समकालीन दोहा की
आठवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं
विश्वप्रकाश दीक्षित 'बटुक' जी के दस दोहे
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पिछली सात कड़ियों पर मिली पाठकों की प्रतिक्रियाओं के आकलन पर जब एक नजर डालता हूँ तब समकालीन दोहों को लेकर सौं दोहाकारों पर काम करने की मेरी अपनी ही प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए मुझे और बल मिलता है।
आज की कड़ी में आज से तीस वर्ष पूर्व समकालीन दोहा पर काम करने और सुर्खियाँ बँटोरने वाले सीनियर मोस्ट पोइट विश्वप्रकाश दीक्षित 'बटुक' जी हैं। इस बात का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्द्र जी के सम्पादन में तत्कालीन समय में खासी चर्चा में आए समकालीन दोहों के बहुचर्चित संग्रह 'सप्तपदी' के पहले खण्ड के पहले दोहाकार दीक्षित जी ही हैं। प्रस्तुत दोहे दोहाकार के स्वतंत्र दोहा संग्रह 'तुजुक हजारा' से साभार लिए गये हैं।
दोहाकार ने आत्मकथ्य में दोहे के प्रति अपनी निष्ठा की जमकर पैरबी की है। आज की किस्त उनके आत्म कथ्य के बिना शायद अधूरी ही होती प्रस्तुत है समकालीन दोहाकार विश्वप्रकाश दीक्षित बटुक जी का आत्मकथ्य वे कहते हैं कि,- "शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द मेरी जिह्वा पर है,ब्रह्म मेरे भीतर ! दोनों ही मेरे अपने हैं । मैं दोनों का साधक -आराधक हूँ। ब्रह्म सबको साधे है। अतः मेरा शब्द भी कहीं-कहीं गतिमान है। दोहे को दुह लेना मेरा काव्य कृष्ण मेरा ब्रह्म न भूला। उर्दू शायरों के बहुत शेर देखे सुने हैं। मैं प्रत्युत्तर में कभी चूक नहीं करता ।शेर के मुकाबले मुझे दोहा बबर शेर। बस मैंने अपना लिया। मेरी प्रकृति चोट करने की है। हास्य के आगे व्यंगय की तिलमिलाहट का मैं कायल हूँ। आज जब व्यक्ति विदूषक बन गया है, समाज और धर्म साहित्य और राजनीति में विरूप विद्रूपता आ गयी है, तो शब्द भी पैना और धारदार हो उठा है। हम व्यंग्य के क्षणों को जी रहे हैं इस जीने को जीवन का व्यंग्य न कहें तो क्या कहें ?
व्यंग्य दोहे में खिलता है और खुलता है। मैंने दोहा अपना लिया है। यह क्लिक का युग है। दोहा इस युग के अनुकूल है। दोहा भी उस होने की हुंकृति स्वीकृति देने में समर्थ है। मैने दोहे को अपनाया या दोहे ने मुझे कहना मुश्किल है।"
टिप्पणी
मनोज जैन
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चित्र सहयोग
Pankaj Parimal
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बेशक विषमय ही सही, हैं तो मेरे बोल।
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नाक काटने में कुशल,कीचड़ सके उछाल।
सच्चा सम्पादक वही,रचे शब्द का जाल।।
कलम लिए था हाथ में , घेरे रहे कदूस ।
लिखा वही मैने किया ,जो कुछ भी महसूस ।।
आलोचक साहित्य का, सदा निकाले अर्क ।
देशी स्वर का पक्ष ले, लिये विदेशी तर्क ।।
बिना किसी अभ्यास के, खेल गया मैं खेल ।
बिन केवट के नाव भी, ले जाऊँगा ठेल ।।
हुईं बुलन्द इमारतें खण्डहर में तव्दील ।
अब क्या देगा रोशनी,बुझा हुआ कंदील ।।
प्रजातंत्र का शुद्धतम, रूप रहा है दीख ।
दण्डित भोंगें राजसुख , पण्डित माँगे भीख ।।
नभ पर खिलती चाँदनी , तले हिमाद्रि विराट ।
नगरवधू के पगों पर , लोट रहा सम्राट ।।
बेशक विषमय ही सही, हैं तो मेरे बोल।
भाई!इनमें भूलकर,अपनी सुधा न घोल।।
झूठी शेखी मार मत,मार शत्रु के गोल।
मुँह खोले बोले अरे,जय भारत की बोल ।।
कितने कवियों ने कहे, दोहे कई हजार।
ढूँढें से मेरा मगर मिला न जोड़ी दार ।।
विश्वप्रकाश दीक्षित 'बटुक'
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