से पहले और बाद में भी वे कई बार मुझसे तत्संबंधी बातचीत करते रहते थे । उन्होंने कई बार बताया कि कैसे कुछ नामधारी ईनामधारी तथाकथित साहित्यिक लोगों ने 'मरुधारा' में उनके प्रथम संपादकीय से ही, जिसमें प्रकाशनार्थ केवल छंदबद्ध रचनाओं के लिए आग्रह निवेदन आह्वान किया गया था,  - "यह क्या ग़लत काम कर रहे हैं ?" जैसी भाषा में नाराज़गी जताना शुरू कर दिया था । पंडित जी बताते कि - "क्योंकि छंद में साधना न कर पाने वालों की छपास भूख की तृप्ति के लिए 'सार्थक' की ही भांति 'मरुधारा' में भी संभावनाएं नहीं हैं, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया तो ऐसी ही आनी है ।" साहित्यिक मठाधीश बने लोग जानते भी नहीं थे शायद कि यह व्यक्ति छंदबद्ध काव्य के लिए आंदोलन चलाए हुए है, ताकि सरसता के साथ कविता से जनजुड़ाव बना रहे, साथ ही अछांदस काव्य से उत्पन्न अरुचि और बोझिलता में कमी आए ।
उनका राजस्थानी गीत संग्रह मुझे मिला, तब एक स्वाभाविक अपराध मुझसे हो गया, जिसका मुझे जीवन भर दुख रहेगा । उन्होंने पुस्तक में प्रकाशित अपने गीतों पर प्रतिक्रिया देने को कहा था । हमारे बीच रचनाधर्मिता को ले'कर बहुत स्पष्ट  ईमानदार रिश्ता था । मैंने पृष्ठ पृष्ठ लगभग हर गीत की तीखी आलोचना लिख भेजी थी । हमारे मध्य घनिष्ठता का एक प्रमुख कारण समान सृजनगत ईमानदारी का होना भी था । जहां औरों की ख़ामियों को पहचानने के साथ ख़ूबियों को स्वीकारने की सहज प्रवृति हममें समान थी, वहीं अन्य गुणी द्वारा कमी बतलाए जाने पर विनम्रता से अपनी रचना के पुनरावलोकन और परिष्करण के लिए सहज स्वीकार्य भाव भी उतना ही प्रबल । उनके प्रति मेरा अपराध यूं हुआ कि मेरा आलोचना भरा पत्र उन्हें तब मिला जब उन्हें हार्टअटैक आया हुआ था । किसी अन्य पत्रिका के माध्यम से मुझे उनके हृदयाघात की सूचना मिली तो मैं आत्मग्लानि से भर गया । मैंने उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछते हुए एक पोस्टकार्ड लिखा । और, नादानी में हुई अपनी ग़लती के लिए क्षमायाचना भी की ।
कुछ सप्ताह बाद उनका फोन आया ही । मैंने भावुक हो'कर स्वयं को व्यर्थ अहंकार से ग्रस्त हो'कर पुस्तक की उचित समीक्षा न कर सकने के लिए क्षमा मांगी तो वे बोले - "बेटी का बाप, थैं थां'री समझ सूं ठीक लाग्यो जको ई तो लिख्यो हो नीं ? म्हनैं थां'री समझ पर रत्ती भर अभरोसो कोनीं ।" कितनी विनम्रता ! कितना बड़प्पन और अपनापन ! बारंबार नमन है उन्हें !
