अनामिका सिंह के नवगीतों से गुज़रने का मौक़ा मिला। पहले ही नवगीत से वे समय की नब्ज़ पर उँगली रखे मिलीं। इन रचनाओं में जहाँ आज के साहित्यिक विमर्शों के छद्म होते जाते रूपों की अच्छी खोज-ख़बर ली गयी है, वहीं दुर्वह परिस्थितियों में भी संघर्ष जारी रखने की बात केंद्र में है। 'अम्मा की सुधि आई' में लोकजीवन की झाँकी ने बहुत कुछ कह दिया है, लेकिन कवयित्री ने निराशा को पास फटकने का अवसर नहीं दिया। यह आश्वस्ति सुखद लगती है। 'जोखू-जैसी प्यास' में प्रेमचंद के 'ठाकुर का कुआँ' के हवाले से टटकी रचनाधर्मिता दिखाई देती है। "समरसता की भेदभाव से मिट्टी हुई पलीद" पँक्ति में आज का सच जैसे शब्दायित हो गया है। आगे के नवगीतों में, लोकतंत्र का लोक रुआँसा, सड़कों पर अंजर-पंजर, लालक़िले की सीख सयानी बना रही परतंत्र, राजा निकले पाथर तुम, मला अँधेरा सबकी आँखों और विहानों पर, जैसी सहज व्यंजनाएँ न केवल वैविश्यपूर्ण और मार्मिक अभिव्यक्तियों को धार देती हैं, बल्कि तमाम अनकहा भी कहती हैं जो किसी भी साहित्यिक विधा के रूप की कलात्मक सफलता होती है। दोज़ख हो माहौल भले ही, नहीं छोड़ती आस/ पहन मुखौटे फिरें भेड़िए, नहीं लगेगी दाँव।" जैसी उक्तियाँ कवयित्री के आशावादी स्वर की पहचान हैं। इन नवगीतों में अन्य विशेषताएँ भी हैं जो चर्चा की माँग करती हैं, लेकिन यहाँ उन पर चर्चा करना संभव नहीं। लय, तुकांत और भाषा को लेकर एकाध जगह मुझे असहज होना पड़ा, जैसे- तीसरे नवगीत में, 'पैरहन बदल रही सत्ता के...'और दसवें नवगीत में 'संघर्ष सभी तुम जारी रखना' पदों में लय बाधित लगी। तुकांत के लिहाज से पहले नवगीत में 'विमर्श' के तुकांत 'उत्कर्ष, निष्कर्ष' और 'संघर्ष' हैं। ये एक नज़र में खटकते हैं। इससे तो अच्छा होता कि 'विमर्श' को ही बदल दिया जाता। पाँचवें नवगीत में, 'धन-वैभव के कासे ख़ाली' उक्ति में कासा का प्रयोग खटका। कासे तो रोटी-पानी के लिए ही होते हैं, धन-वैभव रखने के लिए नहीं। अंतिम गीत में ‘हारिल’ पंछी का प्रयोग भी उपयुक्त नहीं लगता, क्योंकि वह नकारात्मकता का प्रतीक नहीं है। तीसरे गीत में प्रयुक्त 'समरसता की भेदभाव' पद की जगह 'समरसता के भेदभाव' होना चाहिए था। इसी प्रकार, 'नहीं लगेगी दाँव' में क्रियापद लगेगा होना चाहिए था। इन छोटी-मोटी कमियों को अगर नज़रअंदाज़ कर दें तो, ये नवगीत अनामिका सिंह के रचना-कर्म को प्रतिष्ठा दिलाते हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएंँ।
- राजेन्द्र वर्मा, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
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आम जन जीवन के इर्द-गिर्द मंडराते सूक्ष्म भावों से पिरोये अनामिका सिंह के दस नवगीत विशेषांक में पटल की शोभा बढ़ा रहें हैं। गाँव-गिराँव की सोंधी मिट्टी से उपजे कुछ शब्द जहाँ नवगीतों का लालित्य को बढ़ा रहें हैं, वहीं धर्म, राजनीति के मामले में बेबाक होकर माहौल को जीवन्तता प्रदान कर उजागर कर रहे हैं! अम्मा की सुध आई... नवगीत का सृजन शिल्प अद्भुत है। जोखू जैसी प्यास में...शोषण के सामन्तवाद के घाव हरे दिखते हैं। उम्मीदों के कैसे होंगे'/भारी फिर से पाँव...एक कलम पर सौ खंजर हैं... घना कुहासा आँगन फैला/औंधी पड़ी परात...बड़े रूप के चिन्तन में भी/जातिवाद का जाला.. बेशर्मी भी शर्मसार है.. छल के हारिल करके धोखा/देगें आँखें मींच।" जैसी पंक्तियाँ थोड़े में ही बहुत कुछ कहने का सामर्थ्य रखती हैं। सत्ता की महाराब नवगीत से हाल में ही किसान आंदोलन के व्यथित करने वाले दृश्य उपस्थित हो जातें हैंI सभी दसों नवगीतों के कथ्य अलग-अलग हैं जो पाठकों को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। युवा कवयित्री अनामिका सिंह को हार्दिक बधाई। संवेदनात्मक आलोक समिति का भी धन्यवाद, जिसके चयन से अनामिका सिंह जी के नवगीत पढ़ने को मिले और नई प्रतिभा मुखरित होकर सुधी पाठकों के समक्ष आई।
- महेन्द्र नारायण, शामली उ०प्र०
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EAGLE - EYE की नई खोज
