सेवा निवृर्त आई ए एस मनोज श्रीवास्तव जी का एक आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार
एक सच्चे संत की तरह यों तो विद्यासागर जी वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसंघ, सभी में ममत्व रहित थे,
यों तो विद्या सागर जी कर्नाटक के थे,
और तात्त्विक रूप से तो इस जगत् के थे
पर मुझे यह बात उनमें विशेष रूप से प्रिय लगती थी कि उन्हें मध्य प्रदेश विशेष रूप से प्रिय था। उनके सबसे ज्यादा विहार मध्यप्रदेश में ही हुए। मुझे घूमने को विहारचर्या कहने का यह जैन अंदाज़ बहुत पसन्द है। यह घूमना भटकना नहीं है। इसमें एकांतिक wanderlust भी नहीं है जैसे किसी वैयक्तिक यायावर में होती है और जिसमें स्वच्छंदप्रवर्तता का अपना मिथ्यात्व होता है। विद्यासागर जी तो मुनि-गण के साथ विहार करते थे जिसमें सम्यग्दर्शन की मार्गणा का सौंदर्य बना रहता था।
विद्या सागर जी का वह भोपाल चातुर्मास था।सुधा मलैया जी का पता नहीं क्यों आग्रह था कि मैं विद्यासागर जी के अवश्य ही दर्शन करूँ।मैंने कहा कि आपको मेरे साथ चलना होगा। उन्होंने कहा कि मैं तो जाती ही हूँ। कल आपको ले चलूँगी। मैं गया।
वहाँ बहुत सारे श्रद्धालुओं की भीड़ थी और मैं उन सबके चेहरे पढ़ पढ़ कर चकित था। कुछ के मुख पर श्रद्धा के साथ उत्सुकता का भाव था।कुछ जो उनके दर्शन कर आ गये थे, उनके चेहरे पर श्रद्धा के साथ आहलाद का भाव था। अंततः हमारी भी बारी आई।
सुधा मलैया जी ने जब तक मेरा परिचय कराया, मैं विद्यासागर जी को ध्यानपूर्वक देख रहा था और जो बात मैंने गौर की, वह उनके चेहरे की प्रभा नहीं थी, प्रसन्नता थी।मेरे सामने एक सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र व्यक्ति था, निर्भार , ऐसा कि जिस पर कोई बोझ नहीं था, जो प्रमुदित था, मुस्कान उनके होठों पर ही नहीं, आँखों में भी खिली हुई थी।
मुझे मालूम है कि आज की अघाई हुई दुनिया जो जितनी संतृप्त है, उतनी संदृप्त भी, के लिए त्याग के वे सारे उदाहरण विद्यासागर जी जैसे सन्तों में प्रत्यक्ष हुए, एक तरह का आत्म-निषेध (Self- denial) हैं।मैंने ऐसी दुनिया के लोगों को कुंभ के वक़्त आए साधुओं को आत्म-पीड़क (masochist) कहते हुए देखा है, पर नकार और कष्ट का अनुभव तो तनाव व अशांति से भरा होता है। पर विद्यासागर जी हर्षित और आमोदित कैसे थे? बाद में भी वे मुझे हमेशा उसी मुद्रा में मिले।
वे अपने त्याग पर भी कोई चर्चा नहीं कर रहे थे और न बाद में भी कभी मैंने उन्हें वह करते देखा, नहीं तो कई लोग अपने त्यागों का भी संग्रह कर लेते हैं। उनके शरीर, चित्त और संकल्प एक सम पर थे और उनसे निकलने वाली रागिनी मोहित किये लेती थी। प्रायः लोग ऐसे त्याग को सामाजिक उपयोगिता के निकष पर मापने की कोशिश करते हैं और दूसरे के द्वारा दी गई सजा को झेलने को समस्त मनुष्यों के पाप अपने ऊपर ले लेना बताकर उसे भव्य बना देते हैं । लेकिन विद्यासागर जी ने त्याग को आत्मोत्कर्ष के लिए अपनाया था।चेतना की वह परमोन्नति जिसमें प्रकृति और विश्व के साथ द्वन्द्व नहीं रह जाता और 'आत्मार्थ पृथिवीं त्यजेत" से पृथ्वी के तापों का समाहार होता है।
पृथ्वी का भार हरण करने से पहले ऐसा जीवन तो दिया जाये जिनमें आप स्वयं इस पृथ्वी पर भार न हों - ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता।विद्यासागर जी ने अस्तित्व की वह शीतलता सिद्ध की थी। वे उस सीप की तरह दिखे उस क्षण मुझे जो रत्नों का पोषण करता है।कभी उन्होंने ही कहा ही था कि ‘स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर/सागर में प्रेषित किया है।’
और विद्यासागर जी तो स्वयं सागर थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के वे रत्न दिये थे जिनका पता मुझे बाद में लगना था।
