गुरुवार, 6 मई 2021

चर्चा में रमेश रंजक जी का एक आलेख प्रस्तुति : समूह वागर्थ

प्रस्तुत है
रमेश रंजक जी के तीसरे संग्रह हरापन नहीं टूटेगा 
से उन्हीं की लिखी भूमिका

वागर्थ सम्पादक मण्डल
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नवगीत और गीत की सही ज़मीन
रमेश रंजक

दौड़ बड़ी चीज़ है जो साधना के क्रमिक विकास अथवा ह्रास के साथ-साथ रचनाकार की प्रतिबद्धता को उजागर करती है और समय सबसे बड़ा समीक्षक है, इसीलिए एक विश्वास हर उपेक्षित सर्जक के साथ-साथ जीता है कि —

          वक़्त तलाशी लेगा
       वह भी चढ़े बुढ़ापे में
           सम्भल कर चल।

और जब रचनाकार अपनी रचनाओं को भविष्य पर छोड़ देता है तो निहायत ज़रूरी हो जाता है कि वह अपने रचनाकाल में आए हुए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति जागरूक होकर अपने वर्तमान से अपनी पूरी ईमानदारी और साफ़गोई के साथ जुड़ जाए, अन्यथा भविष्य भी उसके मूल्यांकन से उसी प्रकार कतरा कर निकल जाएगा, जिस प्रकार रचनाकार अपने वर्तमान से कन्नी काटकर निकल जाता है।

मेरे गीत उसी बीमार वर्तमान का एक्सरे करने का प्रयास हैं, जिसे परहेज़ की सख़्त ज़रूरत है — और यही से मेरी नई सम्वेदनाएँ रूपायित होती हैं। ये सम्वेदनाएँ समाज की उन टूटती इकाइयों की बारीक दरारों के कारणों और परिणामों को खोजने की कोशिश का गुणनफल हैं, जिन्हें मैं निरन्तर खोजता चला आ रहा हूँ...

पथ-संवर्त सरल है। लेकिन नए रास्ते की धारदार सम्वेदनाओं को जीवन्त और सार्थक कृति का रूप देने के लिए कलाकार में आर्ट की सूक्ष्म पकड़ और क्राफ़्ट की संतुलित समझ के साथ रचनाकार का अपने रचना-धर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित होना नितान्त आवश्यक है। रचना के क्षण बहुत विरल होते हैं और उन विरल क्षणों में रचना अपने रचनाकार को सम्पूर्ण रूप में चाहती है। जहाँ भी रचनाकार अपने रचना-क्षणों में ज़रूरत से ज़्यादा सावधान या थोड़ा-सा भी असावधान होता है, वहीं उसकी रचनात्मक सहजता टूट जाती है, भले ही वह आगे जाकर फिर जुड़ जाती हो,लेकिन नदी के इस द्वीप को अलग से देखा-परखा जा सकता है। रचना के क्षणों में स्वाभाविक सहजता और अध्ययन के समय सतर्कता को मैं एक सफल और समर्थ रचनाकार के लिए आवश्यक मानता हूँ और यह भी बलपूर्वक कहना चाहता हूँ कि पुराने शब्द को उसके रूढ़ अर्थ से काटा कर नए अर्थ में तभी प्रयोग किया जा सकता है, जब उसे नई सम्वेदना के तापक्रम में में पूरी तरह जज्ब कर लिया जाए अन्यथा वह प्रयोग कोरा शाब्दिक चमत्कार होकर रह जाएगा — उदाहरणार्थ 'सोनजुही' शब्द गीत के क्षेत्र में बहुत पुराना शब्द है। लेकिन निम्न उद्धरण में उसे उसके मनमोहक अर्थ और मादक गन्ध से मुक्त कर दिया गया है — 'अहा!' से 'ओफ़्फ़ो!' तक की यह अर्थगत यात्रा संयोगवश नहीं,क्रमशः तय हुई है ।

          मेरा बदन हो गया पत्थर का
                  'सोनजुही-से' हाथ तुम्हारे
                           लकड़ी के हो गए
                   हमारे दिन फीके हो गए
          नक़्शा बदल गया सारे घर का।
 
मेरे लिए गीत जितना महत्त्वपूर्ण है उतनी कविता भी, लेकिन यहाँ पर गीत और गीतात्मक कविता (जो गीत के फ़्रेम में जड़ी होती है) के सूक्ष्म विभाजन को भी रेखांकित करना चाहता हूँ। जहाँ तक कविता की रचना-प्रक्रिया में 'लय' का प्रश्न है, उसे मैं किसी हद तक सार्थक मानता हूँ, लेकिन इसी 'लय' को जब गीत की रचना-प्रक्रिया के साथ जोड़ दिया जाता है तो ऐसा लगता है जैसे गीत और कविता की रचना-प्रक्रिया में कोई अन्तर ही नहीं है। 'लय' कविता की रचना-प्रक्रिया में अन्तिम स्थिति हो सकती है लेकिन गीत लिखने के लिए 'केवल लय' ही पर्याप्त नहीं है। 'लय' के उद्भूत क्षण को और आगे बढ़ाकर जब रचनाकार उसी लय को उसी की एक और पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज से जोड़ देता है तो उस लय की सपाटता मे एक विशेष घुमाव आ जाता है और लय रिवाल्विंग हो जाती है। यदि प्राइमरी के बच्चों को गिनती और पहाड़े रटते हुए आपने सुना हो तो आप गिनती की सपाट लय को पहाड़े की घुमावदार (रिवाल्विंग) लय से बड़ी आसानी से पृथक कर सकते हैं — और यह सपाट लय, घुमावदार लय तभी हो पाती है, जब उसी लय की पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज को उसमें पतली रस्सी की तरह भाँज दिया जाता है। हाँ ! कुछ गीतकार आलोचक इसे भी संगीतात्मकता का फ़तवा देना चाहेंगे, लेकिन वे इतना अवश्य ध्यान में रख लें कि लयात्मकता किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसमें भी संगीतात्मकता होती है। लय संगीत की कन्या है, चाहे यह संगीत (शास्त्रीय संगीत से अलग) जीवन, जगत, यंत्र आदि का वह संगीत ही क्यों न हो, जो आज के उन्मुक्त वातावरण में व्याप्त है। संगीत की ध्वनि-तरंगों से आप लय को किसी भी प्रकार बचा नहीं सकते। धूप की शहतीर में बिछलते अणु की तरह लय में भी संगीत की ध्वनि-तरंगें (वेव्ज) तैरती रहती हैं और उन्हीं के आधार पर कविता, गद्य से, और गीत कविता से पृथक होता है।