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नवगीत के उद्भव और विकास की इस महत्वपूर्ण यात्रा में तब से लेकर अब तक महिला नवगीत लेखन में सूक्ष्म दृष्टिपात किया जाए तो अनामिका सिंह जी के पटल पर प्रस्तुत नवगीत अन्य समकालीन महिला नवगीतकारों की तुलना में अनूठे और अछूते हैं। दरअसल में अनामिका सिंह जी की ख़ूबी यह है कि उनके यहाँ नवगीत-कविता का कथ्य ठोस और दमदार देखने को मिलता है। भले ही उनके समकालीनों के खाते में नवगीत और कृतियों की संख्या ज्यादा हों। पर, उनमें नवगीत- कविता कितनी है? यह कहने की मुझे आवश्यकता नहीं है।
अनामिका सिंह जी के नवगीतों का अछूता और प्रभावी कथ्य पाठक को कविता के अंत तक बाँधे रखकर उसे मंथन करने पर विवश करता है। अपनी इस अप्रतिम प्रतिभा से अनामिका सिंह जी ने नवगीत के क्षेत्र में तीव्र गति से अलग पहचान बनाई है। उनके नवगीत रूपाकार की दृष्टि से भी प्रभावित करते हैं। लोकभाषा, लोक संवेदना और यथार्थ समकालीन सन्दभों से जुड़ी जनपक्षधरता की गंध प्रस्तुत नवगीतों में चार चाँद लगाती है। यह तो हुई अनामिका सिंह जी की बात अब दो एक बातें खोजी प्रवृत्ति के व्यक्तित्व और सिद्ध नवगीतकार एवं विश्व नवगीत पटल के संचालक अग्रज रामकिशोर दाहिया जी के सन्दर्भ में यहाँ प्रासंगिक हैं। दाहिया जी की तुलना प्रतिभा खोज के मामले में ईगल आई EAGLE- EYE से करना चाहूँगा। ईगल की तरह दाहिया जी की निगाह भी बहुत दूर का देख लेती है। प्रतिभा कहीं भी हो वह खोज ही निकालते हैं। आज उन्होंने अनामिका सिंह जी के जिन दस नवगीतों का चयन किया है, वे अनूठे हैं।
इन नवगीतों में समकालीनता है। आज की तल्ख सच्चाइयाँ हैं। ये नवगीत अपने आप में उनके लिए भी आदर्श हैं जो नवगीत लेखन में प्रयासरत हैं। आदरणीय अशोक शर्मा जी का अग्रलेख यूनिक और पूरी प्रस्तुति का सहायक बनता है। अनामिका सिंह जी को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएंँ। अग्रज रामकिशोर दाहिया जी को इस उपक्रम और खोज के लिए अनंत आभार! आगे भी हमें आपके माध्यम से इस विश्व नवगीत पटल पर नई-नई प्रतिभाओं के नवगीत पढ़ने को मिलते रहेंगे।
इसी आशा के साथ।
मनोज जैन, 106, विठ्ठल नगर, भोपाल
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अनामिका जी का दसवाँ नवगीत 'चाल-चलन' प्रगति चेतनाधर्मा नवयुग की शिक्षित नारी को नवदिशा बोध से न केवल परिचित कराता है बल्कि अवरोधों से सुरक्षा कैसे करना है इसकी प्रेरणा भी देता है । मुखड़ा देखिए- परिधि तुम्हारे पंखों की लो/रहे हितैषी खींच/चिरैया बचकर रहना/
प्रगतिशील शिक्षित नवयुवती के लिए चिरैया प्रतीक बिल्कुल सार्थक है इस पुरुषप्रधान समाज में आज भी प्रगतिशील स्त्रियों की टाँग खींची जाती है इस यथार्थ को उक्त पँक्तियाँ सहज ही व्यक्त कर देती हैं ।
प्रगतिशील के पाँवों में वे/ बेड़ी डालेंगे/
बिल्कुल सही बात है बल्कि यह घिनौना कृत्य किसी स्वतंत्र विचारों बाली शिक्षित स्त्री के लिए सबसे पहले परिवार से ही प्रारंभ होता है जहाँ परिवार उसको अपना स्वतंत्र मुकाम बनाने के बजाय विवाह के लिए जोर-जबरदस्ती करता है
नियम कायदे बाले अपने मंतर फूँकेंगे/
करने वश में तुझे नहीं वे जंतर चूकेंगे/ उक्त पँक्तियाँ. सरलता से नारी जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्ति दे रही हैं। छल के हारिल करके धोखा/देंगे आँखें मीच/चिरैया बचकर रहना/उक्त पँक्तियों में छल के लिए हारिल की उपमा तर्कसंगत नहीं लगती क्योंकि हारिल मीठे फल खाने बाला शाकाहारी वह पक्षी है जो चोंच में लकड़ी दबाए एक दिशाबोध के साथ उड़ान भरता है जिस लकड़ी ने उसे बैठने का सहारा दिया वह भी उसका साथ अंतिम समय तक नहीं छोड़ता इसलिए हारिल को वचन निभाने बाले पक्षियों की श्रेणी में रखा जाता हैं ।
छल के लिए कौआ या बगुला ही प्रतीक हो सकते हैं ऐंसा मेरा मानना है बहरहाल कवयित्री जो बात उक्त पँक्तियों में कहना चाहती है वह पूर्णतः सही है कि प्रगतिशील नारी के आसपास ही छल का एक अदृश्य जाल बिछा रहता है इसलिए उससे बचकर चलने में ही समझदारी है ।
साँसें कितनी ली हैं कैसे/बही निकालेंगे/ चाल-चलन की पोथी पत्री/
सभी खँगालेंगे/
उक्त पँक्तियाँ कटु यथार्थ को सरलता से अभिव्यक्त कर कथ्य को समृद्ध बनाने में सफल हुई हैं ।
युद्ध सभी तुम जारी रखना/भले उछालें कीच/
