ओ मछुआरे !
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ओ मछुआरे ! साँझ सकारे
मीन फँसाये जाल में ।
सोच ज़रा तू तुझे फँसाया
किसने इस जगजाल में ।।
सोच ज़रा तू कौन बुन रहा
साँसों का ताना बाना ।
किस कारण होता है प्राणी
का जग में आना जाना ।
किसने देह बनाकर जोड़ा
तुझे नाभि की नाल से ।।
सोच ज़रा तू तुझे फँसाया
किसने इस जग जाल में ।।
सोच ज़रा तू किन कर्मों का
फल भव में भटकाता है ।
किन कर्मों के फल के कारण
जीव मुक्त हो जाता है ।
लिखता कौन अहर्निश अविरत
भाग्य मनुज के भाल में ।।
सोच ज़रा तू तुझे फँसाया
किसने इस जग जाल में ।।
सोच ज़रा तू किसने तुझको
दिया सुनहरा यह मौका ।
भवसागर तरने को दी है
पंचतत्व की यह नौका ।
भूल गया तू तुझे तराना
है नैया हर हाल में ।।
सोच ज़रा तू तुझे फँसाया
किसने इस जग जाल में ।।
© डाॅ. राम वल्लभ आचार्य