"मौन सच है" गीत-नवगीत संग्रह
रचनाकार: डॉ मृदुल शर्मा
प्रकाशक: सत्यम पब्लिशिंग हाउस
-वृहत समीक्षा-
समीक्षक : डॉ आलोक गुप्ता
नवगीत में कथानक नवीन हो, कहने का तरीका नितांत नया हो और उसमें आविष्कारशीलता हो, तो पाठक एक-एक अक्षर पढ़ने में रुचि लेते हैं। मैंने "मौन सच है" काव्य संग्रह की समीक्षा की यात्रा पूरी कर ली है। इसके एक-एक गीत की आत्मा को छूने का प्रयत्न किया है और अपनी टिप्पणियाँ लिखता रहा हूँ। अब मुझे यह नहीं पता कि यह समीक्षा अपने मूल रूप में रहेगी या इसमें कुछ कटौती होगी।
इस संग्रह में कुल मिलाकर 77 गीत हैं, और प्रत्येक गीत की आत्मा को स्पर्श करने का प्रयास किया है। हर किसी की पसंद अलग होती है, इसलिए सबसे अच्छा सैंपल चुनना मुझे पसंद नहीं। फिर भी, पाठक इस पुस्तक को कौतूहल के साथ पढ़ें, इसलिए मैंने छोटी-छोटी झलकियों में शब्दों को संजोया है। तो आइए, पहले नवगीत से एक-एक करके इस वृहत यात्रा पर निकलते हैं।
माँ का चरित्र कवि की दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण और अनुपम और माँ के बिना जीवन की कोई युक्ति नहीं है। इस गीत-नवगीत संग्रह का प्रथम नवगीत “धुंधलाता चित्र नहीं है” माँ की महत्ता को बहुत सुंदरता और भावुकता से प्रस्तुत करता है:
बरसों बीते माँ से बिछुड़े,
पर धुंधलाता चित्र नहीं है।।
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अगला नवगीत “बच कर रहना जी” बाजार की असली प्रकृति को प्रकट करता है, जहाँ स्वार्थ सिद्धि और पैसे का लालच प्रमुख होते हैं:
चालाकी में यहाँ लोमड़ी भी मुँह की खाती।
कारगुजारी ऐसी पीतल सोना हो जाती।
मीठी बोली की रसधारा में मत बहना जी।।
हाट बहुत जालिम है इससे बच कर रहना जी।।
आगे बढ़ते हैं तो “झूठ खड़ा है” गीत लोगों को सच और झूठ के प्रभावों के बारे में सोचने और जागरूक करने का प्रयास करता है। झूठ का प्रलोभन और उसका व्यापक प्रभाव समाज में उसकी स्वीकार्यता को दर्शाता है, जबकि सच की कठिनाइयों और उसकी नकारात्मकताओं को भी स्पष्ट किया गया है:
इसकी बड़ी बड़ी हैं बाँहें।
सब कुछ देता जो कुछ चाहें।
कलयुग का है यही कल्पतरु,
इसीलिए सब इसे सराहें।
काम बना देता बिगड़ा है।।…सौ मुँह लेकर झूठ खड़ा है।
अगला नवगीत “अलग कहानी है” उन गरीब और पीड़ित लोगों की कहानी है जो समाज के निचले तबके में रहते हैं। बीमारी और भूख ने उनके जीवन को और कठिन बना दिया है, और वे चिकित्सा सेवाओं से अंजान रहते हैं। “अलग कहानी है” नवगीत उन लोगों की आवाज है जो इन कठिनाइयों का सामना करते हैं और उनके जीवन की सच्चाई को सामने लाता है:
मजलूमों की इस बस्ती की अपनी ही अलग कहानी है।
आगे बढ़ते हैं तो “खेल रहे हैं लोग” नवगीत समाज में हिंदू-मुस्लिम के नाम पर हो रहे खेल को उजागर करता है और बताता है कि लोग घृणा और द्वेष की फसल उगा रहे हैं, जिससे समाज में आग लग रही है। मार-काट और दंगों का यह खेल राजनीति के लिए बहुत लाभदायक है, जो इसे और प्रोत्साहित करती है।
हिन्दू-मुस्लिम हिन्दू-मुस्लिम खेल रहे हैं लोग।।
“आग सिर पर धरे” नवगीत में कवि ने तनाव, चिंता, और जीवन में व्याप्त कठिनाइयों को आग और हवा की शक्तिशाली छवियों के माध्यम से चित्रित किया है। यह गीत जीवन की वास्तविकताओं और उनकी चुनौतियों को समझने और उनका सामना करने की प्रेरणा देता है।
“बड़े सवेरे” नवगीत प्रकृति की सुंदरता, प्रेम, और पुरानी यादों को बहुत ही सुंदर और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है। सुबह के समय पंछियों के नीड़ में प्रेमभरे दृश्य को देखकर कवि का मन भी प्रेम और दर्द की भावनाओं से भर जाता है। यह गीत जीवन की सुंदरता और उसकी जटिलताओं को समझने का एक माध्यम है।
नवगीत “ताले जड़े” समाज की वास्तविकताओं और समस्याओं को बहुत ही तीखे और मार्मिक ढंग से उजागर करता है। कवि ने "रेत में मुँह गाड़ कर खड़े" होने के प्रतीक के माध्यम से समाज की अज्ञानता और समस्याओं से बचने की प्रवृत्ति को दिखाया है। "आग और पानी की संधियाँ" और "मूल्य की चिंदियाँ" जैसी छवियाँ समाज में नैतिकता के पतन और विरोधाभासों को स्पष्ट करती हैं।
फिर आता है “ऋतु वसंत की” नवगीत । यह गीत वसंत ऋतु की सुंदरता, उसकी प्रभावशीलता और उसमें जागृत होती भावनाओं को समझने और उनका आनंद लेने की प्रेरणा देता है। गंध-पराग और महुआ-आसव की सुगंध और उसका प्रभाव भी बहुत ही सजीव रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ऋतु वसंत की सुबह सुहानी।
आतुर करने को मनमानी।
“हठधर्मी बढ़ी है” अगला नवगीत है । कवि की संवेदनशील दृष्टि और गहरी सोच इस नवगीत को प्रभावशाली और सार्थक बनाती है। में जहां लोगों के अहंकार और खुद को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति को दिखाया गया है, वहीं संवेदनशीलता की कमी और विषैली भाषा की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। यह नवगीत समाज में हो रहे नैतिक और सांस्कृतिक पतन की ओर इशारा करता है ।