यह भी समाज का सत्य है कि हम संघर्ष कर प्रगति करने बाली नारियों पर अक्सर कीचड़ उछालते हैं जबकि पुरुषों के संदर्भ में हमारा व्यवहार ऐंसा नहीं है । इसलिए सावधान रहना एक प्रगतिशील शिक्षित नारी के लिए बहुत आवश्यक है ।
कवयित्री का नारी जागरण का संदेश वंदनीय है यह एक कालजयी नवगीत है ।
-- ईश्वर दयाल गोस्वामी
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"संवेदनात्मक आलोक" विश्व नवगीत साहित्य विचार मंच का 106 वां अंक नवगीत की चर्चित हस्ताक्षर अनामिका सिंह जी के दस नव गीतों पर एकाग्र है। इस विशेषांक को प्रस्तुत करते हुए अशोक शर्मा कटेठिया जी का भूमिका आलेख अनामिका सिंह की रचना धर्मिता के संदर्भ में उल्लेखनीय है। इन गीतों की विषय वस्तु के साथ ही गीतकार की अंतर्दृष्टि तथा गीतों की आत्मा तक पहुँचने में यह आलेख सहयोगी सिद्ध हुआ है। इस हेतु कटेठिया जी का आभार।
प्रस्तुत दस गीतों को पढ़ते हुए यह अनुभव हुआ कि गीतों में जो कहा गया है उसके पीछे जितना अनकहा है वह भी हृदय प्रदेश में प्रवेश कर रहा है। प्रत्येक गीत ठहरकर पढ़ने और चिंतन करने को विवश करता है। अपने समय को, अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देख कर,अपने नवीनतम बिंब,और उसे नवगीत के शिल्प में अभिव्यक्ति बहुत प्रभावी है। कठपुतली जैसे तनी डोर पर चलती जिंदगी, सामंतों के छल बल, मुखौटे पहने भेड़िए, कलम पर सौ खंजर, दो जून की रोटी के लिए आंत करें उत्पात, चेलों का पाखंड, आत्ममुग्धता नहीं छूटती, भूखा किसान और चिरैया बच कर रहना आदि विसंगत वातावरण के परिदृश्य मार्मिक हैं और यह दृश्य असहाय निर्बल जन सामान्य के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। सभी गीत अछूते कथ्य के अनूठे नवगीत हैं। इस हेतु अनामिका जी का हार्दिक अभिनंदन। संवेदनात्मक आलोक परिवार और दहिया जी का हृदय से आभार
रघुवीर शर्मा
खंडवा म.प्र.
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पटल पर आदरणीय दहिया जी ने अनामिका जी के गीतों को प्रस्तुत कर हमें पढ़ने का अवसर दिया है। पटल की कार्यकारणी का हृदय से आभार धन्यवाद।
प्रथम गीत से ही अनामिका जी की लेखनी के ताप को महसूस किया जा सकता है ।
गीत में कोरे हुए विमर्श हमारी व्यवस्था के छदम को उजागर करने का सार्थक प्रयास है । इस माहौल में हमारे लिए संघर्ष ही रास्ता है।
अम्मा की सुध आई गीत उनके मातृ प्रेम का गीत है । माँ से गहरे जुड़ाव की भावना से ओतप्रोत गीत में माँ की पीड़ा को बड़ी ही सहज और सहृदयता से अभिव्यक्ति किया है।
जौखु जैसी प्यास में आम आदमी की दुख परेशानियों की कराह है ।उसी तरह अगले गीत भी आम आदमी दुःख तकलीफों का चित्र खींचता है।
इन सारी परेशानियों के बीच उन्होंने कलम कार की बाधाओं को भी सिद्दत से भोगा और महसूस की है । आज सच को सच लिखना ही सबसे बड़ी चुनौती है ।
आज के छदम समय में झूठ का प्रचार बड़े जोर शोर से किया जा रहा है। जिसकी बजह से सच्चाई हाशिये पर है।लोकतंत्र की आड़ में बढ़ती तानाशाही से हम सभी बाख़बर हैं। राम का असली चेहरा लेखका ने बखूबी उजागर किया है।
इन सारी अव्यवस्थाओं के बीच लोकतंत्र की लाज बचाने की गुहार राजा से की गई है। लेकिन जब सत्ता का नशा हो तो इन बातों की तरफ कौन ध्यान देता है।किसानों के साथ हो रहा अन्याय किसी से छुपा नहीं है। तो वहीं दूसरी और चिरैया बचकर रहना नारी को सावधान करने का प्रयास है।
कुल मिलाकर इन गीतों में दुःख पीड़ा और व्यवस्था की गहरी पड़ताल है।और उससे सावधान करने की कोशिश भी । बहुत बहुत बधाई अनामिका जी
- दौलतराम प्रजापति, लटेरी जिला विदिशा म प्र
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पटल पर नवगीत कवयित्री अनामिका सिंह जी की दस नवगीत रचना पढ़ने का सुअवसर मिला।गीतों से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि कवयित्री में सूक्ष्म निरीक्षण की शक्ति बेजोड़ की है।अपने आसपास से कथ्यों को लेकर अपनी अनुभूति से भोगे हुए सत्य को अपने गीतों में बखूब बुनाई की है जो पाठकों तक सहज सम्प्रेषणीय है। सत्ता बदलती रही है लेकिन आदमी के हालात नहीं बदले।ऐसे में संघर्ष जारी रखने की सलाह प्रथम गीत का संदेश है।दूसरा गीत पारिवारिक और माँ की यादों में आने वाले भाव को बड़ी कोमलता से उकेरा गया है और मर्मस्पर्शी है। गरीबी, विषमता, सामाजिक विद्रूपताओं, जातीय भेदभाव धार्मिक अंधविश्वासों की परत दर परत खोलते ये गीत मानवीय मूल्यों की चिंता से लैश हैं। कृषक समाज की दयनीय दशा और स्त्री- स्वतंत्रता की चिंता को भी गीतों में बहुत बेहतर अभिव्यक्ति मिली है। मेरी शुभकामना है कि कवयित्री को नवगीत के आगे का मैदान मिलता रहे और दाहिया जी को ऐसे गीतों को पटल पर लाने के लिए शतवार बधाई।