बहरहाल, इसी अतिरिक्त गूँज के साथ-साथ जब रचनाकार की समाहित सम्वेदना को उद‍घाटित करने वाले शब्द घूमने लगते हैं तब गीत अपनी शक़्ल बनाने लगता है और यहीं से गीत की रचना-प्रक्रिया का वह अन्तिम क्षण प्रारम्भ होता है जो गीत की समाप्ति तक गतिशील रहता है। लय की पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज जो विशेष घुमावदार लय का निर्माण करती है, अपने अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण रचनाकार की बड़ी गहरी पर्तों में से निकलती है, जो रचनाकार को (गीत की रचना-प्रक्रिया के समय) बार-बार अपने रूढ़ शब्दों और रागात्मक परिवेश की ओर खींचती है और रचनाकार की नई चेतना-दृष्टि (चूँकि बहिर्मुखी होती है) उसे नए धरातल पर लाने की लिए प्रयत्नशील रहती है। यही अन्तर्द्वन्द्व (विशेष रूप से आज के गीतकार के लिए) अभिव्यक्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण संकट-क्षण होता है, जहाँ वह अपनी नई सम्वेदना को नए रूप में वाणी देता है — इसके पश्चात यह शिल्पकार की अपनी क्षमता पर निर्भर करता है कि वह जनमते हुए गीत को चाहे सम पंक्तियों में बाँधे या विषम पंक्तियों में। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि गीत के विषय में अनुकूल की भाषा और शिल्प ही गीत के स्वास्थ्य और ताज़गी के लिए महत्त्वपूर्ण है। जहाँ भी शिल्प का अनुपात गीत की भाव-भूमि से अधिक हुआ (गीत श्रम-साध्य हुआ) या गीत की उपरोक्त रचना-प्रक्रिया टूटी, वहीं पर गीत, गीत न होकर गीतनुमा कविता हो जाता है। ऐसे स्थल सप्तकीय गीतकारों की रचनाओं में बड़ी आसानी से देखे जा सकते हैं — क्योंकि ऐसे गीत, गीत की रचना-प्रक्रिया से प्रारम्भ होकर कविता की रचना-प्रक्रिया पर उतर आते हैं। अतःगीत का तना हुआ तारतम्य ही टूट जाता है। ये गीत, गीतात्मक कविता का आनन्द तो देते हैं, लेकिन गीत का नहीं, क्योंकि 'लय' पर लिखे हुए गीत अधिकतर गीतात्मक कविताओं की कोटि में आते हैं, गीत की श्रेणी में नहीं आते।

जिन गीतकारों ने गीत लिखे हैं और अपने गीत-संग्रह की भूमिका में 'लय' की दुहाई दी है, वे अपनी भूमिका (नई कविता से आक्रान्त होकर) सामयिक झोंक में लिख गए हैं और जिन्होंने गीत की रचना-प्रक्रिया में 'लय' को ही आधार मानकर गीत लिखे हैं, उनसे एक-दो गीत बन पड़े हों, यह बात दीगर है, लेकिन उन्होंने (गीत की बनावट और बुनावट के बावजूद) गीतात्मक कविताएँ ही ज़्यादा लिखी हैं — अतः आज के गीत के लिए गीतकार को 'लय' के साथ उसकी पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज का सहारा लेना पड़ेगा, जो लय को घुमावदार (रिवाल्विंग) बनाती है...

...मैं नहीं समझता कि यहाँ यह भी कहना ज़रूरी है कि कंठीय गेयता तो महज प्रस्तुतिकरण की ख़ूबसूरती भर है, वह तो बने-बनाए गीत का शो-केस है, उसे लय की पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज के साथ जोड़ने की भूल न की जाए...

...आज के युग में आज का गीत लिखना, नई चेतना और नई सम्वेदनाओं को मथकर गीतमय करना तथा उसे, उसके अनुरूप नया शिल्प, नया छन्द, नई भाषा, नई गति देना कोई आसान काम नहीं है — लेकिन यह बात उन आलोचकों के गले नहीं उतरती जो गीत को आज के युग के अनुकूल विधा ही नहीं मानते। उनका यह कहना कि आज जब जीवन ही उलझ गया है और जब जीवन की रागात्मकता ही टूट गई है, तब गीत जैसी शर्तों से जुड़ी हुई विधा का प्रासंगिक रहना कहाँ सम्भव है? लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि जीवन के उलझाव और बिखराव की इसी खंडित गति को पचाकर गीतमय करना और ताज़गी के साथ अभिव्यक्त करना ही तो आज के समर्थ गीतकार का दायित्त्व है।

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