इसके बाद “हाल न बदला” में कवि ने हलकू की दिन-रात की मेहनत और उसकी गरीबी को दिखाया है। नवगीत दर्शाता है कि शोषण का जाल अभी भी कायम है और लोकतंत्र के आने के बाद भी लोगों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।
सन् बदले हैं, शासन बदले,
पर हलकू, का
हाल न बदला ।।
अगला नवगीत है :“रुदाली हुई इकट्ठा” जिसमें, कवि ने सत्ता के लिए हो रहे संघर्ष और षड़यंत्रों की ओर इशारा किया है, दुश्मन देशों की प्रशंसा और अपने देश की सरकार को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति को उजागर किया गया है।
इधर प्रगति ने झंडे गाड़े,
उधर रुदाली हुईं इकट्ठा।।
बनते हैं सुजान, पर खुद की
जड़ में डाल रहे हैं मट्ठा।।
“माटी चूम रहे हैं” नवगीत देशभक्ति, स्वतंत्रता और भविष्य की आशाओं का सुंदर वर्णन करता है। कवि ने छोटे-छोटे बच्चों के माध्यम से स्वतंत्रता दिवस के उत्साह और गर्व को व्यक्त किया है।
रामू, अहमद, जोजफ, प्रीतम
लिये तिरंगा घूम रहे हैं।
“शीत लहर है” में कवि ने ठंड के कारण लोगों की निष्क्रियता और सुन्नता को दर्शाया है। बर्फीली हवाओं की भयावहता और सन्नाटे के कहर को चित्रित किया है। कोहरे और ठंड के प्रभाव को बहुत ही सजीव रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह नवगीत शीत लहर की कठोरता और उसके प्रभावों का सजीव चित्रण करता है।
दम साधे, पूरी ताकत से जो सड़कों पर भाग रहा था। निश्चल पड़ा हुआ दिन में भी, जो रातों में जाग रहा था।
सुई गिरे तो खनक गूँजती,
मुर्दा-सा हो गया शहर है।
अजब-गजब यह शीत लहर है।।
“नेता नगरी में” नवगीत चुनाव के समय नेताओं की गतिविधियों और उनके व्यवहार में बदलाव का सजीव चित्रण करता है। इसमें गरीबों के प्रति नेताओं की दिखावटी श्रद्धा और विनम्रता को दर्शाया गया यह नवगीत चुनावी माहौल की सच्चाई और नेताओं के बदलते रंग-ढंग को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करता है।
बिगुल बजा जबसे चुनाव का हवा हुई शातिर। घूम राहे बघनखे विकल जन-सेवा की खातिर।
“मौन सच है” इस गीत-नवगीत संग्रह का शीर्षक गीत है । नवगीत मौन और शब्दों की तुलना करते हुए मौन की शक्ति और सच्चाई को प्रस्तुत करता है। इसमें शब्दों की धोखेबाजी और उनके स्वार्थपूर्ण व्यवहार को उजागर किया गया है। यह नवगीत हमें यह संदेश देता है कि सच्चाई अक्सर मौन में होती है और शब्दों की बाहरी चमक-दमक से परे होती है।
“मौन कितना बोलता है” नवगीत में, कवि ने मौन की अभिव्यक्तियों को कनखियों, नजरें चुराना और चेहरे की लालिमा के माध्यम से दिखाया है। मौन के माध्यम से अनकहे शब्दों और भावनाओं की व्याख्या की गई है। मौन की कोमलता और शालीनता को दर्शाया गया है।
याचना, शिकवा-गिला, सहमति-असहमति।
भीड़ में भी 'मृदुल' देता मौन सम्मति।
नवगीत “दिन कटे” में, कवि ने जीवन के कठिन समय और उससे उबरने की यात्रा का सजीव चित्रण, जब लोग घर में कैद थे और कर्म करने में असमर्थ थे। जब स्वजन भी डरते थे और खुशी का अभाव था। अंत में, कठिनाइयों के पीछे हटने और सफलता और खुशी के लौटने का वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर, यह नवगीत जीवन के उतार-चढ़ाव को प्रभावशाली और संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करता है।
रात-दिन थे कैद घर में सिर झुकाये।
भूत भय का अभय हो आँखें दिखाये।
“क्या कहने शरद पूर्णिमा के” नवगीत शरद पूर्णिमा की रात की अद्वितीय और अनुपमेय शोभा का वर्णन करता है। हरसिंगार के फूलों की खुशबू और चंद्रमा की मृदु मुस्कान को बहुत ही सुंदर तरीके से चित्रित किया गया है। आकाश की स्वच्छता और उसकी सुंदरता, अमृत की तरह चांदनी का बरसना, और समय की धीमी गति का वर्णन किया गया है। रति की लज्जा और रात के गहनों की तरह चांदनी का वर्णन भी बहुत ही सुंदरता से किया गया है।
यामिनी लजाती द्युति रति की,
गहनों में शुभ्र ज्योत्स्ना के।
क्या कहने शरद-पूर्णिमा के।।
आगे बढ़ते हैं तो "रूह त्रस्त है" नवगीत में देश के दो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय त्योहारों की निरर्थकता का भाव है। कवि यह बताना चाहता है कि जब एक आम आदमी बुनियादी जरूरतों से जूझ रहा हो, तो उसे इन पर्वों का क्या मतलब? 'रमकिसुना' आम जनता का प्रतीक है।
"काहे की छब्बीस जनवरी,
काहे का पन्द्रह अगस्त है।।
रोग, भूख कन्धों पर लटके,
रमकिसुना की रूह त्रस्त है।।"
इस नवगीत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें आम आदमी की पीड़ा और समाज की विडंबनाओं को अत्यंत सजीवता से प्रस्तुत किया गया है।
इसके बाद "धूप दुखी है" समाज की उन स्थितियों को उजागर करता है जहां निर्दोषता और सुंदरता शोषण का शिकार होती हैं। मेघों का हठधर्मी और बेशर्म रवैया धूप की सुंदरता को अभिशाप में बदल देता है।
