बुधवार, 24 अगस्त 2022

धीरज श्रीवास्तव जी के गीत प्रस्तुति : वागर्थ


वागर्थ में पढ़िये एक ऐसे कवि के गीत जो हमारे समाज की विसंगतियों को हू-ब-हू प्रस्तुत करते हैं । भाषाई सहजता पाठक से मानसिक श्रम नहीं कराती । अपने गीतों की भाषा से ही सरल , संवेदनशील कवि धीरज श्रीवास्तव जी के गीत वागर्थ और पाठकों को निश्चित ही समृद्ध करेंगे ।

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(1)

चुप रहना मत रोना अम्मा
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अपने घर का हाल देखकर चुप रहना, मत रोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना- कोना अम्मा !

खेत और खलिहान बिक गये
इज्जत चाट रही माटी !
अलग अलग चूल्हों में मिलकर
भून रहे सब परिपाटी !

नज़र लगी जैसे इस घर को या कुछ जादू टोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

बाँट लिए भैया भाभी ने
बाग बगीचे गलियारे !
अन ब्याही बहना है अब तक
बैठी लज्जा के मारे !

दुख की गठरी इन कंधों पर जाने कब तक ढोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

छोटे की लग गयी नौकरी
दूर शहर में रहता है !
पश्चिम वाली हवा चली जो
संग उसी के बहता है !

सिर्फ रुपैय्या खाता पीता या फिर चाँदी सोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

सिसक रहे हैं बर्तन भाड़े
मेज कुर्सियाँ अलमारी !
जो आँगन में तख्त पड़ा था
उस पर आज चली आरी !

तुम होती तो देख न पाती यों रिश्तों का खोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

(2)

फटे पाँव हाथों में छाले
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फटे पाँव हाथों में छाले।
मगर मस्त हैं रिक्शे वाले।

रोज थिरकतीं मदहोशी में,
सांझ ढले आशाएं भोली।
स्वप्न अधूरे ठर्रा पीकर,
नमक चाट कर करें ठिठोली।
फुटपाथों पर नग्न गरीबी
पड़ी अगौंछा मुँह पर डाले।

सेंक रही है बैठ विवशता
ईंटों के चूल्हे पर रोटी।
प्यासा गला ढूंढता फिरता
सड़क किनारे नल की टोटी।
भूख निगलती प्याज तोड़कर
हरी मिर्च के साथ निवाले।

अक्सर करते जाम सड़क को,
रैली ,धरने बैनर झंडे।
खिसियाई खाकी बरसाती,
रिक्शे के कूल्हों पर डंडे।
भद्दी भद्दी गाली खाकर,
अपमानों के पीते प्याले।

ठंड गिराती आसमान से,
साथ ओस के भाई-चारा।
एक फटे कम्बल में करते,
राधे-जुम्मन साथ गुजारा।
भिड़ें अजानें शंखों के संग ,
या मस्ज़िद से लड़ें शिवाले।

(3)

सँवरकी
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आज अचानक हमें अचम्भित,
सुबह-सुबह कर गयी सँवरकी।
कफ़ ने जकड़ी ऐसे छाती,
खाँस-खाँस मर गयी सँवरकी।

जूठन धो-धोकर,खुद्दारी,
बच्चे दो-दो पाल रही थी।
विवश जरूरत जान बूझकर,
बीमारी को टाल रही थी।
कल ही की तो बात शाम को
ठीक-ठाक घर गयी सँवरकी।

लाचारी पी-पीकर काढ़ा
ढाँढस रही बँधाती मन को।
आशंकित थी, दीमक बनकर,
टीबी चाट रही है तन को। 
संघर्षों से हाथ छुड़ाकर
भव सागर तर गयी सँवरकी।

करवानी थी जाँच खून की,
मदद पाँच सौ माँग रही थी।
हमको लगा गरीबी शायद,
रच फिर कोई स्वाँग रही थी,
फूट-फूट कर रोई पीछे,
सम्मुख हँसकर गयी सँवरकी।

देती रही दुहाई सेवा,
कुटिल स्वार्थ ने व्यथा न जानी।
करती रही याचना झोली
अडिग रहा बटुआ अभिमानी।
वैभव के पनघट से लेकर,
खाली गागर गयी सँवरकी।