डॉ.चन्द्रदेव सिंह, मुजफ्फरपुर बिहार।
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युवा कवयित्री अनामिका सिंह के दस नवगीतों से गुजर रहा हूँ। अलग अलग संदर्भों के ये नवगीत कहन और शिल्प के स्तर पर नितांत मौलिक हैं। अनामिका जिस समाज में रहतीं हैं, वहां की परिस्थितियों को बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी अभिव्यक्ति प्रदान करतीं हैं। उनका लेखन उन्हें उनके अनुभवों से होकर गुजारता है। यही कारण है कि उनके गीत माँ की स्नेहिल स्मृतियों से संपन्न होकर तमाम जीवन संघर्षों से रूबरू होते हैं।
भाषा सरल और सहज होने के कारण संप्रेषण के स्तर पर ये गीत पाठकों के बेहद करीब हैं। उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ है , और किसी भी रचनाकार के लिए उसके विज़न की स्पष्टता बहुत आवश्यक है। अल्लम गल्लम कुछ भी लिखकर कचरा जमा करने वाले असंख्य स्वनामधन्य कवियों - नवगीतकारों और नवगीत के सामंतों की भीड़ से अलग अनामिका का रचनाकर्म बहुत संभावनाएं जगाता है। वे मेरी बहन हैं , इस नाते मैं यह कह सकता हूँ कि यदि वे अपने आप को नवगीत के मठाधीशों और सामंतशाहों के गिरोह से स्वयं को बचाकर, सिर्फ अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित रख सकीं, तो यकीनन बहुत दूर तक जाएंगी।
मेरी अनंत शुभकामनाएं!
- जय चक्रवर्ती, रायबरेली, उ.प्र.
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युवा कवयित्री आदरणीया अनामिका जी ने अपने अनूठे नवगीतों में सामाजिक पीड़ा की सूक्ष्म-सत्यता को गहरे पैठ इतने प्रभावशाली शिल्प से प्रस्तुत किया है कि पाठक इनमें समाहित भावों की गहराई व विशेषता को पूर्णतया आत्मसात् करने के लिए लगभग बाध्य हो जाता है। बधाई!
मुझ में इनकी परख की क्षमता तो है ही कहाँ, मात्र ह्रदय की प्रतिक्रिया को विनम्र भाव से उँडेलने की कोशिश की है।
इनकी विशेषता स्वर-तेवर, पैनापन, व्यथा का समग्र आँकलन और आशा-निराशा का सन्तुलन!
अनन्य बानगीयाँ मेरे विचार में:
[१] - आहों व कराहों की पीड़ा को जीकर भी मन्द हास मुखड़े पर - संघर्ष का आह्वान!
[२] -अम्मा की आँखों में भले पीर की काई जमी हो पर वो इकाई कुनबे की दहाई को जोड़ती! अम्मा की सुध लेती बेटियाँ!
[३]- समरसता व सद्भाव की हुईं मिट्टी पलीद, बंध्या है हर उम्मीद, ऊँच नीच की पटी नहीं खाई, दोज़ख़…तब भी नहीं छोड़नी आस!
[४]- पढ़ी-लिखी मुनिया - आशा की परिभाषा!
[६]- वादों की नंगी तकली इक दिन राज मुकुट बेध देगी !
[७]- बचपन भले कट्टर धर्म की मथानी से घायल हुआ हो, जवानी से उम्मीद बाक़ी है!
[८]- मानुष चोले में घातक मानव जाने कब कितने मुंड चबाकर अफ़राएगा, पर ठगा तो वो भी जाएगा इक दिन!
[९]- चोपायों से किसान अपनी फसल बचाना तो जानता है, इन दोपायों की लूट से नहीं। तथापि जनसत्ता खेतों में से होकर आना निश्चित है!
[१०]- चल के हारिल जन्तर मन्तर फूँक लें, बही खंगालें या कीच उछालें, चिरैया के इन पंखों की परिधि का नाप लेने की क्षमता नहीं है इनमें!
सादर प्रणाम व हार्दिक बधाई! 💐🙏🏽
- राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया
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युवा गीत कवयित्री अनामिका सिंह के नव गीतों में ताज़गी है, जो उनके संभावनाशील होने की आहट है. बने - बनाए ढाँचों से बाहर निकलने की छटपटाहट साफ दिखाई पड़ रही है. उनके गीतों में लोक और उसकी संवेदना अधिक परिपुष्ट हुई है. प्रयुक्त बिंबों के स्वरूप और तेवर बिलकुल अलहदा हैं. रूढ़ियों को तोड़ती वैज्ञानिक सोच का प्रवाह है. उनके नवगीतों में समय से दो - दो हाथ करने का जज़्बा भी है और सामर्थ्य भी.