फिर सुधा जी द्वारा दिये गये मेरे परिचय से जो बातें निकलीं, उन्हीं के आधार पर मेरा-उनसे संवाद होने लगा और उस समय जबकि बाहर बहुत लंबी पंक्ति थी, हम लोग आधे घंटे से भी ज्यादा बात करते रहे, भाषा, संस्कृति, हिन्दी, साहित्य, शिक्षा, न्याय बहुत-से विषय उस क्रम में आते चले गये। अन्त में उन्होंने मुझे कहा कि आपको उनकी सभा में शिक्षा पर बोलना है। यह अवसर आया उस पहली भेंट के कुछ दिन बाद।
मुनि-संघ ने मुझे फिर एक अन्य कार्यक्रम में मूक माटी पर बोलने के लिए कहा, मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। दोनों ही सम्बोधन विद्यासागर जी की उपस्थिति में थे। और फिर दोनों ही बार मैंने उनकी अमृतवाणी भी सुनी।
उनका कहा हुआ प्रामाणिक भी लगा था। वह कहा हुआ किसी अवांतर अंतरिक्ष के लिए नहीं था, इसी मूक माटी के लिए था। इसलिए उनकी दिव्यता का कोई एकान्त नहीं था। वैसे भी अनेकान्तवादी यदि सच्चा हो तो उस में एकान्तिकता संभव ही नहीं। वह संसार से वैसा पलायन नहीं है कि उस संसार को दुष्टों के आखेट के लिए बुला छोड़ जाओ। विद्यासागर जी हमेशा उस संसार के प्रति सजग रहे और उस दुनिया के प्रति सावधान करने के दायित्व का निर्वाह करते रहे जिसमें इतनी विषमताएँ और विकृतियाँ पैदा हो गई हैं, इस प्रक्रिया में न अंग्रेजी के द्वारा रचा जा रहा अभिजात प्रभुत्व का कुचक उनकी दृष्टि से बच सकता था, न न्याय व्यवस्था के अन्याय,न अपने स्वाद के लिए निरीह जीवों को मारने वाली नृशंसता उनसे छुप सकती थी।वे दोषों को अजीव, नैमित्तिक और बाहर से आगत अवश्य कहते हैं, पर उनके प्रति किसी अज्ञान या उपेक्षा के समर्थक वे नहीं थे।
फिर तो मेरे और उनके बीच में जो अंतरंगता स्थापित हुई, वह लगातार बनी रही। उनके आदेश पर मैंने जैन विद्यालयों के लिखे तीन पाठ लिखे। उन्होंने इच्छा की तो मैं छतरपुर पहुँचा। जब मैंने अतिशय क्षेत्रों से अलग एक जैन-विश्व का प्रोजेक्ट बनाया तो सबसे पहले विद्यासागर जी को दिखाने जबलपुर पहुँचा। सरकारी क्षेत्रक में जब गौशालाओं को बनाए जाने के अभियान की आरंभ किया तो भी आचार्य का आशीर्वाद मिला।
जो लोग तपस्या को एक व्यतीत कर्म की तरह देखते हैं- किसी सुदूर अतीत की चीज़ की तरह - उनके शोधन के लिए विद्यासागर जी का जीवन एक आवश्यक संदर्भ- बिन्दु है।जिन लोगों को ऐसे संतों का त्याग एक पलायन लगता है, वे उस एडवेंचर को नहीं जानते जो नंगे पैरों किसी भी दिशा में निकल पड़ने वाले को अनुभूत होता है।वे न जानें। मैं ही कौनसा बड़ा जानता हूँ। हम दुनियादार भी रह लें, पर कम से कम अपने से भिन्न का सत्कार करना तो सीखें।देखें कि बिना भय के यह भ्रमण कैसे होता है।देखें कि जो बहुत-से अधिनियम बनाते रहते हैं कि संयम कैसे घटित होता है।देखें कि जो इसे दमन का नाम देकर बदनाम करते हैं कि दमन की संरचनाएँ वास्तव में किसने रची हैंजिन्हें यह काया पर हिंसा लगती है।उन्हें काया के इस कल्प का अता पता नहीं और वे स्वयं अपनी काया पर एक औद्योगिक खाद्य के द्वारा कारित हिंसा के शिकार हो रहे हैं। कैसे सिगरेट या शराब या काया पर हिंसा नहीं है? यदि लालसा इन सब चीजों की हो और काया इन सब के विरुद्ध विद्रोह कर रही हो तब क्या वह काया के हितों का दमन नहीं है ?
विद्यासागर जी ने हमें सिखाया कि पवित्रता स्वयं में स्वास्थ्य है। स्वस्थता की आत्मस्थता ही नहीं है, एक विश्वस्थता भी है।पर उसमें कहीं भी स्वार्थलिप्सा नहीं है।
मेरे प्रति स्नेह से भरी उनकी वे आँखें मेरी निधि हैं।
उनका अंतिम रूप देखिये। वे ऐसे वृक्ष की तरह लग रहे हैं जिसने अपने सारे पत्ते झरा दिये हैं।
ताकि इस पृथ्वी पर खाद बन सके बेहतर जीवन मूल्यों की।
वह कायोत्सर्ग नहीं है, समाधिमरण है। एक जाग्रत चेतना का साक्ष्य। एक समाधि की लय। एक लय का विलय।