मनोज जैन के दो गीत
एक
तुम हमारी साधना हो
रेशमी अहसास अपना
प्राण तन मन में भरा है।
नेह दीपक मीत तुमने
हृदय में जबसे धरा है।
प्रीत की तुम देविका हो
मन तुम्हारा दास है।
हम अंकिचन क्या तुम्हें दें
क्या हमारे पास है।
प्रेम का अमृत हमारी
आह से हरदम झरा है।
राह में जब भी अँधेरे
अनगिनत आते रहें।
तुम हमारे प्यार पर प्रिय
प्यार बरसाते रहे।
आस का सूरज उगाकर
गहन तम तुमने हरा है।
जब कभी आँखे हमारी
दर्द पीकर नम हुई।
प्यार का उपहार पाकर
वेदनाएं कम हुई।
आस की सूखी लता में
प्राण रह रह कर भरा है।
अर्थ क्या है जिंदगी का
सोचता हूँ तुम बिना।
तुम हमारी जिंदगी हो
तुम हमारी साधना।
छोड़ कर मत दूर जाना
कल्पना से मन डरा है।
दो
साधना के सिंधु में
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गीत के तुमको मिलेंगे ठाँव,
साधना के सिंधु में,
गोते लगाओ तो।
कलरवों में लय घुली है,
गीत उड़ती तितलियों में।
पवन बदली चाँद -सूरज,
तार सप्तक बिजलियों में।
जग उठेंगे गोपियों के गावँ,
बाँसुरी कान्हा सरीखी,
तुम बजाओ तो।
जड़ तना फल फूल पत्तों
सहित इनको तोड़ लाओ।
गन्ध सौंधी नदी पनघट
खेत की इनमें मिलाओ।
चल पड़ेंगे, अक्षरों के पाँव,
हाथ में तुम गीत का
परचम उठाओ तो।
खनक रुनझुन गुनगुनाहट
भ्रमर के अनुराग में है।
गीत मौसम कूल पर्वत
नदी झरने बाग में है।
गीत ही देगा सुनहरी छाँव,
होठ पर तुम गीत की
सरगम सजाओ तो।
गीत रमते शंख वीणा
बाँसुरी शहनाइयों में ।
गीत अंतश्चेतना की
जा बसे गहराइयों में।
हों विफल हमलावरों के दाँव
गीत को तुम शीश पर
अपने बिठाओ तो।
मनोज जैन
भोपाल