कृति चर्चा में आज प्रस्तुत है
चर्चित उपन्यासकार और ख्यात समीक्षक भुवनेश्वर उपाध्याय जी का एक समीक्षात्मक आलेख
प्रस्तुति वागर्थ
चेतना और भावनाओं का समावेशी संसार : धूप भरकर मुठ्ठियों में
भुवनेश्वर उपाध्याय
जब मैंने 'एक बूंद हम' की समीक्षा लिखी थी तब मनोज जैन मधुर मुझे एक ऐसे युवा संभावना शील रचनाकार लगे थे जो एक व्यक्ति के रूप में अभी पूरी तरह से खुले नहीं थे उनका अभी बहुत कुछ आना शेष था, परंतु एक नवगीतकार के रूप में जरूरी पैनापन उनकी रचनाओं में उतरने लगा था मतलब एक कवि के रूप में वो सनक जितनी नवता के लिए जरूरी है उतनी ही गलत को गलत कहने के लिए भी, तब उतनी नहीं थी जितनी कि अब है।
ये शायद 2011 से 2021 तक के अंतराल और परिवेशीय यथार्थ की बेहतर समझ से उत्पन्न हुई है। भीतर का आक्रोश यदि सकारात्मक है तो सही दिशा देता है और कुछ नये मार्ग भी खोलता है। कविता लिखते समय कवि दो तरह के यथार्थ से गुजरता है एक व्यवस्था का और दूसरा भावनाओं का, और दोनों ही एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं, किंतु नवगीत में इन दोनों को एक साथ समेटने की सामर्थ्य है। इसीलिए इसमें जितनी भावनाओं की आवश्यकता है उतनी ही विचारों की भी।
किताबें विचारों के छोर भले ही पकड़ा दें परंतु नये विषय कहीं न कहीं नई सोच और नई दृष्टि का ही परिणाम है। जिसमें इतनी सामर्थ्य हो कि वह वर्तमान को सामान्य आँखों से कुछ दूर और अधिक स्पष्ट देख सके, ताकि भविष्य संभावनाशील हमेशा बना रहे और सीखने की वो ललक भी जो विकास के नये मार्ग प्रसस्त करे। ऐसी ही बहुत सारी बातें मनोज जैन को एक रचनाकार के रूप में गढ़तीं है।
जब एक रचनाकार मुखर होता है तो वो तमाम स्वार्थों और अपनी कमजोरियों को भी उतार फेंकता, तभी वो अपने रचना कर्म को ईमानदारी से निभा सकता है। मधुर के गीतों में ऐसी ही ईमानदारी की झलक दिखती है। वो भी भावगत और शिल्पगत सहजता के साथ। एक बार फिर उनका नया नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' मेरे हाथों में है।
कविता के लिए ये दौर बहुत कठिन है। एक ओर नवगीत कथ्य में नवीनता के संकट से जूझ रहा है दूसरी ओर आत्ममुग्धता ने इसके परिवेश को खेमों में बाँट दिया है। उस पर पाठकों और प्रकाशन की उपेक्षा नवगीत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण कविता के लिए निराशाजनक है। ऐसे समय में यदि कवि का हृदय भी उदासीनता से भर जाये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसीलिए वर्तमान में कविता के लिए किया गया हर कार्य ये उम्मीद जगाता है कि सब ठीक है या हो जायेगा।
गीत हृदय के कोमल भावों, शब्दों से भरे होने के कारण सदैव हृदय को छूते रहे हैं, किंतु नवगीत में भावों से कहीं अधिक वैचारिकता का समावेश हो जाता है जिससे कहीं आक्रोश झलक आता है तो कहीं घृणा, इससे भाषा में जो अकड़ आती है वो रचना में लयात्मकता के बाद भी उतना रस नहीं देती जितना सुनने पर गीत देते हैं। ये कमी है या नवगीत की सामर्थ्य ये रुचि का विषय है, किंतु विचार के लिए नवगीत अवश्य कुछ छोड़ जाते हैं फिर भी मंच पर नवगीत की उपेक्षा और सतही फूहड़पन की प्रस्तुतियाँ और उन पर बजती तालियाँ कवि को खटकती है। तब वह मंचीय छलछंदों को उजागर करते हुए लिखता है,
"नकली कवि कविता पढ़कर जब
कविता-मंच लूटता है
असमय लगता है धरती पर
तब ही आकाश टूटता है।"
(पेज -48)
कवि के हृदय में क्रोध और पीड़ा है, किंतु....?
