शुक्रवार, 24 मई 2024

अमृत खरे के नवगीत प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ



।।।अंतरा।।।

अंतरा में आपका स्वागत है!
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      अमृत खरे  के चार गीत
 अमृत खरे जी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से जुड़े रहे है आपके गीत नवगीत जीवन की विषमताओं का बयान करते है। 
आइए पढ़ते है। आपको रुचिकर लगेंगे ,
अपनी
       प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए।

संजय सुजय बासल 
।।संपादक।।


एक

गुजरती रही जिंदगी

गुजरती रही
जिन्‍दगी धीरे-धीरे

न सुर ही सधे
राग आसावरी के,
न चलना हुआ
साथ लय बावरी के,

भटकती हुई
दर्द की घाटियों में
कि बजती रही
बाँसुरी धीरे-धीरे

अँधेरों से जिसके
लिये वैर ठाना,
उजालों में उसने
न जाना, न माना,

अगर टूटती
शोर सुनता जमाना,
बिखरती रही
चाँदनी धीरे-धीरे

कहाते थे जो
आचमन-अर्ध्‍य वाले,
सिराते रहे
नेह के सब हवाले,

लिये पीठ पर
शव, दिये, फूल, अक्षत
कि बहती रही
इक नदी धीरे-
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दो

जीवन की भूलभुलैया
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जीवन की भूलभुलैया में
तुम भी खोये, हम भी खोये,
रह कर भी साथ न साथ रहे
तुम भी रोये, हम भी रोये

ऊँची-ऊँची दीवारों ने
हमको-तुमको बस विलगाया,
लम्‍बे-चौड़े गलियारों ने
चरणों को केवल भरमाया,
इक द्वार खुला हम पा न सके,
कितने देखे, परखे, टोये

पत्‍थर पर दूब उगा न सके,
आँधी में दीप जला न सके,
सीलन वाला कोई कोना
हम फुलों सा महका न सके,
सब के सब सपने व्‍यर्थ गये,
हम ने जो बंजर में बोये

अधरों की प्‍यास हुई पागल,
बाँहों की आस रही घायल,
कानों में बजते सन्‍नाटे,
श्‍वासों में जलते दावालन,
कब चैन मिला, कब आँख लगी,
कब तुम सोये, कब हम सोये?
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तीन

जीवन एक कहानी है

तेरा, मेरा, सबका देखा
जीवन एक कहानी है

भीगी आँखों-वाला मौसम
कब आता, कब जाता है,
यह मत पूछो, इतना समझो
यह किस्‍मत कहलाता है ,

सुख का, दुख का, हर पल इसका
मौसम ये लासानी है

दो दिन का जीवन है प्‍यारे
बैर करे या प्‍यार करे,
चाहे तो बिन मोल बिके तू
चाहे तो व्‍यापार करे,

किसकी खातिर, किसको छलना
दुनिया आनी-जानी है

कागज के फूलों पर रीझे
लोग हैं, महकन क्‍या जाने,
केवल चेहरे रखने वाले
दिल की धड़कर क्‍या जाने,

जिसमें जितनी गहराई है,
उसमें उतना पानी है
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चार

 फिर याद आने लगेंगे

भुलाने में सौ-सौ जमाने लगेंगे
मगर हम तो फिर याद आने लगेंगे

किताबों में दाबे रखे फूल-जैसे,
रूमालों में पोहे गये इत्र-जैसे,
न भेजी गयी बावरी चिट्ठियों से,
छुपाकर सहेजे रखे चित्र-जैसे,
अचानक किसी अनमनी सी घड़ी में
निकल आयेंगे, महमहाने लगेंगे

अमावस की रातों की कन्‍दील-जैसे,
घटाओं घिरी राह की बीजुरी-से,
नदी में सिराये गये दीप-जैसे
किसी भक्‍त की ज्‍योतिधर आरती-से,
उजाले लिये हर कहीं हम मिलेंगे
दिखेगे जहाँ, जगमगाने लगेंगे

लरजते हुए होंठ की प्‍यास जैसे,
छलकती हुई आँख के आँसुओं से,
सँभलते-सँभलते हिले कंगनों से
बरजते-बरजते बजी पायलों से
कभी तुम हमें चूक से टेर लोगे,
कभी हम तुम्‍हें गुनगुनाने लगेंगे
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आदरणीय अमृत खरे जी का
जीवन परिचय
 जन्‍म : २५ जनवरी १९५८ को।

शिक्षा : विज्ञान-स्‍नातक

कार्यक्षेत्र : बैंक में अधिकारी एवं स्वतंत्र लेखन। रचनाएँ विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा आकाशवाणी-दूरदर्शन से प्रसारित, मूलत: गीत-कवि, किन्‍तु साहित्‍य की लगभग सभी विधाओं में सृजन, साहित्यिक त्रैमासिक 'क्षेपक' का लगभग दस वर्षों तक प्रकाशन-सम्‍पादन, पूर्व में दिल्‍ली-प्रेस की पत्रिकाओं, 'सरिता' और 'मुक्‍ता' का लखनऊ विश्‍वविद्यालय में छात्र-प्रतिनिधि, कविता-पाठ पर आधारित आडियो कैसेट 'गोष्‍ठी' की परिकल्‍पना और प्रस्‍तुति, अनेक रचनाएँ पाठ्यक्रमों में टेलिफिल्‍मों, 'बांसुरी' तथा 'मेरा बेटा' और दूरदर्शन धारावाहिक 'गाथा गोपालगंज' के लिये कथा, पटकथा, संवाद एवं गीत-लेखन, आजकल वैदिक मंत्रों के गीत अनुवाद में संलग्‍न, गीत-संग्रहों तथा वैदिक-मंत्रों के काव्‍यानुवाद पर आधारित ग्रन्‍थ शीघ्र प्रकाश्‍य

संप्रति : बैंक ऑफ बड़ौदा में कार्यरत।