"हठधर्मी के रथ पर बैठे, मनमानी करने को तत्पर।
बीच राह में अड़े खड़े हैं, बेशर्मी की ओढ़े चादर।
सुन्दरता अभिशाप हो गयी, काँप काँप जाती दहाड़ से ।।
धूप दुखी है छेड़छाड़ से।।"
"किसे खबर थी" बताता है कि किसी को उम्मीद नहीं थी कि ऐसे दिन भी आएंगे जब केवल स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभ की बात होगी। संबंधों में इतनी दूरी आ जाएगी कि सुबह-शाम उनके बीच में खाई होगी।
"किसे खबर थी, ऐसे दिन भी आएँगे ।।
स्वर गूँजेंगे, मैं-मेरा, तू-तेरा के।
सुबह-शाम संबंधों के होंगे फाँके।
मुर्दे खुद ही, अपना बोझ उठाएँगे ।।"
यहां 'मुर्दे' उन लोगों का प्रतीक हैं जिन्हें किसी सहायता की उम्मीद नहीं होती।
"सुखिया दुख में भी हँसती है", इस नवगीत में कवि ने सुखिया के माध्यम से समाज की उन महिलाओं की तस्वीर खींची है, जो अपनी कठिनाइयों और दुखों के बावजूद जीवन में हंसते हुए आगे बढ़ने का साहस रखती हैं।
"तोड़ निराशा के घेरे को सुखिया दुख में भी हँसती है।।
चौका-बर्तन, झाडू-पोछा, कई घरों के वह पकड़े है।
हाड़-तोड़ मेहनत करती पर, दरिद्रता फिर भी जकड़े है।
उतर गले के नीचे पति के, दारू रोज उसे डसती है।।"
"मन होता खट्टा" में कोरोना महामारी के दौरान समाज की विकृत और क्रूर स्थिति का चित्रण किया गया है। अधर्मी लोग अपने स्वार्थ में मस्त होकर बेशर्मी से अपने कार्य कर रहे हैं। यह दृश्य, जहां मानवीय मूल्यों की कमी दिखती है, देखकर मन खट्टा हो जाता है। 'चील-झपट्टा' लूट-मार और अव्यवस्था का प्रतीक है।
"ऐसा लोभ चढ़ा है सिर पर,
बना लिया आफत को अवसर,
कफन इन्हें हो गया दुपट्टा ।।
मचा हुआ है चील-झपट्टा ।।"
इसके बाद "मुश्किलों से न डर" में कवि ने गुलमुहर के फूलों का उपयोग कर अत्यंत सजीवता से जीवन की कठिनाइयों का सामना करने का संदेश दिया है। ।'खिलखिलाते हुए गुलमुहर' साहस और हिम्मत के प्रतीक हैं , जो धूप के सामने अनमना होने की बजाय, हिम्मत और साहस के साथ उसका सामना करते हैं । प्रत्येक छन्द में जोश, धैर्य, हिम्मत, और संघर्ष की भावना को उजागर किया गया है
"लोकतंत्र ने अजगर पाले" नवगीत बताता है कि जनता ने लोकतंत्र को चुना, लेकिन लोकतंत्र ने अजगर (लालची और स्वार्थी लोग) पाले। राजे-महराजे जैसे लोग वेष बदलकर सिंहासन पर जमे हुए हैं। कुछ बाहुबली हैं और कुछ छल कपट से सत्ता में आए हैं। देश तो आजाद हो गया, लेकिन जनता अभी भी मत्स्य-न्याय (मछली का कानून, जहां बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है) के हवाले है। प्रत्येक छन्द में लोकतंत्र की त्रासदी, राजनीति का खेल, और जनता की लाचारी का चित्रण किया गया है।
"आया तो है रंग-पर्व", यह नवगीत बताता है कि रंगों का पर्व (होली) तो आ गया है, लेकिन इस बार यह पर्व बहुत डरा हुआ है। कोरोना महामारी विकराल काल बनकर बस्ती-बस्ती घूम रही है। होली का हुड़दंग और मस्ती गायब हो गई है। उत्सव पर फीकापन छा गया है और जोश का ज्वार मर गया है।
"गूँज रहा है दिशा-दिशा में, दो गज दूरी बहुत जरूरी।
होली में भी गले न मिलना, कोई-कैसे करे सबूरी।
मुस्कानों को मास्क निगलता, खुशियों पर काबिज खतरा है।।"
कवि ने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से होली के पारंपरिक उत्सव को कोरोना महामारी के संदर्भ में प्रस्तुत किया है।
"असंतोष फूला" इस नवगीत में किसानों के संघर्ष और उनके अधिकारों की मांग का वर्णन है। किसान अपनी समस्याओं को लेकर संसद के सामने धरना दे रहे हैं और अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए नए नियम और नीतियां बनाई जाएं, ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो सके।
"धरना दे संसद के आगे।
भूमिपुत्र अपना हक मांगे।
गढ़ा जाय नया फार्मूला ।।"
आगे बढ़ते हैं तो "हँसी खुशी से समय बिताएँ" में बताया गया है कि यह दुनिया विजेताओं की प्रशंसा करती है और कमजोरों को सताया जाता है। यह दुनिया की सच्चाई और नीति है। हमें अपनी सुख-समृद्धि के लिए मेहनत का युद्ध छेड़ना चाहिए और पूरी मेहनत के साथ अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
"कुछ भी नहीं असंभव जग में, सब संभव है उद्यमिता से।
भाग्य बदल लेता अपना रुख, खुश होकर के कर्मठता से।
श्रम-सीकर से सींच-सींच कर सुविधाओं की फसल उगाएँ।।"
“बहुरुपिए घूम रहे हैं” में कवि ने बहुरुपियों की बात की है जो गाँव-गली में घूम रहे हैं। उनके पास चाबुक, चाकू और कट्टा (बंदूक) हैं। ये लोग पाँच साल बाद फिर से गाँव में आये हैं। वे गरीब और असहाय लोगों के दरवाजे पर पहुँचकर उनके सामने झुक रहे हैं।
हाथ उठा कर प्रण लेते उनकी सेवा का।
खुलेआम जिनकी रोटी पर डाला डाका।
कवि ने चुनावी नेताओं की झूठी वादाखिलाफी और जनता के प्रति उनकी उदासीनता को बखूबी प्रस्तुत किया है। भाषा सरल और सटीक है, और कवि ने प्रतीकों का कुशलता से प्रयोग किया है।
