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गुट बनाकर चार चमचे
छह विदूषक तीन तुक्कड़
दस मवाली
बादलों सा घिर रहे हैं।
चरण सबके चूमते हैं
बावरे बन घूमते हैं
नाथते नित सज्जनों को
तोड़ते पावन मनों को
जोश इनके तन बदन में
विष घुला इनके वचन में
झील में सैलाब जैसे
और ऊपर
और ऊपर तिर रहे हैं।
तीन-तेरह कर रहे हैं
लूट से घर भर रहे हैं
ये नहीं बिल्कुल लजाते
झुनझुना केवल बजाते
ताक पर आदर्श सारे
मूल्य इनसे सभी हारे
क्या चढ़ेंगे ये नज़र में
दोष मढ़ते
नित नजर से गिर रहे हैं।
दानवी है नस्ल इनकी
मानवी है शक़्ल इनकी
तीव्र घातक हैं इरादे
कर रहे हर रोज़ वादे
यहाँ भी हैं ये बराबर
है समूचा लोक इनका
हर जगह ये
मुँह उठाए फिर रहे हैं।
मनोज जैन