रविवार, 16 मई 2021

कुमार रविन्द्र जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ समूह

~।। वागर्थ ।। ~ 

    प्रस्तुत करता है नवगीत के सशक्त  हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी के नवगीत । 
     कुमार रवीन्द्र जी का जन्म (१० जून १९४० )लखनऊ में हुआ । दयानन्द कालेज हिसार, हरियाणा के स्नातकोत्तर अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष पद पर रहे बेहद सरलमना कुमार रवींद्र जी को  प्रसिद्धि का दम्भ रंचमात्र भी स्पर्श नहीं कर पाया , अनुभव के विशाल वट के सानिध्य में कितने ही नवांकुरों को उनका सहज मार्गदर्शन स्नेहपूर्वक मिलता रहा । फेसबुक मंच पर भी वह रचनाकारों के नवगीतों पर अर्थवान प्रतिक्रिया देते वक्त यह भेदभाव नहीं करते थे कि अमुक रचनाकार कौन है , निस्वार्थ भाव से सृजन की  सराहना उनका विशेष गुण था ।   
    उनकी दृष्टि संपन्नता की बानगी उनके विविधतापूर्ण नवगीतोंं में स्पष्ट देखने को मिलती है  जो जीवन के लगभग सभी सरोकारों व यथार्थ के खुरदुरे  धरातल पर  सभी अमानवीय प्रसंगों से जूझते  हुए सामाजिक ढाँचें  से वाजिब संवाद करते हैं  ।  वे अपने गीतों में सामाजिक व सत्तारूढ़ विसंगतियों को बेबाकी से बेनक़ाब करते हैं । अछूते शिल्पगत प्रयोगों, अनूठी बिम्ब-संयोजनाओं से उनके गीत भाषा और कहन को अनंत विस्तार देते  हैं । 
     वह स्वयं कहते हैं कि  " आज का नया गीत अर्थात ' नवगीत ' पूरी सक्षमता से मनुष्यता के अधुनातन प्रश्नों से रू-ब-रू है। असहज होते अर्थों को भी उसने अर्थ-विभ्रम से बचाते हुए उन्हें सहज भाव-बिम्बों में व्यक्त करने की कला विकसित की है। प्रतीक और बिम्बों की जटिलता से वह मुक्त होकर अधिक आमफहम कहन की ओर उन्मुख हुआ है। आज का नवगीत रोजमर्रा की बातचीत का गीत है। अस्तु उसमें वार्तालाप और संवाद का स्वर स्वतः ही मुखर हुआ है साथ ही कबीर  की उलटबांसियों की कहन भी  नवगीत के लिए बेहद सटीक सिद्ध हुई है , उसके माध्यम से आज का कवि एक ओर अपने समय की विसंगतियों को उजागर कर पाता है दूसरी ओर वह समय के अन्तराल को पारकर युगीन विसंगतियों को भी अपने समय के कथ्य से जोड़ देता है।
    लब्बोलुआब यह कि इसमें समय के साथ अनुभूति और चिंतन का अधिक  प्रौढ़ रूप से परिपाक हुआ है । उन्होंने नवगीत की समालोचना पर भी  वृहद स्तर पर उल्लेखनीय कार्य किया ।
            वागर्थ उनके १५ गीत अपने सुधी पाठकों हेतु यहाँ जोड़कर गौरवान्वित है ।

                                           प्रस्तुति 
                                      ~।।वागर्थ ।। ~
                                      सम्पादक मण्डल 
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(१)

हमें मिले राजा सब ढोंगी
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जनम-जनम के 
पाप फले हैं
हमें मिले राजा सब ढोंगी

'अच्छे दिन' की हुई मुनादी
बंधु, फ़रेबी उनकी बानी
उनके सिरजे सपनों पर भी 
चढ़ा हुआ सोने का पानी

नीम हक़ीम
दवा देते नित
उनके लेखे परजा रोगी

आसमान छू रही हवेली
महादेश के सौदागर की
उसके साये ने है घेरा
हवा रुक गई सबके घर की

राजकाज में
विघ्न न आये
आमजनों ने विपदा भोगी

शाहों ने पोथी बँचवाई 
लिखा गया इतिहास नया है
नहीं जन्मते अब विदेह हैं
सुनते, भूमि हुई बंध्या है

प्रजाजनों का
दिल बहलाने
बजा रहे राजा जी पोंगी

(२)