“महक उठी केसर की क्यारी” यह नवगीत एक सकारात्मक परिवर्तन की आशा को व्यक्त करता है और बताता है कि कश्मीर को सभी भारतीयों के प्यार और समर्थन की आवश्यकता है। कवि ने धारा 370 और 35ए के निरस्त होने के संदर्भ में कश्मीर में आये बदलाव को रेखांकित किया है और एकता, प्रेम, और मानवता के महत्व को उजागर किया है।
इससे आगे बढ़ते हैं तो “हिरन हो गई सारी मस्ती” में कवि बताते हैं कि जब से सिर पर गृहस्थी की जिम्मेदारी आई है, सारी मस्ती गायब हो गई है। जो माता-पिता देकर ही सुख पाते थे, वे अब नहीं रहे। अब सभी शौक और इच्छाओं को काबू में रखना पड़ता है। बहुत जरूरी जरूरतों को भी अब नज़रअंदाज करना पड़ता है।
सिसक सिसक कर भोला बचपन, अपनी माँगों को दुहराता । बेबस पितृभाव छिप-छिप कर चुपके-चुपके अश्रु बहाता ।
“तासीर धूप की छाँव में” नवगीत में कवि ग्रामीण जीवन पर शहरीकरण के प्रभाव को उजागर किया है। शहरीकरण के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं जो उनके पारंपरिक जीवन और मूल्यों को खतरे में डाल रही हैं। गाँव की सांस्कृतिक और सामाजिक अस्मिता इस प्रभाव के चलते प्रभावित हो रही है।:
ऐसा जहर शहर ने बोया गाँव में।
लगी हुई अस्मिता देखिए दाँव में ।।
“भारत के गाँव” इस नवगीत में कवि ने भारतीय ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों, विकास के नाम पर हो रहे संघर्ष, और आजादी के बाद भी ग्रामीण जनता की स्थिति में कोई सुधार न होने की ओर संकेत किया है। कवि बताते हैं कि भारत के गाँव अभावों की गठरी लादे हुए हैं। वे धीरे-धीरे साँस ले रहे हैं और उनका दिल भी धड़क रहा है। गाँव के लोग हर मौसम की कठोरता का सामना कर रहे हैं। वे कड़ी धूप में झुलसते हुए भी छाँव की तलाश करते हैं। कवि ने बड़ी संवेदनशीलता से गाँव के लोगों के जीवन की वास्तविकताओं और उनके संघर्षों को उजागर किया है।
नव-विकास तो हमें देख बेतरह बिदकता है।
लाल अंगौछा देख जिस तरह साँड़ भड़कता है।
“बेखौफ बदी” में कवि बताते हैं कि बदी (बुराई) अब नेकी पर गुर्राती फिरती है और बिल्कुल बेखौफ है। इस नवगीत में कवि ने समाज में व्याप्त बुराई, षड्यंत्रों, और भय के माहौल को बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। कवि ने दिखाया है कि कैसे बुराई अब नेकी पर हावी हो रही है और आतंकवाद मान-प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है।
दुरभिसंधियाँ दूर दूर तक जाल बिछाये हैं। धरती से अम्बर तक भय के गहरे साये हैं।
आगे बढ़ते हैं तो “गरीब की जोरू” में कवि ने समाज में गरीब महिला की स्थिति को उजागर किया है। गरीब की पत्नी को सभी लोग अपने अधिकार में समझते हैं और उसे हर किसी का व्यवहार सहन करना पड़ता है। वह सतर्क रहकर लोगों की नीयत को समझने की कोशिश करती है, क्योंकि वह जानती है कि लोग उसे छल सकते हैं और उसका शोषण कर सकते हैं।
रामकली बोली-बानी में शहद घोलती है।
सोच-समझ कर संयत स्वर मे शब्द बोलती है।।
इस नवगीत में कवि ने गरीब महिला की मजबूरियों, समाज की क्रूरता, और उसकी सतर्कता को बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। कवि ने रामकली के चरित्र और उसकी परिस्थितियों को बहुत ही सजीवता से चित्रित किया है।
“कोटि असंभव संभव करती” इस नवगीत में कवि ने राजनीति की चालाकियों, धोखे, और विरोधाभासों को बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। कवि ने दिखाया है कि कैसे राजनीति असंभव को संभव बना देती है, कैसे शब्दों के अर्थ बदलते हैं, और कैसे झूठ को सच की तरह पेश किया जाता है।
साँप-नेवले यहाँ प्रेम की पींग बढ़ाते।
सिंह श्रृगालों को श्रद्धा से शीश नवाते।
“बाजार ही बाजार है” इस नवगीत में कवि ने समाज में व्याप्त व्यावसायीकरण, नैतिक मूल्यों के ह्रास, और विज्ञापनों के प्रभाव को बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। कवि ने दिखाया है कि कैसे हर चीज की कीमत लगाई जा रही है, कैसे नैतिकता और सच्चाई का ह्रास हो रहा है, और कैसे विज्ञापन झूठ को फैलाने का काम कर रहे हैं।
मूल्य लगता है यहाँ हर चीज का।
बेबसी, बन्दिश, दुआ-ताबीज का।
कौड़ियों के भाव बिकता प्यार है।।
“गीतों की खुशबू में” इस नवगीत में कवि ने जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को चित्रित किया है। जीवन में दुख और समस्याएँ सिर पर लादे घूमते रहे, लेकिन मंजिल तक नहीं पहुँच सके। असफलता को दूर करने की कोशिशें विफल रहीं। इसके बावजूद, कवि ने अपनी पीड़ा को गीतों में व्यक्त कर फाकामस्ती के साथ जीवन बिताया। कवि ने इस नवगीत के माध्यम से समाज को एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है कि जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों के बावजूद हमें कैसे उम्मीद और साहस बनाए रखना चाहिए और कैसे अपनी पीड़ा को गीतों में व्यक्त कर अपनी जिजीविषा को बल देना चाहिए।