श्रद्धेय मधुकर गौड़ जी से मिलना है, यह बात कभी दिमाग़ में ही नहीं आई थी । लेकिन ईश्वर को धन्यवाद कि, बिना पूर्व योजना उनके चरणस्पर्श करके आशीर्वाद लेने का संयोग भी अचानक बना दिया, जिसकी स्मृति आज उनके न रहने पर मन के लिए थोड़ी-सी संतुष्टि की बात भी है । सुप्रसिद्ध उद्योगपति, साहित्यकार एवं 'कमला गोइंका फाउंडेशन' के संस्थापक संचालक श्री श्याम गोइंका जी ने, जो उन दिनों मुंबई रहते थे, और मुझसे अतिशय स्नेह और अपनत्व रखते थे और रखते हैं आज भी ; मुझे एक बार चूरू बुलाया था । उस दिन 'नगरश्री संस्थान, चूरू' में कोई कार्यक्रम भी था, क्या कार्यक्रम था यह स्मरण नहीं अभी । श्री गोइंका जी को वहां जाना था, मुझे भी अपने साथ ले गए । वहां मेरा सम्मान भी हुआ, और काव्यपाठ भी । प्रसिद्ध पुलिस अधिकारी साहित्यकार डॉ. हरिराम मीणा जो उन दिनों चूरू पदासीन थे, विशिष्ट अतिथि के रूप में आए हुए थे, जिन्होंने बाद में मेरे काव्यपाठ की बहुत प्रशंसा भी की थी । स्वयं मीणा जी सहित कुछ और रचनाकारों ने भी काव्यपाठ किया था । बीच कार्यक्रम में मैं कुछ मिनट के लिए किसी नवपरिचित के साथ बात करने बाहर बरामदे में चला गया था, वापस अंदर पहुंचा तो देखा सफारी सूट पहने लंबे कद के एक बुजुर्ग कवितापाठ कर रहे थे । प्रभावशाली लगा उनका काव्यपाठ । आवाज़ परिचित-सी लग रही थी । कौन हैं ये ! इसका उत्तर भी मिल गया जब संचालकजी ने कहा - अभी आपके समक्ष काव्यपाठ प्रस्तुत कर रहे थे बंबई निवासी चूरू के जाये जन्मे गीतकार कवि एवं 'सार्थक' पत्रिका के संपादक श्री मधुकर गौड़ ! ...तो आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई मुझे । कार्यक्रम समाप्ति पर उनके पांव छू कर आशीर्वाद लिया । संक्षिप्त-सी ही बातचीत हुई उस दिन, क्योंकि मुझे बाकी कामों के साथ अपने शहर बीकानेर लौटने की जल्दी थी ।
अभी 26 नवंबर 2018 को उन्होंने एक बार फिर फोन किया, (अंतिम बार लंबी बातचीत 14 मिनट की) - राजस्थानी भाषा में गीत ग़ज़ल कुछ भेजने का आदेश देते हुए । मैंने कहा डाक भेजने का तो बिलकुल अभ्यास ही नहीं रहा, और मेल आईडी आपके है नहीं । तब उन्होंने विदेश रह रहे अपने बेटे का ईमेल पता लिखवाया, और रचनाएं अवश्य और शीघ्र भेजने को कहा । मेल भेजना भी मुझसे हाथोंहाथ नहीं हो पाया तो 29 नवंबर को उन्होंने फिर फोन किया - "अरे, रचनावां भेजी कोनीं..." 
तब जा'कर उसी दिन रचनाएं मेल की मैंने और उन्हें सूचित किया, तो उन्होंने कहा - "अब तो मेल दिखाने वाला गाड़ी चढ़ गया... अब लौटने पर ही दिखेगी..."
इतना होने के उपरांत भी उन्होंने मुझे डांटा नहीं, न ही बोली में रूखापन । उनका मेरे प्रति असीम स्नेह अपनापन  महसूस करके सचमुच रोना आ रहा है । कितना अपनत्व वाला, 'माईतपणै वाला' इंसान खो दिया मैंने... ... ...!
अंतिम बार 12 फरवरी 2019 को बात हुई मधुकर जी से । मैंने ही फोन किया था । उन्होंने बताया कि - "तुम्हारा गीत 'मरुधारा' में प्रकाशित किया है, पत्रिका भेजदी है, रास्ते में होगी, मिलने पर सूचित करना ।" तबीयत का पूछने पर उन्होंने कहा था - " बहुत भयावह है । सही नहीं, सांस अब गई अब गई वाली स्थिति है ।" मैंने कहा - "ऐसा न कहें । भगवान से आपके शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना है। अभी अधिक बात नहीं करूंगा, आप पूर्ण स्वस्थ हो जाएं पहले..." बात करके मेरा मन बहुत उदास हो गया ।
दो चार दिन में 'मरुधारा' मिल भी गई थी । हमेशा मेरे डाक पते के पास लिखा होता था - "मिलने पर सूचना दें" इस बार लिखा था - "मिलते ही सूचना दें"
...और, मैं फिर आलस्य कर गया । आभार भी व्यक्त नहीं कर पाया... ... ...