प्रजातंत्र है 
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सभागार में 
रोज़ तमाशा -बंधु, बधाई
प्रजातंत्र है 

राजपथों पर प्रजाजनॉ के 
जाने की है सख़्त मनाही 
सभी सुखी हैं -सब समर्थ हैं 
नए संत दे रहे गवाही 

हाट बिकी मर्यादा सारी 
रामराज की फिरी दुहाई   
प्रजातंत्र है 

सुख-सुविधा के नए आँकड़े 
रचे जा रहे रजधानी में 
बजा रहे डुगडुगी शाहजी 
शहद घुला उनकी बानी में 

लूट रहे ठग मिलकर जन को 
जिसकी जितनी, बंधु, समाई 
प्रजातंत्र है 

नौटंकी संसद की अद्भुत 
देख रही परजा मुँह-बाये 
फ़ैल गए चौखट-ड्योढ़ी तक 
महाकोट के अंधे साये 

विश्वहाट का शंख बज रहा 
'फॉरेन' ऋचा गई है गाई 
प्रजातंत्र है  

(३)

देवता कैसे भजें
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रंगमहलों में हुए उत्सव
हम फटे पर्दे
          भला कैसे सजें
 
रेशमी पोशाक पहने
खिड़कियों को
ताकते फानूस
इत्र में डूबी हवाएँ
कहकहों के
दूर तक लंबे जुलूस
 
खण्डहर में मौन को सुनते
काठ की हम घंटियाँ
             कैसे बजें
 
साँवली मेहराब के नीचे
चाँद के
टुकड़े कई लटके
रात भर मीनार के ऊपर
पाँव नंगी देह के भटके
 
उधर मंदिर में बुझे दीपक
हम पुराने देवता
               कैसे भजें

(४)

महानगरी राजधानी 
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महानगरी
राजधानी धूप की
बुन रही गहरे अँधेरे
 
घूमता है घनी सडकों पर
एक बहरा शोर
साँझ तक फैली गुफाओं का
है न कोई छोर
 
सोच में डूबी
निकलती हैं
यातनाएँ हर सबेरे
 
बहुत उजले और ऊँचे हैं
रोशनी के पुल
किन्तु उनकी छाँव में पलते
सिर्फ़ अँधे कुल
 
लोग कंधों पर
उठाए घूमते
उजड़े बसेरे
 
भीड़ है-
बाज़ार में उत्सव और मेले हैं
छली चेहरों की नुमायश है
घर अकेले हैं
 
एक छल है
आइनों का
सभी को परछाईं घेरे

(५)

क्रूर महलों के ढाँचे
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ऊँची मीनारें हैं
लंबे परकोटे
इस बढ़ती बस्ती में सबके घर टोटे
 
कैसे हम
सूरज को
इस जगह पुकारें
डूबती हवाएँ हैं
घिरती दीवारें
 
गुंबज हो रहे बड़े - आसमान छोटे
 
होते हैं क्रूर बड़े
महलों के ढाँचे
कहाँ-कहाँ साँस घिरी
कौन यहाँ बाँचे
 
फुरसत है किसे - सभी जमा रहे गोटें
 
अँधे गलियारे हैं
गहरे तहख़ाने
नकली हो गईं यहाँ
सबकी पहचानें
 
चेहरे हैं भद्र और अंदर से खोटे

(६)

हैं बाऊजी बूढ़े 
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माँ को है लकवा
हैं बाऊजी बूढ़े
घर के हर कोने में ढेरों हैं कूड़े
 
छूती है छत कच्ची
लोनी दीवारें
दरवाजे-खिड़की से
झाँकती दरारें
 
बेटों की नेकटाई - बहुओं के जूड़े
 
पानी बिन सूख रही
गमले की तुलसी
ढह रही बरांडे में
दादा की कुरसी
 
भीग रहे आँगन में पड़े हुए मूढे
 
काँपते कैलेण्डर पर
पिछली तारीख़ें
बता रहीं -कितनी हैं
बुढ़ा रहीं लीकें
 
अगले दिन-हफ़्तों को कौन यहाँ ढूँढ़े

(७)

बीमार ऋतु के आँकड़े 
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पीली हवाएँ लौट आईं
           नीम के पत्ते झड़े
               नंगे बदन सूरज खड़े
 