दीप जलाए रखा हमेशा तम से लड़ने को।
तत्पर रहे अनय के मुँह पर थप्पड़ जड़ने को।
“कुण्ठित मन लिए”, यह नवगीत समाज को आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करता है और हमें यह समझने की दिशा में आगे बढ़ाता है कि वास्तविक संतोष और खुशी नकारात्मक भावनाओं से मुक्त होकर ही प्राप्त की जा सकती है।
चाहते मुख पृष्ठ पर पायें जगह।
सोच में रहती हमेशा मात-शह।
लाँघ भी पाते न पर वे हाशिए ।।
“चढ़ रहा पारा” इस नवगीत की विशेषता यह है कि यह हमें उन कठिन परिस्थितियों की याद दिलाता है जो गर्मी के कारण उत्पन्न होती हैं। कवि ने सरल और प्रभावशाली भाषा का प्रयोग करते हुए वातावरण की विकट स्थिति को चित्रित किया है।
पी गई सारा हरापन धूप बौरायी।
रेत के नीचे छिपी जा नदी घबरायी।
इसके बाद आता है “दर्द को पीते हुए”, यह नवगीत आज के समाज में रिश्तों और जीवन की कठिनाइयों को दर्शाता है। कवि ने बताया है कि कैसे लोग अपने घावों को सीते हुए, अपनी तकलीफों को सहते हुए दिन बिताते हैं। यह दर्द और कठिनाइयों से भरे जीवन का चित्रण है। कवि ने सजीव और प्रभावशाली भाषा का प्रयोग करते हुए जीवन के दर्द और रिश्तों की नाजुकता को प्रस्तुत किया है।
राह जो पकड़ी उसी पर छल मिले।
रुक नहीं पाये अनय के सिलसिले।
“भोर चला” इस नवगीत की विशेषता यह है कि यह सुबह के समय की शांति, ताजगी, और ऊर्जा को बहुत ही सजीव तरीके से वर्णन करता है। वृक्षों पर गूँज उठा कलरव। जीवन का पृष्ठ खुला अभिनव।
कवि ने सुबह की लाली, अंधकार का भागना, चिड़ियों का चहचहाना, बगीचे की खुशी, बस्ती की सक्रियता, और किसानों की तैयारी का वर्णन किया है, जो हमें सुबह के समय की ताजगी और ऊर्जा का अहसास कराते हैं।
आगे बढ़ते हैं तो “दान का अभियान” नवगीत के छन्दों में कवि ने दिखावे वाले दान, पाखंड और धूर्तता का वर्णन किया है:
एक रोटी बीस हाथों में सधी है।
कैमरे की दृष्टि चेहरों से बँधी है।“जिन्दगी हैरान है” इस नवगीत की विशेषता यह है कि यह हमें समाज की कठिनाइयों और वास्तविकताओं के प्रति जागरूक करता है। कवि ने जीवन की थकावट, भूख, बाहरी समस्याओं, समय की साजिशों, बेबसी के व्यापार, हवस की दुष्टता, दुख और पीड़ा, और इंसानियत के संकट का वर्णन किया है, जो हमें यह समझने की दिशा में प्रेरित करता है कि समाज में कितनी कठिनाइयाँ और संघर्ष हैं।
“भोर की पहली किरन” इस नवगीत की विशेषता यह है कि यह हमें सुबह की ताजगी और उसकी ऊर्जा का अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। कवि ने सुबह की किरण जो खिड़कियों और द्वारों से झाँकती है, पंछियों की चहचहाहट, फूलों की खिलखिलाहट, और प्रकृति की ताजगी का चित्रण किया है। यह नवगीत हमें सुबह की ताजगी, ऊर्जा और सुंदरता का अनुभव कराता है और हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि सुबह का समय कितना महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक हो सकता है।
“हाँ-हुजूरी का हुनर” नवगीत कवि की निष्ठा, दृढ़ता, और उच्च नैतिक मूल्यों का उत्कृष्ट उदाहरण है। कविता के छन्दों में निडरता, सवाल उठाने की प्रवृत्ति, चापलूसी से दूर रहने, स्वार्थ से अछूते रहने, संघर्षशीलता और कवि धर्म के प्रति निष्ठा का वर्णन किया है, जो हमें यह सिखाते हैं कि जीवन में सिद्धांतप्रियता और निष्ठा का पालन करना कितना महत्वपूर्ण है।
मुफलिसी में भी रहे तन कर खड़े हम।
आग भीतर की न होने दी कभी कम।
आगे बढ़ते हैं तो “प्रश्नों से डसी हुई शाम” नवगीत हमें दिनभर के संघर्षों और उनकी वजह से उत्पन्न निराशाओं का सजीव अनुभव कराता है। कविता में शाम का सजीव वर्णन है, जो सवालों से घिरी हुई है, दिनभर के युद्ध और संघर्ष, शोषण की गिरफ्त, और निराशा की चोटों का चित्रण किया है। कुल मिलाकर, यह नवगीत हमें दिनभर के संघर्षों और निराशाओं का अनुभव कराता है और हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि हमें इनसे उबरने के लिए हमेशा प्रयासरत रहना चाहिए।
सारे दिन युद्ध कमर कसे हुए।
व्यूह में विवशता के बॅसे हुए।
“फागुन फिर सिवान तक आया” में कवि ने फागुन के माहौल का सजीव वर्णन किया है, जो फूलों की सुगंध, कामदेव के तीर, उमंग और उत्साह, मनमानी और ज्ञान के भूलने का चित्रण करता है। फागुन का महीना, जो भारतीय पंचांग का अंतिम माह है और होली का पर्व लेकर आता है, वापस सिवान (गाँव का बाहरी क्षेत्र) तक आ गया है। यह नवगीत हमें फागुन के महीने की उमंग और उत्साह का अनुभव कराता है और हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि जीवन में उमंग और उत्साह का कितना महत्व है।
फैलायेगा जड़-चेतन में फिर यह अपनी माया।।
फागुन फिर सिवान तक आया।