आज बहुत सारे ऐसे संपादक भी देखने में आ रहे हैं जो रचना प्रकाशित करने के बाद लेखकीय प्रति ससम्मान भेजने का धर्म निभाने की जगह एक अंक में रचना छापने के बदले लेखक से बड़ी बेशर्मी से पांच पांच वर्ष का शुल्क भेजने का दबाव बनाते हुए मिलते हैं, शुल्क न भेजने पर लेखकीय प्रति ही नहीं देते । अवश्य ही औरों के साथ भी हुआ होगा, मेरे साथ हुआ है तीन चार जगह ऐसा । पत्रिकाओं के संपादकों ने व्हाट्सऐप और फेसबुक पर रचनाएं मांगी, रचनाएं भेजने के कुछ समय पश्चात अंक न मिलने पर मेल/मैसेज़ द्वारा पूछताछ करने पर यह अनुभव हुआ । 
ऐसे में संपादक श्री मधुकर गौड़ को देखें, कितना ऊंचा कद रहा उनका !
रचनाएं मंगाना भी, छापना भी, छपते ही अंक स्वतः भेज देना, भेज कर जानकारी भी लेना - अंक मिला या नहीं ! रचना न भेजने वालों को भी अंक और अन्य संकलन भेजते रहना । और पत्रिका शुल्क के नाम पर एक पैसा भी न मांगना ।
शत शत प्रणाम है उन्हें हृदय प्राण आत्मा से !
उनके संपूर्ण कार्य का आकलन करना बहुत कठिन है । उनके मौलिक लेखन की भी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं । वे पुरस्कृत भी हुए, मुंबई में भी, राजस्थान में भी । उनकी भी प्राथमिकताओं में पुरस्कार कभी नहीं रहा, बल्कि आख़िरी ललक या आवश्यकता भी नहीं रहा । पुरस्कारों के विषय में वे बताते कि - "जो फ़ुर्सत में रहते हैं उन्हें दे दीजिए, मेरे पास इतना काम रहता है कि किसी के दिए हुए समय में कहीं आने जाने की तो छोड़ो, मरने के लिए भी समय नहीं ।" ...उनके विराट काम को देखते हुए इसकी पुष्टि भी होती है ।

काम के प्रति उनका जुनून समर्पण आस्था श्रद्धा प्रणम्य है । दिन रात पढ़ना लिखना प्रूफ़ देखना... इनके चलते वे दो बार दृष्टिहीनता की स्थिति तक पहुंच गए थे । चेन्नई में ईलाज़ करवाया और फिर से जुट गए काम में ।
सांस की तक़लीफ़ में ऐसे घिरे कि सांस लेने के लिए ऑक्सीज़न सिलेंडर लगातार साथ लिए रहने की विवश स्थिति भी आई । कोई दो तीन वर्ष पूर्व उन्होंने कहा था कि - "अब जयपुर बसने की प्लानिंग है दिमाग़ में, वहां पत्रिकाएं प्रकाशित करने में भी समस्या नहीं होगी, और वक़्त ज़रूरत तुम जैसों से कुछ काम लेने की भी संभावना रहेगी ।"

श्री मधुकर गौड़ का जाना चूरू या राजस्थान की ही नहीं, पूरे भारत की क्षति है । गीत आंदोलन की क्षति है । उन जैसा साहित्य की सच्चे मन से सक्रियता सहित सतत सेवा करने वाला सरल स्नेही सहृदयी सुगुणी संपादक कहीं कोई है तो उनके चरणों में शीश झुका कर नमन करना चाहूंगा । उनकी कर्मठता और लगनशीलता से हम सब प्रेरणा लें ।
ईश्वर से प्रार्थना है, उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दें, उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें ! उनके परिजनों और चाहने वालों को उनके जाने से उत्पन्न गहन आघात और अपूरणीय क्षति को सहने की शक्ति और संबल दें !
शत शत नमन !


राजेन्द्र स्वर्णकार
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