ये नवगीत जनमानस के बहुत करीब हैं. कवयित्री ने इन नवगीतों को अपने अनुभव के फलक पर उगाए हैं. इनमें अनुभूति की गहन पीड़ा भी है और एक उम्मीद भी. इनमें समय की सापेक्षता के स्वर स्पष्ट रूप से सुने जा सकते हैं.
इनके गीत पीड़ा सहकर भी संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा देते हैं. अम्मा की सुधि के बहाने उन तमाम माँओं की जीवनगाथा कह दी गई है, जिनका जीवन दिन - रात चूल्हे, चक्की और घर - गृहस्थी को संवारने में कटता रहता है. सदियों से चली आ रही शोषण की कुत्सित परंपरा पर भी उन्होंने कुठाराघात किया है. युवतियों को सजग भी करती हैं. सत्ताधारियों की कुटिल नीतियों का खुलासा भी करती हैं.
कुछ प्रयोग बहुत अच्छे और उल्लेखनीय हैं ---
अनपढ़ बाँचे, मौन पढ़ी थी
बढ़ता रहा परास
बंध्या हर उम्मीद
वादों की नंगी तकली पर
मैं अनामिका जी को उनके बेहतर नवगीतों के लिए बधाई देता हूँ.
अरविंद अवस्थी
मीरजापुर
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आदरणीया अनामिका सिंह जी के नवगीत पढ़ने का अवसर मिला है। समयाभाव की वजह से गीतों का रसास्वादन करते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ।
कोरे हुए विमर्श - आम जनजीवन की पीड़ा को बखूबी उकेरा गया है।
तनी डोर पर चले जिंदगी, साध संतुलन मन को।
बदल रही भूगोल चूक भी,
टूटे हुए बदन का।। सटीक बिंब और भाव,,
भारतीय नारी जो इस समाज की बुनियाद मजबूत करने में अपने पूरी जिंदगी के समर्पण और प्रतिफल का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्र खींचा गया है।
जोखू जैसी प्यास - व्यवस्था एवं सत्ता के दोगलेपन पर पूरी ताकत से प्रहार करने का प्रयास किया है इस गीत के माध्यम से, किन्तु यह ढीठ और निर्लज्ज व्यवस्था बदलने का नाम ही नहीं लेती है।
यौवन की दहलीज गीत के माध्यम से इस देश के शोषित, वंचित, और दीनहीन जनता के त्रासदी भरे जीवन का बड़ा ही प्रभावी चित्र खींचा है। धँसी आँख का जिंदा मुर्दा,, यह पंक्ति पूरे गीत का सार कहने में समर्थ है। नहीं बाँधना मौला मुझको पथवारी ताबीज,, शिक्षा के लंगड़ेपन की कहानी बयान करती है।
एक कलम पर - हम अफगान तालिबान पर कटाक्ष करने से चुकते नहीं है किंतु देश के जाति और धर्म के नाम पर अपने पौरुष का प्रदर्शन करने वाले लोगों के गाल पर एक तमाचा है।
आँत करे उत्पात - रिक्त उदर में जले अँगीठी, आँत करे उत्पात,, वादों की नंगी तकली पर रहे सूत को कात,,, राजनीति के मुख पर चढ़ी छल और कपट की परतों को उधेड़ने का सराहनीय प्रयास
कट्टर धर्म मथानी
लानत रख लो
सत्ता की महराब और चाल-चलन
सभी नवगीत आक्रोश और मारक तेवर लिए हुए है। आप की समर्थ लेखनी को सादर नमन एवं हार्दिक बधाई,,,
भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल
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अनामिका सिंह जी के नवगीतों में जहाँ "अम्मा की सुध आई " में मधुर स्मृतियों की शीतल छांँव में ले जाती है। वहीं अन्य नवगीत हमें जीवन के पथरीली राहों से परिचय कराते हैं। अद्भुत प्रतिबिंब, आकर्षक शिल्प से संपृक्त ओजपूर्ण रचनाएँ हर काल में सत्य रही है और आज भी हैं ...