खड़ी हुई लज्जित निष्ठुरता,
शव के आगे शीश झुकाये।
पूछ रहा सामर्थ्य स्वयं से,
अब वह किससे खेद जताये।
जाते-जाते, पढ़ा प्रेम के,
ढाई आखर गयी सँवरकी।

(4)
कल्लू काका
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चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

घर में भूजी भाँग न बाकी 
भूखा पेट बहुत हठधर्मी।
आलस पड़ा भरे खर्राटे
गर्दन तक ओढ़े बेशर्मी।
सैर स्वप्न में करें इरादे 
लन्दन पेरिस दुबई ढाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

उछल उछल लँगड़ी आशाएं
दिखा रहीं फोकट में सर्कस।
बीड़ी,जर्दा,चिलम,चुनौटी
अद्वी,पौव्वा करें चकल्लस।
पंचायत की धूर्त सियासत
लगा रही बिंदास ठहाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

नाकामी गढ़ रही बहाने
कुटिल कर्ज की भौंह तनी है।
ब्याज उसे कैसे दे मोहलत
रूठी जिससे आमदनी है।
खर्च डालता मूँछ ऐंठकर,
मिट्टी की गुल्लक पर डाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

(5)

रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील
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रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील!
उसकी खुशियाँ उसके सपने वक्त गया सब लील!

बिन पानी के मछली जैसे
तड़प रहा वह आज!
बिटिया अपनी ब्याहे कैसे
और बचाये लाज!

संघर्षों में सूख चली है आँखों की भी झील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

शहर दिखाये ले जाकर जब
दो हजार हों पास!
संगी साथी कौन दे रहा
नहीं किसी से आस!
ठोक रही बीमारी माँ की छाती में बस कील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

कर्म भाग्य का नहीं संतुलन
बनी गरीबी गाज!
देखे जो लाचारी इसकी
ताक लगाये बाज!

व्यंग्य कसे मुस्काये अक्सर खाँस-खाँस कर चील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

फिर भी हिम्मत क्यों हारे वो
जीना है हर हाल।
पटरी पर ला देगा गाड़ी
आते-आते साल।

रोज-रोज आशाएँ दौड़ें जाने कितने मील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

(6)

एक अचम्भा
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एक अचम्भा देखा हमने
आज गाँव के पास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

सुंदरता को देख देवियाँ
रहीं स्वयं को कोस !
श्रम की बूँदें यों माथे पर
ज्यों फूलों पर ओस !

चूड़ी की खन खन सँग उसके
नृत्य करे मधुमास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

चटक धूप में कोमल काया
दिखे कुंदनी रूप !
धूल सने हाथों से गढ़ती
पावन दृश्य अनूप !

करती जाती कठिन तपस्या
साथ लिए विश्वास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

डलिया, खुरपा हरी धरा पर
छेड़ रहे थे तान !
अंग अंग से छलक रहा था
मेहनत का अभिमान !

साथ हवा के करती जाती
मधुर हास-परिहास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

   - धीरज श्रीवास्तव

परिचय
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संक्षिप्त -परिचय

नाम-   धीरज श्रीवास्तव                                             
पिता-  स्व. रमाशंकर लाल श्रीवास्तव                                  
माता- स्व. श्रीमती शान्ती                                     
जन्मतिथि- 01-09-1974
वर्तमान पता- ए- 259, संचार विहार मनकापुर जनपद--गोण्डा (उ.प्र.)  पिन - 271308
स्थायी पता- ग्राम व पोस्ट - चिताही, जनपद- सिद्धार्थ नगर (उ.प्र.)

संपादन- मीठी सी तल्खियाँ (काव्य संग्रह), नेह के महावर (गीत संग्रह) साहित्य सरोज पत्रिका (उप संपादक)

प्रकाशन-  मेरे गांव की चिनमुनकी (गीत संग्रह) 'धीरज श्रीवास्तव के गीत( डॉ.सुभाष चंद्र द्वारा संपादित) सहित अनेक साझा संग्रह एवं राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं, व ई पत्रिकाओं में रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन।

सम्मान--अनेक सम्मान एवं पुरस्कार।

संप्रति --- संस्थापक सचिव, साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, एवं "साहित्य रागिनी" वेब पत्रिका।                        *्मोबाइल नंबर- 8858001681
ईमेल- dheerajsrivastava228@gmail.com