समकालीन दोहा
छठी कड़ी
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समकालीन दोहा की छठवीं कड़ी में आज प्रस्तुत हैं
राधेश्याम शुक्ल जी के दस दोहे
डॉ राधेश्याम शुक्ल जी से पहला परिचय 2013 में निराला सृजन पीठ और नईम फाउण्डेशन के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित नवगीत पर्व में हुआ था।आयोजन समिति और स्मारिका के सम्पादन मण्डल में सदस्य होने के नाते बहुत सी खट्टी- मीठी यादें इस पूरे कार्यक्रम से जुड़ी हैं।
प्रस्तुत दोहों में दोहाकार ने युगीन सन्दर्भो को छन्द के सबसे छोटे रूपाकार में सहज और सरल शब्दों बाँध दिया है। इन दोहों की में कथ्य की पैनी धार देखते ही बनती है।
इन दोहों में जहाँ, एक ओर भूमंडलीकरण से उपजी पीड़ा, महानगरीय संत्रास के चित्र,रिश्तों के दरकने का दर्द, पर्यावरण संरक्षण की चिंता है तो वहीं दूसरी ओर असंगतियों पर तीखे प्रहार भी देखने को मिलते है। प्रस्तुत दोहों में कवि की उम्र और अनुभव खुलकर बोलता है। प्रस्तुत दोहे 'बस्ती बस्ती रेत है'
संकलन से साभार से लिये गए हैं।
टिप्पणी
मनोज जैन
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आज आदमी तीर
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लौटा ले मेरी सदी अपने सब उपहार
पर मुझसे मत छीन तू रिश्ते खुशियाँ प्यार
सुबह व्यस्त दोपहर थकी गणित लगाती शाम
रात उनींदी पूछती मुझसे मेरा नाम
बेटी मैना दूर की चहके करे निहाल
वक़्त हुआ जो उड़ चली तज पीहर की डाल
कितने उत्तर दे कोई अनगिन उठे सवाल
हुआ आदमी विक्रमा वक़्त हुआ बैताल
चेहरों पर आक्रोश है आँखों आँखों पीर
कटे अँगूठे का हुआ आज आदमी तीर
आग बिकी पानी बिका सपनों के बाजार
प्यास करे सौदागरी पेट-पीठ लाचार
रोकर गाकर चीखकर चुप हो गया जमीर
किन्तु जुल्म के माथ पर पड़ी न एक लकीर
मत दुहराओ यक्ष तुम प्रश्नों का इतिहास
पानी दो हक़ माँगती पंच पाण्डवी प्यास
बचा न पाया आदमी करके सौ तदबीर
रजवाड़ों ने लूट ली पानी की जागीर
चादर बड़ी न हो रही कितना मोड़ें पाँव
खुशफ़हमी उघरी फिरे हार -हार कर दाँव
डॉ राधेश्याम शुक्ल
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