पीड़ा के दर्पण में दिखते/कोरे हुये विमर्श/उठे हाथ के यहाँ देख लो/गिरे हुये निष्कर्ष।'' पैनी धार से सधी कलम ने सच्चाई लिखी सत्ताधीशों की असफलताओं की कहानी दो पंक्तियों में ही लिख दी। जीवन कितना कठिन हो रहा है आपने यह भी दर्शा दिया। "तनी डोर पर चले जिन्दगी/साध संतुलन मन का/बदल रही भूगोल चूक भी/टूटे हुये बदन का।" और अंत में "पीड़ा जीकर/सुख की खातिर/जारी रख संघर्ष।" यही तो कर रहे थे हम और आगे भी हमको यही करना है। इस कटु सत्य की ओर इंगित करती पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गईं।
अम्मा की सुध आई में अप्रतिम बिंबों के प्रतीक के माध्यम से अम्मा की सुध के साथ ही ममता बरसाती अम्मा के होने पर परिवार को कितना सहारा देती है यह भी स्पष्ट कर दिया आपने। सच में कितनी ही पलकें भीगेगीं इस नवगीत ने अम्मा को साक्षात मिला दिया। शाम-सबेरे शगुन मनाती/खुशियों की परछाई/अम्मा की सुध आई/एक इकाई ने कुनबे की/जोड़े रखी दहाई/अम्मा की सुध आई।" अम्मा पर लिखा यह अत्यन्त प्रभावी नवगीत है।
*जोखू -जैसी प्यास*
शोषण की गति मंद हुई कब/हुआ दीन से दीन/पैरहन बदल रही सत्ता के/ बढते रहे विकार/दृश्य न दीखे सद्भावों के/बंध्या हर उम्मीद।" सदियों से चली आ रही भेदभाव के बीच शोषण की फैली हुई बेल को पोषित करते सत्ताधीशों की करनी और कथनी में अंतर से उपजी पीड़ा के मध्य भी आस जगाये रखने की प्रेरणा दे रही ये पंक्तियांँ। "दोज़ख हो/ माहौल भले ही/नहीं छोड़नी आस।''
*यौवन की दहलीज* में आजादी के इतने बरसों बाद भी गरीबी-भुखमरी के बीच पलती जिदगी का मार्मिक चित्रण। देखें- "धंसी आँख का/जिन्दा मुर्दा/लगी पेट से पीठ/मिली प्रौढता आजादी को/हुई भूख है ढीठ/कड़वा तेल नहीं शीशी में /चुका घरों का नून/टिक्कड़ दो अँतड़िया दे दो/कहे पेट दो जून.. l जीवन की आपाधापी में उलझी बिटिया यौवन की दहलीज पहुंँचकर पढा़ई करने उपरांत कह दिया मुझे कोई ताबीज नहीं पहनना। चाहे जितने मुखौटे पहनकर भेड़िये फिरें वह उनका शिकार नहीं बनेगी। वे अपने स्वार्थ के लिये उसे दांँव पर नहीं रख सकते हैं। युवा कवयित्री अनामिका सिंह की लेखनी ने सूक्ष्म दृष्टि से गरीबी में पिसते जीवन की व्यथा-कथा को रेखांकित किया है....।
*एक कलम पर*
एक कलम पर/सौ खंजर हैं/सच के सुआ भेदती कीलें/घात लगाये वहशी चीलें/गुलशन सारा धुआँ -धुआँ है/बदहवास सारे मंजर हैं/एक कलम पर सौ खंजर हैं ..सच को ज्यों का त्यों लिखना कितना कठिन है, जिसे कवयित्री सहज रूप में व्यक्त कर रही है। आगे देखें- 'विध्वसों की/भू उर्वर है/सद्भावी चिंतन बंजर है/एक कलम पर सौ खंजर हैं।'' सद्भाव, भाईचारा, आपसी जुड़ाव सब कुछ तो खत्म हो गया है-"लोकतंत्र में लोक रूआँसा/खल वजीर ने/ फेका पाँसा/लिखी दमन की/चंट कहानी/सख्ते में है/चुनर धानी।" शासन प्रशासन की कुव्यवस्था के कारण फैलती हुई अराजकता को बेखौफ यह नवगीत उजागर कर रहा..l
*आँत करे उत्पात*
नवगीत की प्रत्येक पंक्ति ने आज के हालात को बखूबी अभिव्यक्ति दी है-"रिक्त उदर में जले अंगीठी/आंँत करे उत्पात/वादों की नंगी तकली पर/रहे सूत को कात।" एहसान और प्रदर्शनवादी मानसिकता को को रेखांकित करते हुए कंबल वितरण का एक छोटा सा उदाहरण देकर मदद के लिए आगे बढ़ते मददगारों की कलई अधेड़ी है। जिन्हें मदद से ज्यादा जरूरी अपनी तस्वीर खिंचवाना होता है। आगे एक और नंगा सच देखें- "राजमुकुट के चाल -चलन को/देख रहा गणतंत्र/लाल किले की सीख सयानी/बना रही परतंत्र ...l
*कट्टर धर्म मथानी*
राम राज की/जय हो, जय हो/आग लगा दी/पानी में/घायल बचपन हुआ बिलोते/कट्टर धर्म मथानी में।'' वातवरण में जहर घोलती ये जातिवादी मानसिकता की भावना, जो धर्मांधता के बीज से उत्पन्न होकर विध्वंस रूप लेती है। कोई भी धर्म संप्रदाय मानवता के नाम पर मानवता को ही बांँटने और काटने का काम करता है.. यह दो टूक सत्य है।
*लानत रख लो*
लानत रख लो/जन गण मन की/राजा निकले पाथर तुम/हाहाकार मचा हर घर में/रेंगी जूँ कब कानों पर/मला अंधेरा तुमने सबकी/आँखों और विहानों पर..। सत्ताधीशों को की करनी और कथनी के अंतर को कलम ललकार उठी है..l
*सत्ता की महराब*
धरती का भगवान/हुये क्यों सपने लहूलुहान/सत्ता की महराब/पीर क्या समझें छप्पर- छान/खड़ी फसल चौपाये चरते/दोपाये लुटें/विपदायें कुंठाएँ छप्पर-छानी पर टूटें/खेत किसानी वाला भारत/भूखा मरे किसान/जन की सत्ता खेतों में कब/ चलकर आयेगी /सुबके हुये कृषक को/ आकर न्याय दिलायेगी/एक छलावा/कृषक हितो में पूंँजी/का अनुदान..। इस नवगीत में अनामिका सिंह जी ने कृषकों की पीड़ा को उजागर करते हुए उनके हितों के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की है। अप्रतिम नवगीत।