“चाँदनी ने खटकाया” इस नवगीत में कवि ने चाँदनी रात, चाँद, तारे, और नींद जैसे प्रतीकों का उपयोग करके अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। कविता में एक प्रकार की उदासी और अकेलापन महसूस होता है। कवि की पीड़ा और स्मृतियों की चुभन साफ झलकती है। छंदों में बिम्ब और प्रतीकों का सुंदर उपयोग किया गया है, जिससे कविता में एक गहरी भावना का संचार होता है।
पूछ रही थी आते नहीं नदी के तट पर।
खोये-खोये से रहते जीवन से कट कर।
इसके बाद “चिड़िया चहचहाती है” नवगीत में चिड़िया के प्रतीक का उपयोग कर कवि ने मानवीय जीवन के विभिन्न भावों और संघर्षों को उजागर किया है। चिड़िया यहाँ एक सकारात्मक ऊर्जा और आशा का प्रतीक है, जो कठिनाइयों और दुःख के बीच भी उम्मीद और खुशी का संचार करती है।
जुल्म का बैताल जब आँखें दिखाता है।
बेबसी का दर्द रह-रह खदबदाता है।
एक चिड़िया घाव पर मरहम लगाती है।।
फिर आता है “जलते हुए दिन” जिसमें कवि ने तपती गर्मियों के दिन और उनसे जुड़े कठिनाइयों को वर्णित किया है। तीनों छंदों में अलग-अलग दृष्टिकोण से दिन की तपिश और उसके प्रभावों को दर्शाया गया है।
हुआ दूभर देहरी के पार जाना।
अभावों से जूझना, उनको हराना।
“बीत रहे दिन” इस नवगीत में कवि ने जीवन के कठिन और उदास दिनों का चित्रण किया है, जहां खुशियों और संवाद की कमी महसूस होती है। संदेह और स्वार्थ ने रिश्तों को और भी कठिन बना दिया है।
पनप रहे रक्त बीज जैसे संदेह।
'लाभ-लोभ' सोख रहा अनवरत सनेह।
रिश्ते-सम्बन्ध चुभा रहे आलपिन।।
हँसी जादुई : इस नवगीत में कवि ने जादुई हँसी की सुंदरता और उसकी प्रभावशीलता को बहुत ही संवेदनशीलता और गहराई से वर्णित किया है। हँसी को एक दिव्य और जादुई तत्व के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो हृदय को खुशियों से भर देती है।
हर्ष, संकोच मिश्रित हँसी जादुई ।
देखते ही लगा सोम-वर्षा हुई।
शाल शालीनता की लपेटे हुए।
उच्च औदार्य खुद में समेटे हुए।
आ गया जब नाम : इस नवगीत में कवि ने खूबसूरती से बयां किया है कि जब अनजाने में किसी प्रिय का नाम याद आता है, तो वह कितनी गहरी चोट और उदासी लेकर आता है। नवगीत में दर्द, उदासी और विछोह की भावनाओं को गहराई से महसूस किया जा सकता है। यह पाठक को उन क्षणों से जोड़ता है जब यादें और विछोह का दर्द बहुत गहरा होता है।
आ गया जब नाम मुँह पर भूल से।
माँग लाई याद चुभन बबूल से।।
“युग की त्रासदी” नवगीत में कवि ने युगों-युगों से चली आ रही सामाजिक और नैतिक त्रासदियों का वर्णन किया है। इतिहास और वर्तमान दोनों में अच्छाई और न्याय को हारते और बुराई को जीतते देखा गया है। कवि ने ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों का उपयोग करके गहरे अर्थों को उभारा है।
नेकियों को धूल चटवाती बदी।।
शकुनि के पाँसे दिलाते जीत हैं।
विदुर जैसे न्यायविद भयभीत हैं।
खून के आँसू बहाती द्रोपदी।।
“पस्त हैं आमजन”: इस नवगीत में कवि ने समाज की वर्तमान स्थिति का वर्णन किया है, जिसमें आमजन परेशान और निराश हैं। समाज में धूर्तता, षड्यंत्र और अन्याय का बोलबाला है।
हाथ को हाथ ही छल रहा आज कल।
देख हालात को दिल रहा है दहल।
चाक-चौबंद हैं धूर्तता के किले।
पार हद कर रहे लूट के सिलसिले।
आगे बढ़ते हैं तो “हरी लकड़ियाँ” नवगीत में कवि ने समाज में व्याप्त अंदरूनी संघर्ष, धोखे और उदासी का सजीव चित्रण किया है। हरी लकड़ियाँ, जो आमतौर पर जीवंत और हरी-भरी होती हैं, वे भी अंदर ही अंदर सुलग रही हैं।
सुलग रही हैं हरी लकड़ियाँ भीतर भीतर।।
अनुरंजन के लिए लड़ाये जाते तीतर।।
बाजों संग उड़ाये जाते कोयल, कीकर।।
बाजों (शिकार के पक्षी) के साथ कोयल और कीकर (प्रतीकात्मक पक्षी) को उड़ाया जाता है, यानी निर्दोष और सरल लोगों को भी धूर्त और चालाक लोगों के साथ धकेला जाता है।
“हँस रहा सिवान” नवगीत में कवि ने प्रकृति के सौंदर्य, प्रेम और आनंद का सजीव चित्रण किया है। सिवान (सीमांत क्षेत्र) के हँसने का अर्थ है कि प्रकृति में हर ओर खुशी और उत्सव का माहौल है। नवगीत में प्रकृति की सुंदरता, प्रेम और उत्सव का माहौल गहराई से महसूस किया जा सकता है। यह कविता पाठक को प्रकृति के साथ जोड़ती है और उसमें एक सकारात्मक ऊर्जा और खुशी भरती है।
झूम रहा पवन अंग अंग में उछाह।
धूप-परी लगती ज्यों भूल गई राह।
आगे बढ़ते हैं तो "दिन हुए छोटे" नवगीत में कवि ने समाज की संकीर्ण मानसिकता, बढ़ती निराशा और कठिनाइयों का मार्मिक चित्रण किया है। इस नवगीत के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की गई है कि जैसे दिन छोटे होते जा रहे हैं, वैसे ही हमारी सोच भी सीमित होती जा रही है।
चैन में हैं वही जो हैं खाल के मोटे ।।
“मौन भरा है” यह नवगीत एक ऐसे समाज का चित्रण करता है जहाँ लोग एक-दूसरे से कटे हुए हैं, संवाद की कमी है और संकीर्ण मानसिकता हावी है। यहाँ "मौन" का अर्थ केवल शारीरिक मौन नहीं, बल्कि लोगों के बीच संवाद की कमी और संवेदनाओं के अभाव से है।