साए हवा में उड़ गए
ढाँचे हुए सारे तने
केवल बचे हैं ठूँठ कुछ
बूढ़ी सुबह के सामने
 
दालान की है नींद टूटी
               रास्ते सूने पड़े
 
पोखर-किनारे के शिवाले
सोचते चुपचाप हैं -
क्यों जल अकेले धूप में
सोए हुए मुँह-ढाँप हैं
 
गिनती लहर है रात-दिन
            बीमार ऋतु के आँकड़े

(८)

आहत हैं वन
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भूल गये मौसम मधुमास के वचन
                           आहत हैं वन
 
आखेटक कई खड़े
सरहद के पार
कोंपल की घटनाएँ
हो रहीं शिकार
 
छूट रहे पेड़ों से हैं अपनेपन
 
काँप रहे ऋतुओं के
आखिरी पड़ाव
साँझ-ढले
पतझर के हैं गहरे दाँव
 
नीरव में गूँज रहे अपराधी छन
 
धुँध के किलों में
है बंदी आकाश
संकट से घिरा हुआ
फागुनी पलाश
 
एकाकी डूबा है सोच में विजन

(९)

टँगे हुए जाल
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टँगे हुए जाल
रेत बहुत गहरे हैं
      छिछले हैं ताल
ताक रहे सन्नाटे फावड़े-कुदाल
 
पपड़ाए चेहरों पर
टिकी हुई भूख
गहराते मेंहों की
साँस गई सूख
 
कौन कहे कितने हैं पथराए ताल
 
आँगन को अगियाती
रोज़ कड़ी धूप
पानी हैं माँग रहे
बौराए कूप
 
दिन कैसे गुजरेंगे - पूछते पुआल
 
दर्द ओढ़ सोते हैं
मछुआरे गाँव
झीलों से कहाँ गए
मछली के ठाँव
 
सोच रहे खूँटी पर टँगे हुए जाल

(१०)
अनुभव हुए प्रयाग से
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हमने जब-जब तुम्हें छुआ
अनुराग से
साँसों के सब अनुभव हुए प्रयाग से
 
हुई हर छुवन
उस पल गंगा-स्नान सी
चितवन जिस पल हुई
काम के बान-सी
 
नहा गयी
मौसम की धूप सुहाग से
 
बाँहों के घेरे में
छवि के बिम्ब लिये
हमने तुम सँग
मधुमासों के रंग जिये
 
दमक गये
सुधियों के पल सब आग-से
 
पोर-पोर में
इच्छा के जुगनू जगे
रस-निर्झर में
खड़े रह गये हम ठगे
 
अंगों ने
जब छुआ रूप को फाग से

(११)

गीत पुरानी पीढ़ी के
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गीत पुरानी पीढ़ी के ये
                  इन्हें सँभालो

रक्खो इन्हें संग्रहालय में
काम आयेंगे यही किसी दिन
शायद कभी इन्हीं में खोजें
अर्थ धूप के साँसें कमसिन

अपने नये पॉप-सुर में
                मत इनको ढालो

इन्हें पुरानी बीन-बाँसुरी
या सितार ही रास आएँगे
निश्चित है - कल बच्चे-बूढ़े
मंत्र समझकर इन्हें गाएँगे

तब तक तुम भी झूठे
            अपने गाल बजा लो

इनमें हैं ढाई आखर के
ऋषि-मुनियों के बोल पुराने
आबोहवा खिले फूलों की
गाँव-गली के पते-ठिकाने

अच्छा हो यदि तुम भी
             इनकी आदत डालो

(१२)

सुनो मागध
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यह अलौकिक स्वप्न-नगरी
यहाँ, आए - रहो गदगद
                            सुनो मागध !

यह कहाँ से ज़िक्र लाए
भुखमरी का
रात तुमने नाच देखा नहीं क्या
छप्पन-छुरी का

अरे नाहक कह रहे हो
इंद्र का कल गिरा गुंबद
                          सुनो मागध !

आग के तूफ़ान की
तुम ख़बर लाए
बावरे हो
यहाँ सबने शाहजी के विरुद गाए

लाखघर में सो रहे हैं
चैन से सारे सभासद
                        सुनो मागध !

मिला बच्चों को नहीं है
दूध कब से
महल में भेजे गए हैं
दूध से कल भरे कलसे

सभी ख़ुश हैं
महारानी का हुआ कल रात दोहद
                         सुनो मागध !