*चाल चलन*
शीर्षक से अनामिका सिंह जी का नवगीत यहांँ मार्गदर्शक की भूमिका अपनाते हुए स्त्री वर्ग की पीड़ा को रेखांकित करते हुए सचेत कर रहा है। यथा- "परिधि तुम्हारे पंखों की लो/ रहे हितैषी खींच/चिरैय्या बचकर रहना।
अनामिका सिंह जी के नवगीत आज के समाज का प्रतिबिंब हैं। समय के कटु सत्य को उद्घाटित करते हैं। वह चाहे किसानों की पीड़ा हो, या सत्ताधीशों की करनी कथनी के विरूद्ध कार्य हो, अम्मा की स्नेहिल शीतल छांव हो, या हाशिए पर जानबूझकर धकेले दीन-हीन की दुर्दशा हो, ऊंँच-नीच, जात-पाँत, अलग-अलग विषय वस्तु के माध्यम से अनामिका जी ने पूरी शिद्दत के साथ अपनी लेखनी से उन्हें रेखांकित किया है। आँचलिक शब्दों नवगीतों में अद्भुत तादात्मय है। अप्रतिम लेखन के लिए अनामिका सिंह जी को हृदय से बधाई एवं प्रस्तुति के लिए संवेदनात्मक आलोक पटल संचालन समिति तथा आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी को सादर नमन।
अंजना वाजपेयी
जगदलपुर (बस्तर)
छत्तीसगढ़
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आदरणीया अनामिका जी के दसौ नवगीत बहुत सुन्दर हैं और ये मन पर स्पष्ट और गहरी छाप छोड़ते हैं। नवगीतों के विषय आम जिंदगी से जुड़े हुए हैं, पर कहन विशेष है। विषय और शब्द चयन में सुन्दर तालमेल है। आंचलिक शब्दों का प्रयोग बहुत सूझबूझ से किया है जो यह बताते है कि उनका एक अपना महत्व है।
"कोरे हुए विमर्श" में नारी जीवन की तकलीफों, आठो पहर की हाड़तोड़ मेहनत, पुरुष प्रधान समाज की यातनाओं को चुपचाप सहते हुए जिंदगी के सफर को बहुत अच्छे से चित्रित किया है।
"अम्मा की सुध" में अनामिका जी ने बचपन की सुधियों को उकेरा है। एक नारी द्वारा अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को मारकर किस तरह से अपने परिवार के लिए अनवरत त्याग करते हुए और अपने दायित्यों का निर्वहन करते हुए, परिवार के मान-सम्मान की संरक्षिका के रूप में जीवन पथ पर आगे बढ़ती है, को दिखाया है।
"जोखू -जैसी प्यास" में आज के दौर में मौजूद सामन्ती सोच, गरीबों के शोषण, छुआछूत, ऊँचनीच को चित्रित किया गया है।
ऐसे उत्तम दर्जे के नवगीतों से रूबरू कराने के लिए आदरणीया अनामिका जी और आदरणीय, दाहिया जी का धन्यवाद।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
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[9/20, 6:17 PM] रामकिशोर दाहिया: संवेदनात्मक आलोक विश्व नवगीत साहित्य विचार मंच पर १०६वां अंक में युवा ,कवियत्री आदरणीया अनामिका सिंह जी के दस नवगीतों को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ है इसके साथ साथ वरिष्ठ साहित्य मनीषियों की टिप्पणी भी पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसके लिए आदरणीय दाहिया जी को हृदय से साधुवाद देता हूँ, समय सापेक्ष इन नवगीतों में कवियत्री का सूक्ष्म शोधपरक सामाजिक व राजनीतिक चिंतन ,पारिवारिक मनो वैज्ञानिक अध्धयन तथा उद्दात वैचारिक तरलता इनसभी नवगीतों को बिशेष बनाता है आशावाद व संघर्ष के लिए आमजन को प्रेरणादायक संदेश ,बदलते पारिवारिक माहौल का संबंधों पर दुष्प्रभाव, राजनीति का कुरुप चेहरा, वर्तमान में नारी के प्रति संवेदनहीन षुरुष प्रधान समाज, किसानों के प्रति हठधर्मीता, राजनीतिक रवैया, वंचितों और गरीबों के प्रति सामाजिक समभाव का अभाव का यथार्थ परक सफलतम पुष्ट बिंब व प्रतीक योजना, सरल भाषा शैली में प्रभावशाली शाब्दिक चित्रण किया है सादर धन्यवाद
(ड़ा प्रदीप कुमार त्रिपाठी)
कानपुर
[9/20, 6:17 PM] रामकिशोर दाहिया: अनामिका सिंह के इन गीतों को अपनी व्यस्तता के कारण समय से न पढ़ पाने का अपराध-बोध मन पर हावी हो रहा है।अभी जब पटल पर प्रस्तुत उनके नवगीत गीत पढ़ने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए शुरूआत की तो हर गीत का कथ्य और केन्द्रीय भाव सामने आकर स्वयं अपना महत्व बता रहा है । अतः विस्तृत विमर्श संभव नहीं हो पा रहा है। अनामिका की रचनाधर्मिता पर प्रस्तोता श्री अशोक शर्मा 'कटेठिया' जी ने बहुत सही आकलन किया है तथा अनेक विज्ञजनों ने विचार व्यक्त किये हैं । अतः मैं संक्षेप में कहूँ तो कहा जा सकता है कि ये गीत जीवंत अनुभूतियों के संवेदन की आँच में तपकर निकले प्रतिरोध के स्वर हैं जो तीर की तरह अपने लक्ष्य को भेदने में सक्षम हैं। 'माँ' से शुरू करके 'राजा', 'रामराज्य', और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जिस देशज शब्दावली में सर्जना की है वह अनामिका की अपनी अलग पहचान देती हुई नवगीतकारों की पंक्ति में सम्मानजनक स्थापना प्रदान करेगी और ' एक कलम पर सौ-सौ खंजर' जैसे गीत लिखकर प्रतिरोध की मशाल को आगे बढायेगी। मैं हृदयतल से अनामिका के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ ।
