वागर्थ में आज
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मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के चर्चित गीतकार डॉ राम वल्लभ आचार्य जी का एक गीत
प्रस्तुतगीत रोजमर्रा की जीवनानुभूतियों से उपजा हर एक मन के बहुत ही निकट का नवगीत है।
यह नवगीत वागर्थ के संस्थापक और संचालक आदरणीय मनोज जैन मधुर जी ने हमें नवगीत के प्रादर्श के रूप में पढ़ने भेजा था, जिसे मैं यहाँ प्रस्तुत करने का लोभ संभरण नही कर पा रही हूँ।
आप भी इस नवगीत को पढ़ें और अपनी महती प्रतिक्रिया दें।
प्रस्तुति
वागर्थ समूह
वागर्थ टीम के लिए संपादन सहयोग रीवा मध्यप्रदेश से में अनुराधा अंजनी
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आइए पढ़ते हैं एक नवगीत
उधड़ी सी तुरपन
दफ्तर जाते वक्त अचानक देखा जब दरपन ।
याद तुम्हारी दिला गयी फिर उधड़ी सी तुरपन ।।
झाडू देता रोज़ छिड़कता आँगन में पानी ।
मगर धूल शैतान रात दिन करती मनमानी ।
छत के कोनों में बुन डाले मकड़ी ने जाले,
और चींटियों ने भी मेरी बढ़ा रखी उलझन ।।
गुलदस्तों में रखे फूल अब सारे ही सूखे ।
रहते हैं नैवेद्य बिना ठाकुर जी भी भूखे ।
खाना तो मैं होटल से खाकर आ जाता हूँ,
लेकिन फिर भी रह जाते हैं बिना मँजे बरतन ।।
लगता है उदास सा खूँटी पर लटका थैला ।
दरवाज़े का परदा भी अब दिखता है मैला ।
कपड़े तो सब धुलने के धोबी ले जाता है,
ताला देख मगर वापस ले जाती है धोबन ।।
खड़ी द्वार पर दो रोटी की आशा में गैया ।
लगा टकटकी राह तुम्हारी देखे गौरैया ।
रहती है अनमनी अनमनी तुलसी आँगन की,
पीपल को भी रास न आता घर का सूनापन ।।
जाने क्यों क्यारी में कोई फूल नहीं खिलता ।
लावारिस अखबार पड़ा दरवाजे पर मिलता ।
खुलते नहीं किवाड़ ज़रा सी आहट पर मेरी,
खिड़की से भी नहीं झाँकती अब कोई चितबन ।।
हाथ पकड़ कर याद तुम्हारी पग पग चलती है ।
सच कहता हूँ कमी तुम्हारी बेहद खलती है ।
दिन तो जैसे तैसे यहाँ वहाँ कट जाता है,
किन्तु रात में बहुत जगाती है निंदिया बैरन ।।
-डाॅ.राम वल्लभ आचार्य