सब सबसे हैं नजर चुराते।
बेमतलब की अकड़ दिखाते।
बचते फिरते बोलचाल से,
परिचय करने से कतराते।
"धूप ने ली है अंगड़ाई" नवगीत में कवि ने प्राकृतिक सौंदर्य और परिवर्तन का बहुत ही सुंदर और जीवंत चित्रण किया है। पगडंडियों पर फूलों की सजावट और खेतों में पीली फसलों की लहराती छवि से प्राकृतिक सौंदर्य और समृद्धि का चित्रण किया गया है। महुआरी-मद और पपीहा की टेर के माध्यम से वातावरण में दीवानगी और उत्साह भरा गया है।प्रेम पत्र ले जाती हवा, पलाश की लाली, और लज्जा की चूनर कुतरती मौसम की चुहिया के माध्यम से कवि ने प्राकृतिक परिवर्तन और प्रेम की भावना को व्यक्त किया है। अंत में सम्मोहित पायलें और खेत की मेड़ों तक उनकी पहुंच ने पूरे दृश्य को और भी आकर्षक बना दिया है।
आँखों आँखों में पलाश की लाली उतर रही।
मौसम की चुहिया लज्जा की चूनर कुतर रही।
“ईश्वर है हिसाब में कच्चा” नवगीत में कवि बताते हैं कि बच्चे को अक्सर लगता है कि ईश्वर हिसाब करने में कच्चा है। बच्चा अपने जीवन की कठिनाइयों और अन्याय को देखकर यह सोचता है कि ईश्वर ने उसे उचित न्याय नहीं दिया है। कवि ने बच्चों की मासूमियत और उनके हक़ों की अनदेखी को स्वर्णिम महलों में बिकते हुए दिखाया है। बच्चों के संघर्षपूर्ण जीवन को सुबह की डांट-फटकार और दिन भर की हाथापाई से लेकर शाम के तीखे तानों तक के माध्यम से चित्रित किया है।
धनवानों की स्वर्ण-पुरी में बचपन बेच रहा है बच्चा।।
आगे बढ़ते हैं तो "चिड़िया गई चहकना भूल" नवगीत में चिड़िया के प्रतीक के माध्यम से महानगर की कठोरता और वहां की कठिनाइयों को दर्शाया गया है। प्रकृति की अनुपस्थिति और सामाजिक संबंधों की कमी को व्यक्त किया है। स्वच्छ और सजे हुए घरों के बावजूद रिश्तों की अनदेखी और उपेक्षा को दर्शाया गया है। महानगर में वृक्ष, बगीचे, तालाब, और चौपाल जैसी परंपराओं और सामाजिक मेलजोल के साधनों की कमी को उजागर किया गया है।
शाल दूब की ओढ़े धरती,
यहां खुला आकाश नहीं।
हंसी-मसखरी, बात-बतकही,
प्रेम और विश्वास नहीं।
बिना स्वार्थ के मेलजोल की बातें फिजूल लगने की व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई है। यह नवगीत पाठक को महानगर के जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराता है और उसे सोचने पर मजबूर करता है कि हमारे रिश्तों और सामाजिक संबंधों को कैसे बेहतर बनाया जा सकता है।
"बुधिया मन ही मन प्राणी है" नवगीत में कवि ने राजनीति और राजनेताओं की कुटिलता और धोखाधड़ी को उजागर किया है। यह नवगीत आम जनता की पीड़ा, उनकी असुरक्षा और राजनेताओं की फरेबी बातों और सत्ता की लालसा को बहुत ही संवेदनशीलता और सटीकता से प्रस्तुत करता है।
लोभ बसा है इनके मन में,
घुली मधुरता सिर्फ वचन में,
धोखे ही धोखे शामिल हैं,
दांवों, नारों, आश्वासन में।
“सुनो बटोही” में कवि एक यात्री (बटोही) से कह रहे हैं कि इस नगरी में रिश्तों का कोई महत्व नहीं यहाँ तक कि थालियां, जो आमतौर पर खाने के लिए उपयोग की जाती हैं, भी गगरी में पाई जाती हैं। यह दर्शाता है कि यहाँ चीजों का सही उपयोग या सही स्थान पर होना भी मायने नहीं रखता। "सुनो बटोही" नवगीत में कवि ने आधुनिक समाज और उसके लोगों की स्वार्थी और भावनाहीन प्रवृत्ति को बहुत ही सजीव ढंग से प्रस्तुत किया
भाव नहीं मिलता रिश्तों को इस नगरी में।
यहां थालियां भी पायी जाती गगरी में।
"आओ फिर असभ्य हो जाएं" नवगीत में कवि ने वर्तमान समाज और सभ्यता की आलोचना की है और सुझाव दिया है कि हमें अपनी प्राकृतिक और सहज स्थिति में लौट आना चाहिए। यह नवगीत प्रेम, समानता, निस्वार्थता और सच्चाई का संदेश देता है।
किसके पास अधिक क्या, कम क्या,
नहीं पड़े हम इस लफड़े में।
ऐसे रहें कि जैसे पानी
सात सिंधु का एक घड़े में।
"महानगर है" नवगीत में कवि ने महानगर की जीवनशैली, वहाँ के लोगों की मानसिकता और समाज की असंवेदनशीलता को बहुत ही सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है। यह नवगीत महानगर की भागदौड़, छल-कपट, शंका और डर, ऊँचे-ऊँचे भवनों की मौन स्थिति, बाशिंदों की असंवेदनशीलता और बाहरी दिखावे के साथ आंतरिक वास्तविकता को उजागर करता है।
ऊंचे ऊंचे भवन मगर सब मौन खड़े हैं।
बाशिंदे भी रहते कुछ अकड़े अकड़े हैं।
चेहरे फ्यूज बल्ब पोशाकें जगर-मगर हैं।
“खोटे सिक्के” शीर्षक से ही स्पष्ट होता है कि यह नवगीत समाज में व्याप्त भ्रांतियों, धोखाधड़ी और असत्य को उजागर करता है। यह बताता है कि हमारे समाज में नकली और खोखले मूल्य बड़ी सहजता से अपनाए जा रहे हैं।
"कहीं टिटहरी पंजों पर आकाश उठाये।
काना कौआ कहीं भैरवी राग सुनाये।"