(१३)

अपराधी देव हुए
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अपराधी देव हुए
ऎसे में क्या करें मंदिर की घंटियाँ

उनको तो बजना है
बजती हैं
कई बार
आपा भी तजती हैं

धूप मरी भोर-हुए
कैसे फिर धीर धरें मंदिर की घंटियाँ

भक्तों की श्रद्धा वे
झेल रहीं
आंगन में अप्सराएँ
खेल रहीं

उनके संग राजा भी
देख-देख उन्हें तरें मंदिर की घंटियाँ

एक नहीं
कई लोग भूखे हैं
आँखों के कोये तक
रूखे हैं

दर्द सभी के इतने
किस-किस की पीर हरें मंदिर की घंटियाँ ।

(१४)

कुछ सुख बचे हैं
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यह क्या, भन्ते !
बोधिवृक्ष को खोज रहे तुम
महानगर में

यों यह सच है
बोधिवृक्ष की चर्चा थी कल
सभागार में
रक्त बहा है
इधर रात भर नदी-धार में

घायल पड़ा हुआ है
अंतिम-बचा कबूतर पूजाघर में

सड़क-दर-सड़क
भटक रहे तुम
लोग चकित हैं
सधे हुए जो अस्त्र-शस्त्र
वे अभिमंत्रित हैं

उस कोने में
बच्चे बैठे भूखे-प्यासे/डूबे डर में

वही तो नहीं बोधिवृक्ष
जो ठूँठ खड़ा है
उस पर ही तो
महाअसुर का नाम जड़ा है

उसके नीचे
जलसे होंगे नरमेधों के
इस पतझर में

(१५)

देशराग यह
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आओ गाएँ 
देशराग यह 
उलटा-सीधा जैसा भी हो  

जनगणमन की गाथा इसमें नहीं रही अब 
नियम यही है - अपनों में ही बाँटो मनसब 

पूजो उनको 
महाबली जो 
जिनके घर में पैसा भी हो  

विश्वहाट का साया पसरा है आँगन तक 
शाहों के वादों से भी अब तबियत है झक 

किन्तु देश तो 
अपना है यह 
झूठा-सच्चा कैसा भी हो  

रामराज की यादों से मन को बहलाएँ 
खरे रहे जो उनकी महिमा छिपकर गाएँ 

कभी समय का 
चक्का पलटे 
सोच रहे हम - ऐसा ही हो 
           
-- कुमार रवीन्द्र 
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परिचय 
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जन्म : १० जून १९४०, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में।
शिक्षा : एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य)

कार्यक्षेत्र : अध्यापन- दयानंद कालेज, हिसार (हरियाणा) के स्नातकोत्तर अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त। हिंदी-अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में काव्य-रचना।

प्रकाशित कृतियाँ -

नवगीत संग्रह - 
आहत है वन, चेहरों के अंतरीप, पंख बिखरे रेत पर, सुनो तथागत, और हमने संधियाँ कीं।

मुक्त छंद की कविताओं का संग्रह ~ 'लौटा दो पगडंडियाँ' 

काव्य नाटक ~ एक और कौंतेय, गाथा आहत संकल्पों की,
अँगुलिमाल, कटे अँगूठे का पर्व और कहियत भिन्न न भिन्न

 प्रमुख समवेत काव्य संकलन~

नवगीत संग्रह ~ 'नवगीत दशक-दो' - 'नवगीत अर्धशती' ( सम्पादक: डा. शम्भुनाथ सिंह )
'यात्रा में साथ-साथ' ( सम्पादक: देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' )
दोहा संग्रह : 'सप्तपदी-एक' ( सम्पादक : देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र')
ग़ज़ल संग्रह : 'ग़ज़ल दुष्यंत के बाद' - खंड: एक ( सम्पादक: दीक्षित दनकौरी)
'हिन्दुस्तानी गज़लें' ( सम्पादक: कमलेश्वर)
अन्य : 'बंजर धरती पर इन्द्रधनुष' ( सम्पादक: कन्हैयालाल नंदन )
देश विदेश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों व पुरस्कारों से विभूषित।

निधन ~ १  जनवरी २०१९

2 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुद और अनूठी रचनाएँ, कहीं व्यवस्था का वीभत्स रूप, कहीं प्रेम और परंपरा की पावनता| हर रंग लाजवाब|

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  2. बेहतरीन रचनाएं 🙏नमन लेखनी

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