-- जगदीश पंकज
गाजियाबाद
[9/20, 6:17 PM] रामकिशोर दाहिया: गीत-कवयित्री अनामिका जी के पटल पर प्रस्तुत गीतों पर वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार कृषक जी की टिप्पणी सर्वथा उचित है। प्रस्तुत गीतों के अतिरिक्त फेसबुक व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आने वाले गीतों के अध्ययन-अवलोकन से यह स्थापित भी होता है। उनके गीतों में जनपीड़ा की अभिव्यक्ति के अर्थवान बिम्ब हैं व जीवन संघर्ष को जिलाये रखने की चेष्टा भी है-'पीड़ा जीकर सुख की खातिर... ' पंक्ति को पढ़ते अचानक गुलाब सिंह जी का कालजयी गीत 'टपरे का पोर-पोर टपके ... ' याद हो आता है। देशज शब्दों के प्रयोगों की कवयित्री की यह शैली वास्तव में उनके नवगीत लेखन की एक पूरी परम्परा से जुड़ने का संकेत है जहाँ गुलाब सिंह, ओम धीरज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, रामकिशोर दाहिया जैसे सिद्धहस्त कलमकार आते हैं किन्तु इस परम्परा को वह कितना आत्मसात करेंगी व कितना संवर्धन करेंगी इसका निर्णय भविष्य करेगा। अम्मा की सुध आई गीत पढ़ते हुये माँ पर लिखे अनेक गीत याद आते हैं विशेष रूप से यश मालवीय जी का 'अपना अप्रासंगिक होना देख रही है माँ... ' अपनी शैली शिल्प व कथ्य में यद्यपि दोनों गीतों का कोई मेल नहीं है किन्तु क्या और होना चाहिए का संकेत अवश्य है। इस सन्दर्भ में दाहिया जी का गीत ' मुर्गा बाँग न देने पाता उठ जाती भिनसारे अम्मा.. ' की भी याद आयी तो बड़े भाई रविशंकर मिश्र की 'दफ्तर से लौटी है ममता की छाँव' भी। कवयित्री वर्तमान सामाजिक राजनीतिक ढाँचे से असंतुष्ट है इसकी अभिव्यक्ति उनके गीतों में भी हुई है, साथ ही मानवद्रोही स्थितियों से सतर्क रहने की चेतावनी भी है। यह सच है कि हम जिस समकाल में जी रहे हैं हम चाहकर भी उससे बाहर नहीं रह सकते, नवगीत में तो तदापि नहीं। अनामिका जी के गीतों की प्रतिबद्धता स्पष्ट है। वह चिंतनशील रचनाकार हैं और समकाल पर टिप्पणी करने में समर्थ हैं। विषय संधान व प्रयोग के जोखिम आदि कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिनपर कवयित्री भविष्य में और आकर्षित कर सकेंगी ऐसा मेरा विश्वास है। शुभकामनाओं समेत-
- शुभम् श्रीवास्तव ओम, मिर्जापुर बिहार।
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अनामिका सिंह के नवगीतों को काफी समय से पढ़ रहा हूँ। यदि आपके नवगीतों की कुछ बात की जाए तो इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता कि आपके पास अद्भुत मौलिक दृष्टि है. नवगीत की संकल्पना में सम्मिलित नव शिल्प, नव छंद और नव भाव का विश्वास इन गीतों में निखर कर आता है. अनामिका जी के पास गज़ब का शब्द-भण्डार है. अपने क्षेत्र में प्रचलित बोली के विभिन्न शब्दों का प्रयोग कर आप रचना कर्म को देशज पहचान देती हैं, उन्हें लोक से विशिष्ट जुड़ाव देती है. इस परिप्रेक्ष्य में आपके गीत लीक से हटकर नव्यता से भरे हुए हैं.
गीतों को लोक जीवन और लोक भावनाओं का संवाहक क्यों माना जाता है इस मुखड़े से दिखता है- "तुलसी चौरे पर मंगल के/ रही चढाते लोटे/चढ़ीं हुईं जा खुशियाँ उसकी/जाने किस परकोटे।
अपनी इस विशिष्ट शैली के साथ ही वे आधुनिक युग की परिस्थितियों का बखूबी चित्रण करतीं हैं. कुछ हटकर रचे गए बिम्ब और प्रतीक सहज ही पाठक मन को आकर्षित कर लेते हैं. यह मुखड़ा इस मायने में देखने लायक है- "रेहन पर हैं/सत्ताधारी/कुटिल नीतियाँ हैं दोधारी/भाषण/
लच्छेदार सुनाएँ/हर अवसर पर विष टपकाएं।"
इसके अलावा भी अनेक अनूठे बिम्बों का निर्माण कवियत्री करतीं हुईं दिखाई देती हैं. “गहना कुहासा आँगन फैला, औंधी पड़ी परात”, ऐसे बिम्ब उनकी मौलिकता का परिचय देते हैं.
वागर्थ के माध्यम से आप मनोज जैन जी के साथ उत्कृष्ट कार्य कर रहीं हैं जिसके लिए भी आप बधाई की पात्र हैं. आपके गीतों से काफी कुछ सीखने को मिलता है, मेरी ओर से सादर शुभकामनाएँ!
- क्षितिज जैन, जयपुर, राजस्थान।
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