"प्रश्न बहुत वाचाल हो गये" शीर्षक से स्पष्ट है कि यह नवगीत समाज और राजनीति में उठने वाले प्रश्नों और उनकी अनदेखी पर केंद्रित है। "वाचाल" का अर्थ है बड़बोले या बहुत बोलने वाले। यह दर्शाता है कि प्रश्न अब इतने बढ़ गये हैं कि उन्हें अनसुना नहीं किया जा सकता। यह नवगीत समकालीन समाज और राजनीति की कड़वी सच्चाइयों को उजागर करता है। इसमें भ्रष्टाचार, धोखा, गुलामी की मानसिकता और राजनीतिक धांधली पर तीखा प्रहार किया गया है। नवगीत का हर छन्द समाज की विद्रूपताओं और राजनीतिक व्यंग्यों को बेनकाब करता है। इसमें जनता की पीड़ा, शहीदों की कुर्बानी की अवहेलना और जनसेवकों के धनी बनने की प्रक्रिया का खुलासा किया गया है। नवगीत की भाषा सरल और सहज है, परंतु उसके प्रतीक और संदेश अत्यधिक प्रभावशाली और चिंतनशील हैं।
"यह कैसी आयी आजादी।
चोर-लुटेरों की है चांदी।
टूट गये जन गण के सपने,
हुई रक्त-रंजित है खादी।।"
आगे बढ़ते हैं तो नवगीत "जीवन कैसे जिया" जीवन के संघर्षों, कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों का वर्णन करता है। इसमें यह बताया गया है कि जीवन को किस तरह जीया गया है, किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
"बायें था बाज और दाहिने बहेलिया।
पूछो मत, यह जीवन कैसे कैसे जिया।।"
नवगीत "अरण्य-रोदन में" जीवन के व्यर्थ प्रयासों और निराशाओं पर केंद्रित है। इसमें जीवन के उन पहलुओं को उजागर किया गया है, जहां इंसान तृष्णाओं और इच्छाओं के पीछे भागते-भागते अपने मूल्यों और आत्मसम्मान से समझौता कर लेता है। "अरण्य-रोदन" का अर्थ है जंगल में रोना, जो व्यर्थ और निरर्थक प्रयास का प्रतीक है।
"समझौतों से पाटा हंस कर मतभेदों को।
नकली मुस्कानों से छिपा लिया खेदों को।।"
"लगे रहे, गलत सही सबके अनुमोदन में।।"
नवगीत "आपस की दूरियां" समाज में बढ़ती हुई आपसी दूरियों, आर्थिक असमानताओं और सामाजिक रिश्तों की खटास पर केंद्रित है। यह नवगीत पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है कि वे अपने समाज में क्या देख रहे हैं और उनके आपसी रिश्ते और व्यवहार कैसे बदल रहे हैं।
"एक तरफ माल-पुआ एक तरफ कड़की है।
क्रोध भरी नजरें हैं, गाली है, घुड़की है।।"
नवगीत "भोर आता देख" सुबह के आगमन, नई आशाओं और सकारात्मकता का बेहद खूबसूरती से वर्णन करता है। इसमें सुबह की नई किरणों से जुड़ी आशाओं, आस्था और विश्वास की पुनर्जागरण, और इच्छाओं की पूर्ति की संभावनाओं का वर्णन किया गया है। नवगीत की भाषा सरल और सहज है, लेकिन उसमें छिपा संदेश गहरा और प्रभावी है। हर छन्द एक नई शुरुआत, नई उम्मीद और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है।
"झिलमिलाई लालिमा प्राची हुई नव प्रभा मंडित।
सुगबुगाये स्वप्न फिर से हो गये थे जो विखंडित।।"
आगे बढ़ते हैं तो नवगीत "कानून पस्त है" समाज में व्याप्त असमानता, कानून की कमजोरी, और सत्ता के दुरुपयोग को बेहद प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करता है।
"फिर दिल्ली में जश्न मनेगा,
चप्पा-चप्पा खूब सजेगा,
लाल किले से होगा भाषण,
सेवा में तत्पर है शासन,
छत्रप इसमें सिद्धहस्त है।।"
नवगीत "तुम्हें नमन है सौ सौ बार" का हर छन्द शहीदों के बलिदान और त्याग की महिमा का वर्णन करता है, चाहे वह उनके प्राणों की आहुति हो, भूख और कठिनाइयों का सामना हो, या शत्रु से वीरता से लड़ना हो। नवगीत की भाषा सरल और सहज है, लेकिन उसमें छिपा भाव और संदेश गहरा है।
"पूज्य पूर्वज, तिल-जौ से हम,
तुम सबका तर्पण करते हैं।
भारत के आजाद नागरिक
श्रद्धा का अर्पण करते हैं।।"
नवगीत "खुलकर जिए" जीवन को संपूर्णता और उत्साह के साथ जीने पर केंद्रित है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।
"भाव-सुमनों से सुगंधित मन लिए।
कंटकों के बीच भी खुलकर जिए।।"
हर छन्द व्यक्ति की संघर्षशीलता, दृढ़ता और सकारात्मक दृष्टिकोण को उजागर करता है। यह नवगीत पाठकों को प्रेरित करता है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, उन्हें अपने हौंसले को अडिग रखते हुए जीवन को संपूर्णता और साहस के साथ जीना चाहिए।
गीत नवगीत संग्रह मौन सच है में कवि ने अत्यंत संवेदनशीलता और गहराई से जीवन की सच्चाइयों और संघर्षों को व्यक्त किया है, जो पाठकों को प्रभावित और प्रेरित करता है। भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो पाठक के दिल तक पहुँचती है। बिंब और प्रतीकों का उपयोग अत्यंत प्रभावी है, जो भावनाओं की गहराई को उभारते हैं। कवि ने ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों का उपयोग करके गहरे अर्थों को उभारा है।
आशा है कि "मौन सच है" साहित्य जगत में अपार प्रतिष्ठा पाएगा और इसे पाठकों का भरपूर स्नेह मिलेगा।
#डॉ आलोक गुप्ता
पेटेंट अटॉर्नी, आलोक गुप्ता एंड एसोसिएट्स
-“आशीर्वाद”, 626 , जवाहर कॉलोनी, नई मंडी, मुज़फ्फरनगर
मो. 9319279551
ईमेल. ashirwad626@gmail.com
11 जुलाई ,2024