चंद्रेश शेखर के तीन नवगीत
प्रस्तुति
~।।वागर्थ।।~
एक
सच को सच कह सकने वाले
दरबारों के राग न गाते
भले झूठ के सब आडम्बर
सौ सौ साक्ष्य लिए बैठे हों
और सत्य के साथी सारे
भय से होंठ सिए बैठे हों
कालचक्र के न्यायालय में
मगर सत्य की जय होती है
धर्मयुद्ध में दांव पेंच भी
कभी झूठ के काम न आते
लड़ती और जीतती आई
कलम हमेशा तलवारों से
कभी नहीं बन पाई इसकी
सत्ता के लंबरदारों से
पर जब जब कविता बिकती है
राजनीति की टकसालों में
तब तब बिकते शब्द न केवल
जीवन के निशान बिक जाते
राजनीति की चाटुकारिता
कोई कवि कर सकता है क्या
झूठे शब्दों से जन मन में
आशाएं भर सकता है क्या
कवि को स्वयं सिद्ध करना है
वह कबीर है या चारण है
चारण दरबारों तक सीमित
हैं, कबीर जन जन तक जाते !
दो
गौण हो गए अर्थ प्रेम के
मूर्छित हैं सम्बन्ध !
अब रिश्तों की ट्रेड मील पर
दौड़ रहे अनुबंध !
बोनासाई संबंधों से
व्यर्थ छांह की चाह !
सिर्फ लिफ़ाफ़ा करता
सारे रिश्तों का निर्वाह !!
दादा-दादी, नाना-नानी
सिर्फ कहावत, एक कहानी !
बच्चे ढून्ढ रहे टी वी में
अब जीवन के छंद !!
पैसा! पैसा! हाये पैसा !
यही जगत का सार !
घर से ऑफिस, ऑफिस से घर
इतना भर संसार !!
चाह सभी की बंगला-गाड़ी,
तन भर सोना, महँगी साड़ी !
महके डीयो, लेकिन मन का
ग़ायब है मकरंद !!
छुट्टी-मूवी, पिकनिक-पिज़्ज़ा
तड़क-भड़क त्यौहार !
ट्विटर-फेसबुक और व्हाट्सअप
अब जीवन-व्यवहार !!
फुरसत की चौपालों वाली,
बातें सौ सौ सालों वाली !
करने भर का समय किसे है
सारे नाटक बंद !!
गौण हो गए अर्थ प्रेम के
मूर्छित हैं सम्बन्ध !
अब रिश्तों की ट्रेड मील पर
दौड़ रहे अनुबंध !!
तीन
जीवन में सुख के मौसम
तो सौ सौ बार खिले !
फिर भी मन को हिस्से में
केवल पतझार मिले !!
जब जब नया कलेंडर आया
मन मयूर नाचा
लेकिन वाँछित समय न पाया
आखिर तक बाँचा
फूल समझ सींचा जिन जिनको
बनकर खार मिले !
फिर भी मन की पीड़ाओं ने
हर पल मौन गहा
आँसू अक्षम थे अधरों से
केवल गीत बहा
हाय विधाता ! उनके बदले
भी धिक्कार मिले !
नहीं माँगता सुख के साधन
मत सुविधाएँ दो
मुझको सब कुछ देने वाले
बस आशाएँ दो
जिसको प्यार करूँ बदले में
केवल प्यार मिले !
चंद्रेश शेखर