किताब में नवगीतों के अतिरिक्त इस कृति पर समीक्षात्मक व वैचारिक विश्लेषण भी है जो पाठक को पढ़ने के लिए गीतों के कुछ सूत्र पकड़ा देते हैं, मगर एक समीक्षक के लिए ये चुनौती पेश करता है कि वह इसमें इनके अतिरिक्त क्या नया खोजे? पंकज परिमल नवगीतों के बहाने बहुत कुछ वास्तविक कह जाते है। इतना ही नहीं वो इस कृति में क्या है और क्या होना चाहिये था, इस पर भी प्रकाश डालते हैं। उनके अतिरिक्त प्रो. रामेश्वर मिश्र, राजेंद्र गौतम, कैलाश चंद्र पंत, कुमार रविंद्र और फ्लैप पर महेश्वर तिवारी इस संग्रह के नवगीतों की रचना प्रक्रिया, मनःस्थिति और विचारों की बानगी प्रस्तुत करने के साथ साथ भूमिका बनते हैं।
इस संग्रह की रचनाओं में आरंभिक उतावलापन नहीं है, बल्कि वैचारिक मुखरता है। मनोज जैन का कवि हृदय अनुभूतियों को रचने का प्रयत्न करता है, यथार्थ पर थोथेआदर्शवाद का मुखौटा नहीं लगाता। इसलिए रचनाओं में सहजता है।
"क्या सही, क्या है गलत
इस बात को छोड़ो
मौन तो तोड़ो" (पेज -60)
इन पंक्तियों में सहज ही कवि कितनी बड़ी बात कह जाता है कि जहाँ अपने है। जहाँ प्रेम है। जहाँ रिश्ते हैं। जहाँ हार, जीत अपने मायने खो देती है। वहाँ अनबन और फिर अनबोला क्यों? अंहकार छोड़कर झुको और जीवन में आगे बढ़ जाओ।
इस संग्रह के नवगीत में कवि विषयगत विविधता लाने में सफल रहा है। मंच राजनीति का हो या कविता का, विसंगतियाँ समाज में हो या घर में, कवि को गलत चुभता है, खटकता है। रचना में क्रोध हो या प्रेम भाषा हर जगह सहज और भावानुकूल है। कुलमिलाकर कह सकते हैं कि कवि ने जो जिया है वही कहा है। कवि को शुभकामनाएं कि उनमें निहित संभावनाओं को आकार मिलता रहे।
कृति : धूप भरकर मुठ्ठियों में
कवि : मनोज जैन
प्रकाशक : निहितार्थ प्रकाशन
मूल्य : 250
परिचय
__________
भुवनेश्वर उपाध्याय
जन्म तिथि – 08/02/1979
शिक्षा – एम. ए. (हिंदी साहित्य)
लेखन – कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, लेख आदि के साथ साथ आलोचनात्मक एवं समीक्ष लेखन 1999 से ....
प्रकाशन –
◆कविता संग्रह – "दायरे में सिमटती धूप", "समझ के दायरे में"
◆व्यंग्य संग्रह –"बस फुँकारते रहिये"
◆कहानी संग्रह – "समय की टुकड़ियाँ", "फिर वहीं से...."
◆उपन्यास – "एक कम सौ" , "हॉफमैन" , "महाभारत के बाद" , "जुआ गढ़"
◆संपादित पुस्तक – "व्यंग्य-व्यंग्यकार और जो जरूरी है"
◆देश के विभिन्न स्तरीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में कहानियों, कविताओं, व्यंग्यों, लेखों, साक्षात्कारों और समीक्षाओं का निरंतर प्रकाशन एवं विभिन्न महत्वपूर्ण साझा संकलनों में सहभागिता
◆“भुवनेश्वर उपाध्याय : समीक्षा के निकष पर (संपादक – डॉ. मुदस्सिर सय्यद)” कृतित्व पर पुस्तक प्रकाशित”
◆शोध - पीएचडी के लिए शोध कार्य आरंभ
◆पाठ्यक्रम – स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नांदेड़ के बीए.द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में रचना शामिल
संप्रति – स्वतंत्र लेखन
सम्मान – श्रेष्ठ युवा रचनाकार सम्मान २०१२ , लखनऊ, मधुकर सृजन सम्मान 2018, दतिया (समझ के दायरे में) कृति को एवं अन्य सारस्वत सम्मान
पता – डबल गंज सेवढ़ा, जिला-दतिया, मध्यप्रदेश - 475682
मोबाइल– 07509621374 , 8602478417
email - bhubneshwarupadhyay@gmail.com